Tuesday, December 6, 2011

ममोनी बाइदेउ इंदिरा गोस्वामी



महज एक महीने के बाद वर्ष 2011 जिन कारणों से हमारी यादों में शामिल होगा, उनमें कुछ बहुत ही दुखद हैं। इस वर्ष के दौरान साहित्य, संगीत, कला और खेल जगत की कई हस्तियां एक के बाद एक हमसे हमेशा-हमेशा के लिए बिछुड़कर हमारे लोकजीवन को सूना कर गई। महान चित्रकार मकबूल फिदा हुसेन से शुरू हुआ हमें शोकसंतप्त करने का यह सिलसिला पंजाबी के नाटककार गुरशरण सिंह, गजल गायक जगजीत सिंह, फिल्म अभिनेता शम्मी कपूर, नीलू फूले, क्रिकेटर मंसूरअली खान पटौदी, असमिया लोक संगीत के साधक भूपेन हजारिका, प्रतिष्ठित मराठी साहित्यकार विंदा करंदीकर, मशहूर व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल और सारंगी नवाज उस्ताद सुल्तान खां तक होते-होते अब मशहूर असमिया साहित्यकार इंदिरा गोस्वामी तक जा पहुंचा है। असमिया संस्कृति के लिए तो यह भूपेन हजारिका के निधन के बाद सर्वाधिक शोक की बेला है।
अपने गहन और व्यापक सामाजिक व मानवीय सरोकारों के लिए प्रतिबध्द इंदिरा गोस्वामी का निधन सिर्फ असमिया समाज के लिए ही नहीं बल्कि समूचे भारतीय समाज के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है। इंदिरा गोस्वामी का जन्म असम के एक पारंपरिक वैष्णव परिवार में हुआ था जो कि एक मठ का मालिक था। उनका घरेलू नाम था ममोनी रायसम गोस्वामी और असमिया समाज में उन्हें बाइदेउ के नाम से पुकारा जाता था। ममोनी असमिया का शब्द है जिसका अर्थ होता है बिटिया या लाडली और बाइदेउ का मतलब होता है बड़ी दीदी। दिलचस्प है कि उनके जन्म पर एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि इस कन्या का जन्म अशुभ ग्रहदशा में हुआ है जो अनिष्टकारी हो सकता है, इसलिए इसके टुकड़े कर ब्रह्मपुत्र में बहा देना चाहिए। लेकिन उनके परिवार ने अपने पारंपरिक संस्कारों के बावजूद इस तरह के अंधविश्वास को कुबूल नहीं किया। उनके पिता पढ़े-लिखे और आधुनिक विचारों के थे और रवींद्र संगीत से गहरा लगाव रखने वाली मां भी सुलझे विचारों की थीं। फिर भी अपने जन्म से जुड़ी ज्योतिषी की भविष्यवाणी इंदिरा गोस्वामी कभी भूल न सकीं। भाग्य के इस लेखे को खंडित करने की आकांक्षा उनमें आजीवन बनी रही। आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने असमिया सीखी और फिर वे भारतीय लोक और परंपरा के ब्रह्मपुत्री प्रवाह का हिस्सा बन गईं।
 चूंकि उनका पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा मठ के परिवेश में ही हुई थी, लिहाजा धार्मिक संस्थानों के संचालकों का आचरण, धार्मिक पाखंड और धर्म के नाम पर कुरीतियों का पोषण उन्हें बेहद नजदीक से और खुली आंखों से देखने को मिला। अपने इसी आंखों देखे यथार्थ की आधार-भूमि पर उन्होंने 'दाताल हातिर उने खोवा हौदा' नामक उपन्यास की रचना की। मठों में रहकर गुजारा करने वाली असम की ब्राह्मणी विधवाओं की मार्मिक जीवन-गाथा पर आधारित इस उपन्यास पर बाद में चर्चित फिल्म 'अदाज्य' बनी। इसी समस्या को उन्होंने वृंदावन के आश्रमों में रहने वाली विधवाओं के बीच रहकर और नजदीक से देख-समझकर 'नीलकंठी ब्रज' नामक उपन्यास की रचना की। उनकी यह रचना सिर्फ असमिया साहित्य में ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय साहित्य अपना खास स्थान रखती है।
धर्म के नाम पर चलने वाले पाखंडों के खिलाफ अभिव्यक्ति के खतरों से ब्रह्मपुत्र की यह बेटी बखूबी परिचित थीं। धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों की ओर से उन्हें कई बार धमकियां भी मिलीं लेकिन उन्होंने इसके बावजूद कुरीतियों के खिलाफ लिखना बंद नहीं किया। इस सिलसिले में असम के कामाख्या मंदिर में सदियों से चली आ रही पशुबलि की प्रथा के खिलाफ उनका लिखा उपन्यास 'छिन्नमस्तार मानुहतो' काफी चर्चित हुआ, जो बाद में 'छिन्नमस्ता' के नाम से हिंदी में भी खूब लोकप्रिय हुआ। धार्मिक छल-छद्म, अंधविश्वास और कुरीतियों पर अपनी कलम के माध्यम से तीखे प्रहार करते रहने के बावजूद धर्म और परंपरा के प्रति उनका सोच कभी भी इकहरा या एकांगी नहीं रहा। तुलसीदास के रामचरितमानस और चौदहवीं सदी में लिखी गई माधव कंदली की असमिया रामायण का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए उनकी लिखी गई पुस्तक 'रामायण फ्रॉम गंगा टु ब्रह्मपुत्र' इस सिलसिले में उल्लेखनीय कृति मानी जाती है। इसी विषय पर 'माधव कंदली और तुलसीदास का तुलनात्मक अध्ययन' शीर्षक से शोध ग्रंथ की रचना कर उन्होंने पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।  
इंदिरा गोस्वामी प्रखर कहानीकार होने के साथ ही गंभीर अध्येता भी थीं। यही वजह है कि वे समाज की विभिन्न समस्याओं पर लगातार शोध करती रहीं। समाज में आ रहे बदलावों और उनसे उपजी विसंगतियों तथा राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के बीच बुनियादी सुविधाओं के अभाव और बदहाली की जिंदगी से जद्दोजहद कर रहे हाशिए के लोगों की समस्याएं उन्हें लगातार मथती और बेचैन करती रहीं। अपनी इस बेचैनी को उन्होंने अपनी कलम के माध्यम से पूरी शिद्दत के साथ व्यक्त किया। चूंकि मानवता इंदिरा गोस्वामी के लिए सबसे बड़ा जीवन-मूल्य था, इसीलिए 1984 की सिख विरोधी देशव्यापी हिंसा और पूर्वोत्तर में जारी अलगाववाद की समस्या पर भी उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ अपनी कलम चलाई। उनके इसी तरह के सरोकारपूर्ण लेखन के लिए उन्हें देश में साहित्य के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी पुरस्कार समेत कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया।
लेखन कर्म से इतर इंदिरा गोस्वामी ने असम में अपनी-अपनी जातीय अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहे लोगों की आकांक्षाओं और उनके असंतोष की टीस को जिस हद तक महसूस किया, वह आज एक मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता और शांतिदूत के संघर्ष और कामयाबी के तौर पर दर्ज है। गौरतलब है कि आज केंद्र सरकार और युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के बीच संवाद की स्थिति के साथ असम समस्या के समाधान की उम्मीद की जो किरणें दिखाई दे रही हैं वह इंदिरा गोस्वामी की सक्रिय पहल का ही परिणाम है। यही वजह है कि असम सरकार ने उनके निधन पर राजकीय शोक की घोषणा की और उल्फा के प्रमुख नेता परेश बस्र्आ और अभिजीत बर्मन ने कहा कि पूर्वोत्तर के इतिहास में इंदिरा गोस्वामी को उल्फा के मकसद और फलसफे को केंद्र सरकार तक पहुंचाने के लिए याद किया जाएगा। अपने जुझारू और रचनात्मक लेखन, विचार और कर्म से असमिया संस्कृति को समृध्द करने वाली इंदिरा गोस्वामी के निधन से असम के लोकजीवन में तो एक बहुत बड़ा शून्य पैदा हुआ ही है, उत्तर-पूर्व को शेष भारत से जोड़ने वाला एक पुल भी ढह गया है। इसके साथ ही भारतीय साहित्य में प्रतिबध्द और सरोकारपूर्ण लेखन की धारा भी कमजोर हुई है।

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