Friday, December 9, 2011

यह बेमतलब की हायतौबा थी!


खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने के अपने फैसले के चौतरफा विरोध के चलते सरकार को आखिरकार अपने कदम पीछे खींचने से राजनीतिक घमासान तो थम गया, लेकिन इस फैसले को लेकर एक सप्ताह तक जो संसदीय गतिरोध बना रहा, वह हैरान करने वाला रहा। सरकार के फैसले का व्यापारी संगठनों द्वारा किया गया विरोध तो समझ में आता है, क्योंकि उन्हें सरकार का यह फैसला अपने कारोबारी हितों के प्रतिकूल लगता है। इस फैसले के खिलाफ वामपंथी दलों और जनता दल (युनाइटेड) जैसी समाजवादी पृष्ठभूमि की पार्टी का रवैया भी समझ में आता है क्योंकि विदेशी पूंजी या बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लेकर इन पार्टियां का विरोध पुराना और जगजाहिर है। तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसी सरकार की सहयोगी पार्टियों का विरोध करना भी कतई चौंकाता नहीं है, क्योंकि गठबंधन की राजनीति में अपनी-अपनी क्षेत्रीय और दलीय जरुरतों को ध्यान में रखकर इस तरह का रवैया अपनाना इन पार्टियों के नेतृत्व का पुराना स्वभाव रहा है। हैरान करने वाला रवैया तो भारतीय जनता पार्टी का रहा, क्योंकि इस प्रमुख विरोधी दल की विचारधारा तो इस तरह के विदेशी निवेश के पक्ष में रही है।
 कोई दो दशक पहले उदारीकरण की शुरुआत के बाद भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसी की गर्भनाल से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच ने 'स्वदेशी' का नारा दिया था। भाजपा ने भी कुछ दिनों तक तो स्वदेशी का मंत्रोच्चार किया लेकिन बहुत जल्द ही जाहिर हो गया कि ये खाने के नहीं, सिर्फ दिखाने के दांत हैं। कुछ राज्यों में उसकी सरकारें बनने के बाद उसके मुख्यमंत्री भी विदेशों के दौरे कर विदेशी कंपनियों को अपने राज्यों में उद्योग लगाने के लिए पीले चावल बांटने लगे। अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने जिन आर्थिक नीतियों पर अमल किया, वे वही थीं जिनकी रचना पीवी नरसिंहराव के प्रधानमंत्रित्व के दौरान वित्त मंत्री की हैसियत से डॉ मनमोहन सिंह ने की थी। इसलिए कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश की भाजपा सरकारों ने थोड़ी-बहुत झिझक के साथ खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश का समर्थन किया। दरअसल, दो दशक पहले आर्थिक उदारीकरण का जो सफर शुरू हुआ था, खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश उसी सफर का एक पड़ाव है। हकीकत यह भी है कि व्यवहार में कोई भी राजनीतिक दल विदेशी निवेश के खिलाफ नहीं है। सभी राज्यों के मुख्यमंत्री, वे चाहे जिस पार्टी के हों, अपने-अपने राज्य में विदेशी पूंजी को न्योता देने के लिए विदेश यात्राएं करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर खुदरा कारोबार में ऐसा क्या है जिसमें विदेशी निवेश को लेकर इतनी हायतौबा मचाई गई?
 एक दशक पहले खुदरा कारोबार में देशी कॉरपोरेट घरानों के प्रवेश को इजाजत देने पर भी काफी हल्ला मचा था। आशंका जताई गई थी कि कॉरपोरेट घराने असंगठित क्षेत्र की खुदरा और किराना दुकानों को बंद करवा देंगे, जिससे देश में भारी बेरोजगारी फैल जाएगी। लेकिन यह आशंका निराधार साबित हुई। इस क्षेत्र में विदेशी निवेश की क्या गत हो सकती है, इसका अंदाजा देश के कॉरपोरेट घरानों के निवेश की 'प्रगति' से भी लगाया जा सकता है। रिलायंस, फ्यूचर समूह (बिग बाजार), स्पेंसर, सुभिक्षा जैसे देश के बड़े और संगठित खिलाड़ी बड़ी धूमधाम के साथ खुदरा बाजार में उतरे थे लेकिन इनमें से सिर्फ रिलायंस और बिग बाजार ही अभी तक बाजार में टिके हुए हैं और उनके लिए भी यह बहुत फायदे का सौदा साबित नहीं हुआ है। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में खुदरा कारोबार अभी लगभग 470 अरब डॉलर का है, जिसमें सुपर मार्केट सहित समूचे संगठित क्षेत्र का हिस्सा महज 27 अरब डॉलर है, जो सात फीसदी से भी कम है। अगर खुदरा कारोबार कॉरपोरेट घरानों के लिए बहुत फायदे का सौदा होता तो देश के हर शहर और कस्बे में इनकी चमचमाती दुकानें नजर आती।
उदारीकरण के शरुआती दिनों में जब मैकडोनाल्ड और केएफसी के चटपटे और चमचमाते रेस्टोरेंट भारत आए, तब उनका भी काफी विरोध हुआ था। दिल्ली समेत कई महानगरों में उन रेस्टोरेंटों पर हमले किए गए थे। लेकिन इस शुरुआती तोड़फोड़ और भावुक विरोध के बाद स्थिति सामान्य हो गई और देश के अन्य छोटे-बड़े शहरों में भी ये रेस्टोरेंट खुल गए। लेकिन हुआ क्या? देश के आधा फीसदी लोग भी इन रेस्टोरेंटों की ओर रुख नहीं करते हैं। दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, लखनऊ, भोपाल, इंदौर, जयपुर कहीं भी चले जाइए, आपको इन रेस्टोरेंटों में गिने-चुने लोग ही मिलेंगे, जबकि इनके आसपास ही स्थित खाने-पीने की दूसरी दुकानों पर हर तबके के लोगों की भीड़ मिलेगी।
देश के खुदरा कारोबार में कारपोरेट घराने अगर अपने पैर नहीं फैला पाए हैं तो इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि उनका अपने ग्राहकों से वैसा रिश्ता नहीं बन पाया है और न कभी बन सकता है जैसा गली-मोहल्ले के किराना दुकानदारों का अपने ग्राहकों से होता है। इन दुकानदारों का अपने ग्राहकों से जीवंत सम्पर्क रहता है, इसलिए ये जरुरत पड़ने पर उन्हें उधार में भी सामान दे देते हैं और इन दुकानदारों से ग्राहक मोलभाव भी आसानी से कर लेते हैं। यह छूट उन्हें रिलायंस या बिग बाजार के स्टोर्स पर कभी नहीं मिल सकती और न ही विदेशी कंपनियों की दुकानों पर ऐसी छूट मिल सकेंगी। इसलिए भी यह आशंका निराधार है कि खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियां आ जाने से देशी दुकानदारों का धंधा चौपट हो जाएगा।
दरअसल, खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के आने का विरोध महज राजनीतिक पाखंड के अलावा कुछ भी नहीं है। इस मुद्दे पर हायतौबा मचा कर संसद को एक सप्ताह तक ठप रखने वाले वे ही लोग हैं जो बीमा और बैंकिंग जैसे अहम क्षेत्रों में विदेशी पूंजी को सजदा कर चुके हैं। हमारे शेयर बाजार में विदेशी पूंजी खुल कर खेल रही है। विदेशी कारें देश के शहरों में फर्राटे से दौड़ रही हैं। बोतलबंद पानी भी विदेशी कंपनियां बेच रही हैं। सड़कें , बंदरगाह और हवाई अड्डे बनाने के लिए विदेशी कंपनियों को ठेके दिए जा रहे हैं। विदेशी शिक्षण संस्थानों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने का न्योता दिया जा रहा है। राजग सरकार के दौरान तो भारतीय उद्यमों को विदेशी कंपनियों के हाथों बेचने के लिए एक अलग मंत्रालय ही बना दिया गया था, जिसे विनिवेश मंत्रालय का नाम दिया गया था। भारतीय अर्थव्यवस्था का यह विदेशीकरण क्या चिंता का विषय नहीं होना चाहिए? लेकिन इस मामले में वामपंथियों के अलावा कहीं से कोई प्रतिरोध की आवाज सुनाई नहीं देती।
हकीकत तो यह है कि हमारी लगभग समूची राजनीति ही विदेशी पूंजी की बंधक बनी हुई है। सरकार की बुनियादी आर्थिक नीतियों का वास्तविक और प्रभावी प्रतिरोध कहीं दिखाई नहीं देता। खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी का विरोध महज राजनीतिक अवसरवाद से ज्यादा कुछ नहीं है। अगर विपक्ष का विरोध ईमानदार होता और वह वाकई संसद में इस मुद्दे पर मतदान चाहता तो इस कदर हंगामा मचा कर संसद ठप नहीं करता बल्कि लोकसभा अध्यक्ष द्वारा कामरोको प्रस्ताव नामंजूर कर दिए जाने पर वह सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाता। उसे ऐसा करने से कोई नहीं रोक सकता था। अविश्वास प्रस्ताव आता तो इस मुद्दे पर बहस भी होती और मतदान भी होता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। जाहिर है कि उसका न तो विदेशी पूंजी से कोई विरोध है और न ही वह इस समय सरकार गिराना चाहता है। वह तो सिर्फ खुदरा कारोबारियों और आम जनता को यह दिखाना चाहता था कि देखो तुम्हारे असली हमदर्द तो हम ही हैं। वह सरकार गिराकर और मध्यावधि चुनाव कराकर वैकल्पिक सरकार और वैकल्पिक नीतियां बनाने की स्थिति में बनाने की स्थिति में नहीं है। इसलिए उसने अपनी सारी ऊर्जा संसद को ठप करने में ही लगाई। विपक्ष की इस मनस्थिति को सरकार भी अच्छी तरह समझती है। इसीलिए उसने भी अपने फैसले को रद्द नहीं किया है, महज स्थगित किया है। उसे यकीन है कि यह दिखावटी हल्ला-गुल्ला ज्यादा लंबा नहीं चलेगा और उसे अपना फैसला लागू करने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। सरकार के इस आशावाद से शायद ही कोई असहमत होगा, यहां तक कि विपक्ष भी नहीं।
  

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