Tuesday, September 24, 2013

संघ और भाजपा का अद्वैत

पंचतंत्र में एक कथा है, जिसमें बंदर का दिल खाने को आतुर एक मगरमच्छ से अपनी जान बचाने के लिए बंदर कहता है कि हम बंदर अपना दिल पेड़ पर टांगकर ही कहीं जाते हैं...! वैसे तो जनसंघ के समय से ही लेकिन खासकर 2004 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सत्ता से बाहर होने के बाद से भाजपा की हालत भी कमोबेश यही है कि उसके नेता भी अपना विवेक नागपुर स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय में रखकर ही राजनीतिक फैसले करते हैं। इसी बात को यशस्वी संपादक-पत्रकार प्रभाष जोशी थोड़ा अलग अंदाज में कहा करते थे। उन्होंने एक जगह लिखा है कि संघी कुनबे में दिल्ली के सौ सुनारों पर नागपुर के लुहार का एक हथौड़ा भारी पड़ता है। प्रभाष जोशी अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनकी यह स्थापना एक बार नहीं, बार-बार सही साबित हुई है। और, इस बार तो नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवाने के लिए नागपुर में बैठे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आकाओं ने जिस तरह दबंगई दिखाई उससे किसी को भी यह भ्रम नहीं रहा कि अपने दावे के मुताबिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सांस्कृतिक संगठन नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से राजनीतिक संगठन है और भारतीय जनता पार्टी उसका मुखौटा भर है।
वैसे संघ के तमाम कर्ताधर्ता यह दावा करते नहीं थकते कि भाजपा अपने फैसले खुद करती है, उनमें संघ का कोई हस्तक्षेप नहीं होता, वह तो सिर्फ सलाह देने भर का काम करता है। ठीक इसी तरह भाजपा भी संघ से अपनी दूरी का इजहार करती है। मगर हकीकत किसी से छिपी नहीं है। भाजपा के सांगठनिक फैसलों में हर स्तर पर संघ का पूरा दखल होता है। वैसे भाजपा में एक तबका ऐसा है जो पार्टी के मामलों में संघ की दखलंदाजी पसंद नहीं करता है। कोई दो-ढाई दशक पहले जब संघ ने पार्टी के महत्वपूर्ण पदों पर अपने प्रचारकों को बिठाना शुरू किया था, तभी से पार्टी के भीतर यह आवाज उठती रही है कि भाजपा ने अगर संघ से दूरी नहीं बनाई तो पार्टी की मुश्किलें बढ़ती जाएंगी। जब तक पार्टी का नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के हाथों में रहा तब तक तो संघ्ा का हस्तक्षेप एक सीमा तक ही होता था या इसे यों कहें कि वाजपेयी-आडवाणी ने संघ को एक सीमा से ज्यादा पार्टी पर हावी नहीं होने दिया। बेशक, वाजपेयी और आडवाणी दोनों ही संघ की उपज थे, लेकिन उस कुनबे में पैदा हुए वे पहले ऐसे राजनीति-कर्मी थे, जो संसदीय लोकतंत्र के ढांचे में अपनी पहचान बनाने की कोशिश में बेहद संजीदगी से लगे थे। अपनी इन कोशिशों के दौरान ही उन्होंने यह भी अच्छी तरह समझ लिया था कि संघ का स्वयंसेवक कहलाने में कोई दिक्कत नहीं है, गाहे-बगाहे संघ के कार्यक्रम में जाकर ध्वज-प्रणाम करने और 'नमस्ते सदा वत्सले...!" गुनगुनाने में भी कोई परेशानी नहीं है और मौका आने पर संघ परिवार का हित-साधन भी बेझिझक किया जा सकता है। वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी ने यह सब कुछ किया भी लेकिन संसदीय राजनीति में और खासकर एनडीए शासनकाल के दौरान सरकार के कामकाज में संघ की बेजा दखलंदाजी को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। दोनों नेताओं ने अपनी राजनीतिक योग्यता, भारतीय राजनीति में अपनी स्वीकार्यता और पार्टी (जनसंघ, जनता पार्टी, भाजपा) में अपनी अनिवार्यता के कारण ऐसी हैसियत बना ली कि वे संघ परिवार की पकड़ से बाहर होने लगे। दोनों नेताओं ने इस आजादी का खूब लुत्फ भी उठाया और इसको बनाए रखने की लड़ाई भी बड़ी चालाकी और मजबूती से लड़ी। डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और बलराज मधोक तो इस तरह की आजादी की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, जैसी आजादी इन दोनों नेताओं ने हासिल की और भोगी।
लेकिन 2004 के आम चुनाव में पार्टी की हार और एनडीए के सत्ता से बाहर होने के बाद अपनी अस्वस्थता के चलते वाजपेयी के  राजनीतिक परिदृश्य से बाहर हो जाने से संघ का काम आसान हो गया। अब उसे सिर्फ आडवाणी से ही निपटना था। 2005 के चर्चित जिन्न्ा प्रकरण ने उसे यह मौका भी उपलब्ध करा दिया। उसने आडवाणी को पार्टी और संघ की मूल विचारधारा से विचलित होने का मुजरिम करार देकर उन्हें पार्टी अध्यक्षता छोड़ने के लिए मजबूर किया और बजरिए राजनाथ सिंह पार्टी के सूत्र परोक्ष रूप से अपने हाथ में ले लिए। फिर 2009 में उसने आडवाणी से पार्टी का संसदीय नेतृत्व भी झटक लिया। आडवाणी को पूरी तरह किनारे लगा देने के बाद भाजपा में कोई नेता इस कद का नहीं बचा जो संघ को उसकी हदें बताने की हिमाकत कर सके। उधर, संघ के जो प्रचारक पार्टी में प्रादेशिक और केंद्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किए गए थे उन्हें भी राजनीति रास आने लगी और उनमें भी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं अंगड़ाई लेने लगी। इस सबका नतीजा यह हुआ कि पार्टी पर संघ का शिकंजा इस कदर कसता गया कि उसने राष्ट्रीय राजनीति की पेचिदगियों से निहायत अनजान, महाराष्ट्र के एक जिला स्तरीय नेता नितिन गडकरी को उसने पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवा दिया। फिर उन पर अनियमितताओं के आरोप लगने के बावजूद उसने दबाव बनाया कि उन्हें ही दोबारा अध्यक्ष बनाया जाए। लेकिन पार्टी के कुछ नेताओं ने जब इसका विरोध किया तो संघ ने मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, अस्र्ण जेटली जैसे नेताओं की दावेदारी को सिरे से खारिज कर अपनी ही पसंद के राजनाथ सिंह को एक बार फिर पार्टी पर थोप दिया।
राजनाथ सिंह ने भी संघ को निराश करने जैसा कोई काम नहीं किया। मोदी को अगली कतार में लाने की संघ की मंशा के खिलाफ पार्टी में काफी पहले से सुगबुगाहट थी। एनडीए के कुछ दलों ने भी विरोध किया। जनता दल (यू) ने तो इस आधार पर एनडीए यानी भाजपा से अपना 17 साल पुराना नाता ही तोड़ लिया, लेकिन फिर भी भाजपा के तमाम कद्दावर नेता संघ के सामने तन कर खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। संघ ने राजनाथ के माध्यम से सबसे पहले मोदी को पार्टी संसदीय बोर्ड का सदस्य बनवाया, फिर आडवाणी समेत कई नेताओं के एतराज को दरकिनार उन्हें पार्टी की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष मनोनीत करवाया और कई महीनों की अटकल भरी कवायद के बाद आखिरकार उन्हें अपनी चिर-परिचित मंशा के अनुरूप प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित करवा दिया। आडवाणी, सुषमा स्वराज जैसे दिग्गजों और पार्टी में मोदी की ही तरह कामयाब माने जाने वाले शिवराज सिंह चौहान जैसे मुख्यमंत्री का एतराज धरा रह गया।
हालांकि सुषमा स्वराज और शिवराज सिंह ने आखिरी वक्त में अपनी असहमति वापस ले ली और संघ की इच्छा के आगे समर्पण कर दिया तथा मोदी की उम्मीदवारी घोषित हो जाने के दो दिन बाद आडवाणी ने भी कोप भवन से बाहर आकर मजबूरी में ही सही नमो-नमो का जाप शुरू कर दिया। इस तरह एक बार फिर यही जाहिर हुआ है कि भाजपा न तो संघ की बैसाखी के बगैर चल सकती है और न ही अपने फैसले खुद कर सकती है। यह सवाल और गहरा हुआ है कि जो पार्टी छह सालों तक केंद्र की सत्ता में रह चुकी है और जिसकी कई राज्यों में सरकारें हैं, वह अपने फैसले आखिर खुद क्यों नहीं कर पाती है और जिन लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी को सत्ता का स्वाद चखाने में अहम भूमिका निभाई उनकी राय भी संघ के इशारे पर निष्ठुरतापूर्वक क्यों कुचल दी जाती है? इसकी वजहें भी साफ हैं।
दरअसल, भाजपा लगातार दो आम चुनाव हार चुकी है और अब एक ऐसे नेता पर दांव लगाना चाहती है जो भीड़ और वोट खींच सके। मोदी प्रधानमंत्री बन पाएंगे या नहीं, इस सवाल का जवाब तो समय के गर्भ में है। मगर पार्टी में यह आम धारणा बन चुकी है कि मोदी पार्टी को बहुमत तक पहुंचा पाएं या नहीं, उन्हें चुनावी चेहरे के तौर पर पेश करने से पार्टी की सीटों में उत्साहजनक इजाफा हो सकता है। इसी उम्मीद में भाजपा ने मोदी को लेकर तमाम पार्टियों के रुख और एनडीए के विस्तार की संभावनाओं की परवाह नहीं की। फिर, मोदी के पक्ष में निर्णायक भूमिका तो संघ के दखल की रही ही। अगर संघ का दबाव न होता तो चुनावी संभावनाओं की दलीलों के बावजूद कहना मुश्किल है कि मोदी के नाम पर भाजपा संसदीय बोर्ड की मुहर लग ही जाती।
यह किसी से छिपा नहीं है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करने के पीछे संघ की दिलचस्पी सिर्फ चुनावी नहीं है। पिछले दिनों अपने सहयोगी संगठनों और भाजपा के शीर्ष नेताओं के साथ हुई बैठक में राम मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता जैसे विवादास्पद मुद््दों को फिर से पार्टी का एजेंडा बनाने का दबाव डाल कर संघ ने अपने इरादे जता दिए हैं। उसे लगता होगा कि उसकी इस रणनीति में मोदी की छवि ही सबसे ज्यादा काम आएगी। जाहिर है, मोदी को आगे कर संघ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए भाजपा को फिर से सत्ता में लाने का सपना देख रहा है। ऐसे में हो सकता है कि विकास को मुख्य मुद््दा बनाने की भाजपा की घोषणा मध्यवर्ग को लुभाने की एक भंगिमा भर साबित हो और पार्टी उसी दिशा में मुड़ जाए जिधर संघ चाहता है। ऐसा हुआ तो देश की बात तो छोड़िए, वह भाजपा के भविष्य के लिए भी शुभ नहीं होगा।
             

मोदी के ढोल में पोल ही पोल

यह समय की बलिहारी ही है कि जिन नरेंद्र मोदी की कुर्सी को एक समय लालकृष्ण आडवाणी ने ढाल बनकर बचाया था उन्हीं नरेंद्र मोदी ने आज अपने सबसे बड़े सरपरस्त को 'बेचारा" बनाकर न सिर्फ पार्टी में बल्कि समूचे संघी कुनबे में लगभग अप्रासंगिक बना दिया है। यह भी समय का ही फेर है कि जिन नरेंद्र मोदी से छह साल पहले तक उनकी ही पार्टी के दिग्गज नजरें चुरा लिया करते थे, आज सब उन्हीं के नाम का कीर्तन करते हुए घूम रहे हैं। वर्ष 2007 में गुजरात में पार्टी लगातार दूसरी बार जीत दिलाने के बावजूद उन दिनों मोदी पर दंगों यानी मुसलमानों के जनसंहार का दाग इस कदर गहराया हुआ था कि सार्वजनिक बहस में भाजपा के ज्यादातर नेता बड़े शरमाते-सकुचाते हुए उनकी तरफदारी करते थे। पार्टी के संसदीय बोर्ड से उन्हें निकाल फेंका गया था। और तो और राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी अन्य तमाम संगठनों ने भी दंगों के दाग की वजह से तो नहीं लेकिन दूसरे अन्यान्य कारणों के चलते उनसे दूरी बना ली थी। समय का चक्का ऐसा घूमा कि उन्हीं नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के लिए संघ और उसके सहयोगी संगठनों ने पार्टी पर ऐसा दबाव बनाया कि पार्टी ने अपने 'लौह पुस्र्ष" आडवाणी और उनकी तमाम नसीहतों तक को धता बता दिया, जिनकी बहुचर्चित रथयात्रा के तूफान ने भाजपा को केंद्र समेत कई राज्यों में सत्ता का स्वाद चखाया था।
तीन महीने पहले गोवा में हुए पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान जिस तरह आडवाणी की नाराजगी भरी गैरमौजूदगी में पार्टी ने मोदी को अपना मुस्तकबिल मानते हुए उन्हें पार्टी की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष मनोनीत किया था, ठीक उसी तरह इस बार भी पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। आडवाणी ने इस बार भी अपना एतराज जताने में कोई झिझक नहीं दिखाई। शायद इसलिए कि उनके पास अब खोने को कुछ नहीं बचा है। वैसे भाजपा की अग्रिम पंक्ति के नेताओं में अरुण जेटली के अलावा शायद ही कोई होगा, जिसने संघ के दबाव में मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करने के राजनाथ सिंह के फैसले को राजी-खुशी स्वीकारा होगा। इन नेताओं में मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज से लेकर मध्य प्रदेश्ा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह तक सब शामिल हैं। दरअसल पार्टी के दोयम दर्जे के नेताओं और कार्यकर्ताओं में मोदी जितना उत्साह भरते हैं, पार्टी के बड़े नेताओं में उतना ही खौफ भी। गुजरात में पिछले 10-12 वर्ष का अनुभव उन्हें बताता है कि मोदी किसी को भी न तो अपने से बड़ा होने देते हैं और न ही अपने से आगे बढ़ने देते हैं।
बहरहाल, नागपुर की ओर से आडवाणी को उनकी हैसियत से रूबरू करा दिया गया है, इसीलिए तीन दिन की नाराजगी भरी खामोशी के बाद उन्होंने भी मन मारकर मोदी का नेतृत्व कुबूल कर लिया है। वैसे मोदी भी तो रथ से विरथ हुए आडवाणी के दिखाए रास्ते ही पर आगे बढ़ रहे हैं। अलबत्ता  जनसंघ-भाजपा में अपने पूर्ववर्ती शीर्ष नेताओं के मुकाबले मोदी के विचारों और अभिव्यक्ति में एक खास तरह की आक्रामकता और निरंकुशता के तत्व प्रभावी दिखते हैं। शायद इसलिए कि सन 2001 के बाद मोदी की राजनीतिक शख्सियत का निर्माण कॉरपोरेट क्रूरता और साम्प्रदायिक कट्टरता के नायाब रसायन से हुआ है। ऐसा रसायन, जिसे नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के दौर की संघ परिवारी-प्रयोगशाला में विकसित किया गया है। साफ है कि संघ और भाजपा ने किस उम्मीद में मोदी पर दांव लगाया है।
दरअसल, भाजपा में वाजपेयी-आडवाणी दौर युग की समाप्ति के बाद शुरू हुए मोदी युग की अहमियत महज उसके अल्पसंख्यक विरोध तक ही सीमित नहीं है, गुजरात में मोदी का शासन बड़े पूंजीपतियों और कारोबारियों को उपलब्ध कराई जा रही तमाम सेवाओं-सुविधाओं के लिए भी चर्चित है। गुजरात में तमाम बड़े औद्योगिक घरानों की सेवा में करोड़ों-अरबों स्र्पए की जमीन और अन्य संसाधन कौड़ियों के मोल समर्पित किए गए हैं। गत अप्रैल में आई नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में कॉरपोरेट घरानों पर की गई इसी बेजा मेहरबानी के लिए गुजरात सरकार की तीखी आलोचना की गई थी। सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि किस तरह कॉरपोरेट क्षेत्र के प्रति मोदी सरकार की दरियादिली के चलते राज्य के सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों को पांच सौ अस्सी करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा। उसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि किस तरह नियमों को ताक पर रखकर फोर्ड इंडिया और लार्सन एंड टूब्रो को जमीन दी गई और किस तरह अंबानी भाइयों, एस्सार स्टील और अडानी पॉवर लिमिटेड जैसी कंपनियों को दूसरे अनुचित फायदे पहुंचाए गए।   
बड़े औद्योगिक घरानों के प्रति खासे मेहरबान रहने वाले मोदी कहते भी हैं कि देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाना है तो सरकार को उद्योग-व्यापार के क्षेत्र में अपनी भूमिका खत्म करना होगी, क्योंकि यह काम उद्योग और व्यापार में लगे लोगों का है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार के कार्यकाल में देश को विनिवेश के नाम पर नए मंत्रालय की सौगात देने वाली भाजपा को मोदी के रूप में अर्थनीति के स्तर पर भी एक 'आदर्श" नेता मिला है। दक्षिणपंथी धारा में वे अपने ढंग के बिल्कुल नए नेता हैं। कुल मिलाकर वे साम्प्रदायिक कट्टरता और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के खतरनाक मिश्रण की नुमाइंदगी करते हैं। दिन-रात स्वदेशी और भारतीय संस्कृति का मंत्रोच्चार करने वाले संघ परिवार को निश्चित ही इससे कोई गुरेज नहीं है। हालांकि मोदी का कॉरपोरेट प्रेम एकतरफा नहीं है बल्कि यह परस्पर 'लेन-देन" पर आधारित है। एक ओर मोदी जहां दिग्गज उद्योगपतियों पर मेहरबानियां लुटाते हैं, वहीं बदले में वे उद्योगपति और उनके द्वारा पोषित मीडिया संस्थान भी उनके प्रधानमंत्री बनने की कामना करने में कोई संकोच नहीं करते हैं। कहा जा सकता है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवाने से पहले संघ के नागपुरी नेतृत्व ने मोदी पर उमड़ने वाले उद्योगपतियों के इस प्रेम पर भी निश्चित ही गौर फरमाया होगा।
मोदी को जिस तरह से विकास-पुस्र्ष बताया जा रहा है और भाजपा की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष मनोनीत होने के बाद पिछले तीन महीने से नरेंद्र मोदी जिस आक्रामकता से देशभर में गुजरात के अपने विकास मॉडल की मार्केटिंग कर रहे हैं, उसकी असलियत भी उसी तेजी से सामने आ रही है। मानव विकास सूचकांक के कई जरूरी मानदंडों पर मोदी का गुजरात देश के औसत सूचकांक से भी पीछे है। तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मिजोरम और मणिपुर जैसे राज्य उससे बहुत आगे हैं। उसकी कथित विकास दर की कहानी की हकीकत भी सामने आ चुकी है कि किस तरह सन 1980-99 के दौर में भी गुजरात अन्य कई राज्यों से आगे था। पर आज देश के कई राज्यों की विकास दर की उछाल उससे बहुत ज्यादा है।
इन ठोस तथ्यों के उजागर होने के बाद ही मोदी ने विकास की उथली नारेबाजी के साथ-साथ फिर से उग्र हिंदुत्व को सबसे भरोसेमंद अस्त्र के रूप में अपना लिया है। ऐसा लगता है कि अगले चुनाव में संघ और मोदी का ज्यादा जोर कट्टर हिंदुत्व और खास तरह की सोशल इंजीनियरिंग के मिले-जुले एजेंडे पर होगा। यह महज संयोग नहीं कि बिहार और उत्तर प्रदेश में मोदी को सामाजिक न्याय आंदोलन से जोड़ने की कोशिश की गई है। इस भौंडे अभियान में बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी और प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नंदकिशोर यादव को खासतौर पर लगाया गया है। बिहार के गांवों में, खासकर पिछड़ी जातियों के बीच सभाओं-रैलियों के जरिए प्रचारित किया जा रहा है कि मोदी पिछड़ी जाति के पहले ऐसे नेता होंगे, जो प्रधानमंत्री बनेंगे। जाहिर है, संघ परिवार के शीर्ष नेतृत्व की इजाजत के बगैर इस तरह का अभियान नहीं चलाया जा सकता। जहां मोदी को पिछड़ा (ओबीसी) बताने से वोट मिल सकते हैं, वहां भाजपा पिछड़े वर्ग की राजनीति करेगी, जहां अगड़ों को गोलबंद करना होगा, वहां वह आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बवाल कराने से भी गुरेज नहीं करेगी। इलाहाबाद और आसपास के इलाकों में पिछले दिनों हुआ हिंसक हंगामा इसका सबूत है।
एक विदेशी समाचार एजेंसी को दिए साक्षात्कार में पिछले दिनों नरेंद्र मोदी ने अपना राजनीतिक परिचय पूछे जाने पर बताया कि वे 'हिंदू-राष्ट्रवादी" हैं। उन्होंने अपना परिचय एक भारतीय बता कर नहीं दिया। भारतीय हिंदू या राष्ट्रवादी हिंदू भी नहीं कहा, हिंदू राष्ट्रवादी कहा। राष्ट्रवादी हिंदू और हिंदू राष्ट्रवादी का फर्क समझा जा सकता है। मोदी और उनकी पार्टी अक्सर अमेरिका और यूरोपीय देशों के विकास मॉडल की तारीफ करते नहीं थकते। उनसे पूछा जाना चाहिए कि दुनिया के किस पूंजीवादी मुल्क या किस समृद्ध-खुशहाल जनतांत्रिक देश का बड़ा नेता अपनी राष्ट्रीयता से पहले अपने धर्म का उल्लेख करता है? लेकिन मोदी एक खतरनाक विरासत के वाहक हैं। उन्होंने अपनी पार्टी के आदर्श राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्र्रपतियों की तरह अपनी राष्ट्रीयता को सर्वोपरि नहीं माना, सबसे पहले अपने धार्मिक विश्वास को चिह्नित करते हुए अपना परिचय दिया।
इसी साक्षात्कार के दौरान ही मोदी ने 2002 के गुजरात दंगों में मारे गए अल्पसंख्यक समुदाय के हजारों लोगों के बारे में पूछे एक सवाल के जवाब में कहा था कि वे गाड़ी में पीछे बैठें हों और चलती गाड़ी के नीचे कुत्ते का बच्चा आ जाए, तो भी उन्हें दुख होगा। कुछ मोदी-भक्तों को गुजरात के मुख्यमंत्री के इस वाक्य में स्वाभाविक मानवीय करुणा नजर आई। लेकिन कोई भी निष्पक्ष और विवेकवान व्यक्ति जब मोदी के जवाब को पत्रकार द्वारा पूछे सवाल के संदर्भ में देखेगा तो अल्पसंख्यकों के प्रति उनके खास रवैये का आसानी से अहसास हो जाएगा। अपने इसी खास रवैये या अल्पसंख्यक विरोधी मानसिकता के चलते ही गुजरात में हजारों मुसलमानों के कत्लेआम के लिए सूबे के मुखिया के तौर पर नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मोदी ने आज तक माफी मांगना तो दूर, खेद भी नहीं जताया है।
इस साक्षात्कार के बाद महज तीन दिन बाद ही नरेंद्र मोदी ने चौदह जुलाई को पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में छात्रों-युवाओं को बीच कांग्रेस और यूपीए सरकार को जमकर कोसा। उनके भाषण के एक खास वाक्य को ज्यादातर अखबारों और टीवी चैनलों ने अपनी सुर्खी के तौर पर पेश किया। वह वाक्य था- 'संकट में फंसने पर कांग्रेस पार्टी सेक्युलरिज्म का बुर्का ओढ़ लेती है।" मोदी चाहते तो अपनी बात को ज्यादा संयत-शालीन तरीक से भी कह सकते थे। पर कांग्रेस और सेक्युलरिज्म के साथ उन्होंने बुर्का शब्द जोड़ा ताकि दोनों को एक खास प्रतीकात्मक ढंग से जोड़ा जा सके। यही नहीं, उन्होंने कांग्रेस और बुर्के के साथ बंकर का भी जिक्र किया। यानी उन्होंने गलतफहमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। एक समुदाय विशेष के पहनावे को प्रतीक बना कर उन्होंने उसका रिश्ता एक सामरिक प्रतीक से जोड़ने की कोशिश की, आतंकवाद की तरफ इंगित करने के लिए। समाज के कुछ हिस्सों में उत्तेजना और विवाद पैदा करने के लिए यह उन्हें जरूरी लगा होगा।
ताज्जुब की बात है कि यह एक निर्वाचित मुख्यमंत्री की भाषा है, जिसे उसकी पार्टी ने देश के प्रधानमंत्री पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाया है। वैसे मोदी के लिए यह कोई नई बात नहीं है। वे जानबूझ कर राजनीतिक शिष्टाचार, प्रोटोकॉल और सभ्य सामाजिक मूल्यों की अवहेलना करते रहते हैं। वे जिस तरह पचास करोड़ की गलफ्रेंड, कुत्ते का बच्चा, हिंदू राष्ट्रवादी, सेक्युलरिज्म का बुर्का, या आबादी बढ़ाने वाली मशीन जैसे जुमलों का इस्तेमाल करते आ रहे हैं, वे उनके राजनीतिक व्यक्तित्व के खास पहलू की तरफ इंगित करते हैं। इस तरह के के ढेर सारे उनके जुमले यह साबित करने के लिए काफी हैं कि राजनीतिक संवाद में वे हमेशा असहज रहते हैं और आए दिन सामाजिक शिष्टाचार की मर्यादा लांघते रहते हैं।
संघ-भाजपा परिवार भले ही मोदी को अपना मुस्तकबिल मान चुका हो लेकिन हकीकत यही है कि मोदी अपनी ही दक्षिणपंथी राजनीतिक धारा के पुरखों दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी या लालकृष्ण आडवाणी की तरह व्यवस्थित सोच-विचार वाले नेता नहीं हैं। भाषा में सांप्रदायिक विद्वेष भरी चुटकलेबाजी करते हुए वे हमेशा सहज मानवीय मूल्यों के भी खिलाफ खड़े दिखते हैं।  उनकी वाणी और व्यवहार में गंभीरता और मानवीयता कहीं नजर नहीं आती। वे अपनी वाचालता, राजनीतिक उथलेपन और शब्दों की बाजीगरी से भीड़ की तालियां और वाहवाही तो बटोर सकते हैं लेकिन मौजूदा जटिल वैश्विक परिदृश्य में भारत जैसे महादेश की अगुआई कतई नहीं कर सकते।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त देश की जनता यूपीए या यूं कहें कि कांग्रेस की सरकार से बेहद निराश है। इसलिए प्रमुख विपक्षी पार्टी के नेता के तौर पर मोदी को पूरा हक है कि वे जनता से कांग्रेस को सबक सिखाने और उसे हराने की अपील करे, लेकिन वे तो देश को कांग्रेस-मुक्त भारत बनाने का आह्वान जनता से करते हैं। वामपंथी दलों को भी वे अपना राजनीतिक विरोधी नहीं बल्कि देशद्रोही बताते हैं। विविधता से भरे इस महादेश में मोदी का यह संकीर्ण राजनीतिक सोच क्या हमारे विकासशील जनतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा नहीं है?
लेकिन लगता है मोदी अपने इन्हीं जुमलों को अपना यूएसपी मानते हैं और उन्हें संस्कारित-दीक्षित करने वाले संघ और उसके परिवारजनों को भी शायद मोदी की यही शब्दावली खूब भाती है और उन्हें लगता है कि इसी के दम पर मोदी कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक भाजपा के पक्ष में लहर पैदा कर देंगे। लेकिन इस खुशफहमी के बीच एक पहलू पर संघ के रणनीतिकारों ने जरा भी गौर नहीं किया है, वह है गुजरात के बाहर मोदी के कथित करिश्मे के ढोल की पोल। कॉरपोरेट मीडिया द्वारा मोदी के नाम पर खूब जोर-जोर से पीटे जा रहे ढोल-नगाड़ों के बावजूद गुजरात के बाहर देश के विभिन्न् इलाकों में हुए चुनावों में मोदी अंतत: एक क्षेत्रीय नेता के तौर पर ही सामने आए हैं। महज चार महीने पहले हुए कर्नाटक के विधानसभा चुनाव को ही देखें। किसी न किसी विवादों में लिप्त कॉरपोरेट सम्राटों और भगवा वस्त्रधारियों बाबाओं-स्वामियों के एक हिस्से ने मोदी को जबसे प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे काबिल व्यक्ति  घोषित किया है, उसके बाद यह पहला मौका था उनकी इस कथित काबिलियत के इम्तिहान का। लेकिन कर्नाटक के नतीजों से साफ है कि वे इस इम्तिहान में बुरी तरह फेल हो गए।  
कर्नाटक चुनाव में मोदी की तीन रैलियां उन इलाकों में रखी गई थीं, जो भाजपा के गढ़ माने जाते थे। पहली रैली बेंगलुरु में थी, जहां कुल 28 सीटें हैं, जिनमें से भाजपा ने पिछले चुनाव में 17 जीती थीं। लेकिन इस बार वह दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर सकी। दो अन्य रैलियां तटीय कर्नाटक में हुईं, जिनमें से एक उड़ुपी और दूसरी बेलगाम में हुई। दक्षिण कन्न्ड़ जिले की कुल आठ में से एक भी सीट भाजपा के खाते में नहीं आई और उडुपी की पांच में से भाजपा को महज एक पर कामयाबी मिली। यह थी भाजपा के चुनावी शुभंकर और स्टार प्रचारक की उपलब्धि। लेकिन कॉरपोरेट जगत और मीडिया के एक हिस्से का उनके प्रति भक्ति-भाव देखिए कि कर्नाटक की शिकस्त को किसी ने मोदी की शिकस्त नहीं कहा। अगर नतीजे विपरीत आए होते यानी किसी करिश्मे से भाजपा जीत जाती तो यही मीडिया मोदी के प्रशस्ति-गान में जमीन-आसमान एक कर देता।
वैसे यह कोई पहला मौका नहीं था कि मोदी गुजरात के बाहर चूके हुए कारतूस साबित हुए। जब-जब मोदी गुजरात के बाहर गए या पार्टी ने उन्हें इसका जिम्मा सौंपा, वे अपनी तमाम लफ्फाजियों के बावजूद बेअसर साबित हुए। पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें महाराराष्ट्र, गोवा और दमन-दीव की जिम्मेदारी दी गई थी, लेकिन इन राज्यों में भाजपा को उम्मीद के मुताबिक कामयाबी नहीं मिली। और तो और गुजरात में भी 2009 के चुनाव में कांग्रेस की तुलना में भाजपा महज दो सीटों पर आगे थी। गुजरात की तुलना में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी को अच्छी कामयाबी मिली जहां मोदी प्रचार के लिए नहीं गए थे या उन्हें बुलाया नहीं गया था। पिछले साल हुए उत्तराखंड विधानसभा के चुनाव को भी देखें, जब मोदी ने पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की इच्छा को ठुकराते हुए चुनाव प्रचार में हिस्सा नहीं लिया था। मोदी की अनुपस्थिति के बावजूद भाजपा ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी और वह महज दो सीटों से कांग्रेस से पिछड़ गई। ऐसा नहीं कि पांच साल में पार्टी की हालत वहां बहुत बेहतर थी। इस दौरान उसे तीन बार मुख्यमंत्री बदलने पड़े थे। उत्तराखंड के बाद हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भी मोदी का करिश्मा नहीं चल पाया। वहां भी मोदी के प्रचार करने बावजूद भाजपा को सत्ता से बेदखल होना पड़ा।  
इस सिलसिले में बिहार का जिक्र करना भी लाजिमी होगा जहां पिछले कुछ वर्षों में पार्टी ने अपने जनाधार में लगातार बढ़ोतरी की है और सीटें भी बढ़ाई हैं। वहां मोदी कभी भी चुनाव प्रचार के लिए नहीं गए बल्कि जनता दल (यू) के एतराज के चलते उन्हें बुलाया ही नहीं गया। वहां पिछले चुनाव की तैयारी के दौरान खुद सुषमा स्वराज ने तो यह कह कर सभी को चौंका भी दिया था कि मोदी का मैजिक हर जगह नहीं चलता है। इसी के बरक्स 2011 में हुए असम के चुनाव में मोदी की मौजूदगी ने पार्टी को नाकामी के नए मुकाम पर पहुंचा दिया। वहां उसकी सीटें पहले से आधी हो गईं । यह शायद संघ के एजेंडे का ही प्रभाव था कि असम में ऐसे ही लोगों को चुनाव प्रभारी या स्टार प्रचारक के तौर पर भेजा गया जिनकी छवि उग्र हिंदुत्व की रही है। संघ-भाजपा की पूरी कोशिश थी कि असम में सांप्रदायिक सद्भाव को  पलीता लगा दिया जाए ताकि होने वाला ध्रुवीकरण उसके फायदे में रहे। चुनाव में स्टार प्रचारक के तौर पर हिंदुत्व के पोस्टर बॉय नरेंद्र मोदी की ड्यूटी लगाई गई थी, जिन्होंने कई स्थानों पर सभाओं को संबोधित किया था। मोदी की इस विफलता ने 2007 के उत्तर प्रदेश चुनावों की याद ताजा कर दी थी, जिसमें उन्हें स्टार प्रचारक के तौर पर उतारा गया था। याद रहे कि यह वही चुनाव था, जब वहां भाजपा चौथे नंबर पर पहुंच गई थी। जहां मोदी की सभाएं हुई थीं, उनमंे  ज्यादातर स्थानों पर भाजपा को शिकस्त मिली थी। गुजरात के बाहर बार-बार चूका हुआ कारतूस साबित हुए मोदी को 2014 के लिए अपना चुनावी शुभंकर और प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर संघ-भाजपा ने एक बड़ा जुआ खेला है। संघ प्रमुख मोहन भागवत भाजपा पर संघ का नियंत्रण मजबूत करके इस समय जरूर हौले-हौले मुस्करा रहे हैं लेकिन जुए में दांव हारने पर उन्हें निश्चित ही आडवाणी की नसीहतें याद आएंगी।
          

Thursday, September 12, 2013

तीसरा मोर्चा कैसे बनेगा, कितना चलेगा


देश की राजनीति में एक बार फिर तीसरे मोर्चे के गठन की चर्चा हवा में तैर रही है। पिछले ढाई दशक के दौरान तीसरा मोर्चा इतनी बार बना और टूटा है कि इसको लेकर होने वाली किसी भी चर्चा को गंभीरता से न लेने की अब जनता को आदत पड गई है। हां, देश में दो दलीय अथवा दो ध्रुवीय राजनीतिक व्यवस्था की पैरोकारकांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जरू र ऐसे मोर्चे के गठन की कोशिशों पर भçडक उठती हैं और ऐसी कोशिश करने वाले नेताओं अथवा दलों को खरी-खोटी सुनाती है, जिससे ऐसा लगता है कि वे शायद तीसरे मोर्चे को गंभीरता से लेती हैं। बहरहाल, पिछले लगभग डेçढ दशक के दौरान कांग्रेस और भाजपा से इतर तीसरे मोर्चे के गठन की कोशिशों और संभावनाओं को कई मौकों पर पलीता लगा चुके समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव इन दिनों बडी शिद्दत से तीसरे मोर्चे के गठन का राग अलाप रहे हैं। पिछले नौ वर्षों से केंद्ग में जिस कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार को उनकी पार्टी बाहर से समर्थन दे रही है, उसी कांग्रेस को अब वे धोखेबाज और यूपीए सरकार को नाकारा करार देकर अपना अलग रास्ता तलाश रहे हैं। इसी तरह यूपीए के लगभग हर फैसले में साथ रहने वाली शरद पवार की राष्टवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) को भी तीसरे मोर्चे की जरू रत महसूस हो रही है और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौडा का जनता दल (एस) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी मुलायम के सुर में सुर मिला रही है। यही नहीं, कुछ दिनों पहले तक राष्टीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का अहम हिस्सा रहते हुए देश में तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को खारिज करते रहे जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव भी अब आगामी आम चुनाव के बाद तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की बात कर रहे हैं। कुछ दिनों पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तेलुगू देशम पार्टी के सुप्रीमो चंद्गबाबू नायडू और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी तीसरा मोर्चा या फेडरल फ्रंट बनाने की वकालत कर चुके हैं। इन सबके के बीच दिलचस्प यह है कि अतीत में तीसरे मोर्चे के गठन में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती रही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) इस बार ऐसी किसी पहल को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं है। अलबत्ता उसके नेताओं प्रकाश करात और सीताराम येचुरी की तीसरे मोर्चे के पैरोकारों से मुलाकातें जरू र हो रही हैं। बहरहाल, सबसे बçडा सवाल यह है कि वास्तव में तीसरे मोर्चे के गठन की संभावना कितनी है और इस तरह की कोई पहल हुई तो क्या वह कारगर या टिकाऊ हो पाएगी?
मुलायम सिंह और शरद यादव समेत तीसरे मोर्चे के तमाम पैरोकारों का दावा है कि अगले आम चुनाव में न तो कांग्रेस और न ही भाजपा अपने दम पर सरकार बना पाएगी, जो भी सरकार बनेगी वह या तो तीसरे मोर्चे की होगी या उसके समर्थन से बनेगी। दरअसल, गठबंधन की राजनीति मौजूदा दौर की हकीकत है, जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता। देश में पिछले ढाई दशक से किसी भी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला है। सत्ता पर कांग्रेस का वष्रों पुराना एकाधिकार टूटने के बाद गठबंधन की व्यवस्था ने आकार लिया। आज कांग्रेस और भाजपा की अगुआई मे दो गठबंधन देश मे चल रहे हैं। केंद्ग की मौजूदा सरकार गठबंधन की ही देन है। यूपीए से पहले भी एनडीए के रू प में गठबंधन सरकार ही थी, जिसका नेतृत्व भाजपा ने किया था और उससे पहले तीसरे मोर्चे की भी दो सरकारें कांग्रेस के समर्थन से बनी उसके समर्थन वापस लेने से ही अल्पावधि में ही गिर गई। अगले आम चुनाव के बाद भी जो सरकार बनेगी, वह किसी न किसी गठबंधन की ही होगी, यह बात तमाम राजनीतिक पर्यवेक्षक भी मानते हैं। इसलिए मुलायम सिंह और शरद यादव जो बात कह रहे हैं उसमें नया कुछ खास नहीं है। उनके दावे में नया सिर्फ इतना ही है कि वे तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को लेकर जरू रत से ज्यादा आश्वस्त हैं।
देश की राजनीति में तीसरे मोर्चे का व्यावहारिक आशय उन दलों से रहा है जो कांग्रेस और भाजपा अलग एक मोर्चे में हों या ऐसा मोर्चा बनाने के इच्छुक हों। इस वक्त ऐसे दलों की पर्याप्त संख्या और शक्ति है जो तीसरे मोर्चे का आधार बन सकते हैं। दूसरी ओर कांग्रेस और भाजपा का विस्तार नहीं हो पा रहा है। पिछले दिनों हुए दो राष्टीय सर्वेक्षणों का निष्कर्ष भी कमोबेश यही है कि कांग्रेस और भाजपा का चुनावी भविष्य बहुत उज्जवल नहीं है। अपने शासन के दस साल पूरे करने जा रही कांग्रेस जहां जनता की अदालत में अपने भविष्य के प्रति अनिश्चित और मुंह लटकाए खडी है, वहीं इतने ही समय से प्रमुख विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व कर रही भाजपा को भी कांग्रेस की इस बदहाली के बावजूद अपने विकास की संभावनाएं नहीं दिख रही है। सर्वेक्षण के आंकडे कांग्रेस की गिरावट तो दिखाते हैं लेकिन उसके बरक्स भाजपा की निर्णायक बढत नहीं दिखाते। जाहिर है कि देश की दोनों प्रमुख पार्टियों का पिछले दस वर्षों का कार्यकाल संतोषजनक नहीं रहा है। सत्ता में हो या विपक्ष में, वे अपने राष्टीय होने का धर्म निभाने में नाकाम रही हैं। सर्वेक्षणों के इन्हीं नतीजों से उत्साहित होकर मुलायम सिंह और तमाम क्षत्रप तीसरे मोर्चे का राग अलाप रहे हैं।
इसमे कोई दो मत नही कि जनता में यूपीए सरकार के प्रति गहरा अंसतोष है, लेकिन तमाम मोर्चों पर सरकार की नाकामी के लिए सिर्फ कांग्रेस ही जिम्मेदार नहीं है। जनता सत्तारुढ गठबंधन के बाकी घटक दलो के मंत्रियो के कामकाज को भी देख-परख रही है। वह यह भी जान रही है कि किस मसले पर किस दल ने सरकार का समर्थन किया है। इसलिए यूपीए सरकार के विरोध में कोई मोर्चा बनता है, तो उसे साफ करना होगा कि वह किस मामले में मौजूदा सरकार से अलग है और उसके पास जनता को देने के लिए क्या खास है?
बेशक देश की राजनीति मे तीसरे मोर्चे की गुंजाइश बनी हुई है। पर इसकी कुछ शर्तें या तकाजे भी हैं। सवाल है कि इन शर्तों या तकाजों को कौन पूरा कर सकता है? कांग्रेस और भाजपा का आधार लगातार छीज रहा है और अलग-अलग कारणों से उनके गठबंधन रुपी कुनबे का आकार भी बढने के बजाय सिकुडता जा रहा है। बावजूद इसके कई ऐसी वजहें हैं जो इन दोनों दलों अथवा इनकी अगुआई वाले गठबंधनों से अलग किसी तीसरे गठबंधन की संभावनाओं को बाधित करती हैं। पहली और सबसे अहम वजह तो यह है कि तीसरे मोर्चे के संभावित दलों में एक भी ऐसा नहीं है जिसका एक से अधिक राज्यों में जनाधार हो और जो ऐसे मोर्चे की धुरी बन सके या बाकी दलों का नेतृत्व कर सके। पूर्व में यह भूमिका अविभाजित जनता दल निभाता रहा जब पांच-छह राज्यों में उसका जनाधार होता था लेकिन कई टुकडों में विभाजित होने के बाद वह यह हैसियत खो चुका है। इसके अलावा तीसरे मोर्चे के संभावित दलों में ऐसा कोई नेता भी नहीं है जिसका नेतृत्व सबको स्वीकार्य हो और जो सबको एकजुट रख सके। एक समय यह भूमिका विश्वनाथ प्रताप सिंह ने निभाई थी लेकिन वे भी अन्यान्य कारणों से ज्यादा दूर तक नहीं चल सके। अब मौजूदा नेताओं में उनका स्थान ले सके ऐसा कोई भी नहीं है।
तीसरे मोर्चे के गठन की राह में तीसरी बडी बाधा है वामपंथी दलों का अनमनापन। एक समय वामपंथी दल ऐसी कवायद को लेकर बेहद उत्साहित और सक्रिय रहते थे, लेकिन अब ऐसे किसी उपक्रम में उनकी वैसी दिलचस्पी नहीं है। इसकी अहम वजह उनकी अपनी ताकत का पहले से काफी घट जाना है। अतीत में वाम दलों ने ही भाजपा की हिदुत्ववादी राजनीति की काट के रू प मे एक धर्मनिरपेक्ष गठबंधन की अवधारणा को आगे बढाया था। आर्थिक और दूसरे पहलुओं को लेकर भी तीसरे मोर्चे का एक अलग कार्यक्रम रहा। लेकिन धीरे-धीरे यह महज एक रणनीतिक गठबंधन बनकर रह गया। इसके पिछले संस्करणों को देखें तो यह विशुद्ध स्वार्थों का गठजोड रहा है। क्षत्रपों की निजी महत्वाकांक्षाएं ही उनके दलों को एक साथ खडा करती रही हैं। शायद इसीलिए यह कभी टिकाऊ और विश्वसनीय नही बन सका। अब तो नीतियों और कार्यक्रमों के स्तर पर भी तीसरे मोर्चे के संभावित दलों में ऐसी कोई भिन्नता नहीं बची है जो उन्हें कांग्रेस या भाजपा से अलग दिखाती हो या जो उन्हें तीसरे मोर्चे के गठन के लिए प्रेरित कर सके। तमाम क्षेत्रीय दल भी एक तरफ वंशवाद और व्यक्तिवाद के शिकार है और दूसरी तरफ उन्हीं आर्थिक नीतियो को आगे बढ़ाने मे लगे है जिनकी पैरोकारी करते कांग्रेस और भाजपा थकती नहीं हैं।
सवाल उठता है कि फिर तीसरा मोर्चा कैसे बनेगा? ज्यादा से ज्यादा वह चार-पांच-सात क्षेत्रीय दलो का राष्टीय मंच हो सकता है। पर ऐसा कोई भी मंच या मोर्चा कांग्रेस और भाजपा को चुनौती दे पाएगा, ऐसी कोई सूरत फिलहाल नजर नही आती। तीसरे मोर्चे के अधिकतर संभावित खिलाडी कभी न कभी कांग्रेस या भाजपा के पाले में शामिल रहे हैं। उनमें से कोई भी किसी भी बात पर नाराजगी के चलते छिटक कर अलग हो सकता है या फिर से कांग्रेस या भाजपा का दामन थाम सकता है। खुद मुलायम सिंह  इस मामले में बहुत संजीदा नही रहे हैं। एक समय उन्होंने कुछ क्षेत्रीय दलांे का गठजोड बनाया था। लेकिन अमेरिका से परमाणु करार के मसले पर वामपंथी दलों के यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद वे यूपीए सरकार को बचाने चले गए और अपने बनाए गठजोड को खुद उन्होंने ही पलीता लगा दिया। इसके बाद राष्टपति चुनाव और खुदरा क्षेत्र मे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) जैसे कई और मसले गिनाए जा सकते हैं जब उन्होंने अचानक अपना रुख बदल लिया। ऐसी साख लेकर वे तीसरा मोर्चा बना पाएंगे, इसमें संदेह की भरपूर गुंजाइश है। अगर वे अपनी इस कोशिश में कामयाब हो भी गए तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वह मोर्चा टिकाऊ साबित हो पाएगा।

Monday, January 28, 2013

गण और तंत्र के बीच बेगानापन


अपने गणतंत्र के 64 वें वर्ष में प्रवेश करते वक्त हमारे लिए सबसे बड़ी चिंता की बात यही हो सकती है कि क्या वाकई तंत्र और गण के बीच उस तरह का सहज और संवेदनशील रिश्ता बन पाया हैै जैसा कि एक व्यक्ति का अपने परिवार से होता है? आखिर आजादी और फिर संविधान के पीछे मूल भावना तो यही थी। महात्मा गांधी ने इस संदर्भ में कहा था-'मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करुंगा जिसमें छोटे से छोटे व्यक्ति को भी यह अहसास हो कि यह देश उसका है, इसके निर्माण में उनका योगदान है और उसकी आवाज का यहां महत्व है। मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करुंगा जहां ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं होगा, जहां स्त्री-पुरुष के बीच समानता होगी और इसमें नशे जैसी बुराइयों के लिए कोई जगह नहीं होगी। ’ दरअसल, भारतीय गणतंत्र के मूल्यांकन की यही सबसे बड़ी कसौटी हो सकती है।
भारत के संविधान में राज्य के लिए जो नीति-निर्देशक तत्व हैं उनमे भारतीय राष्ट्र-राज्य का जो आंतरिक लक्ष्य निर्धारित किया गया है वह बिल्कुल गांधीजी और हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के अन्य नायकों के विचारों का दिग्दर्शन कराता है। लेकिन हमारे संविधान और उसके आधार पर कल्पित और मौजूदा साकार गणतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि जो कुछ नीति-निर्देशक तत्व में है, राज्य का आचरण कई मायनों में उसके विपरीत है। मसलन, प्राकृतिक संसाधनों का बंटवारा इस तरह करना था जिसमें स्थानीय लोगों का सामूहिक स्वामित्व बना रहे और किसी का एकाधिकार न हो, गांवों को धीेरे-धीरे स्वावलंबन की ओर अग्रसर करना था। हम गणतंत्र की 63वीं सालगिरह मनाते हुए देख सकते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों पर से स्थानीय निवासियों का स्वामित्व धीरे-धीरे खत्म हो गया और सत्ता में बैठे राजनेताओं और नौकरशाहों से साठगांठ कर औद्योगिक घराने उनका मनमाना उपयोग कर रहे हैं और यह सब राज्य की नीतियों के कारण हो रहा है।
हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि आजाद भारत का पहला बजट 193 करोड़ का था और हमारा 2०12-13 का बजट 14 लाख 9० हजार 925 करोड़ रुपए का है। यह एक देश के तौर पर हमारी असाधारण उपलब्धि है। इसी प्रकार और भी कई उपलब्धियों की गुलाबी और चमचमाती तस्वीरें हम दिखा सकते हैं। मसलन, 1947 में देश की औसत आयु 32 वर्ष थी, अब यह 68 वर्ष हो गई है। उस समय पैदा लेने वाले 1००० शिशुओं मंे से 137 तत्काल मर जाते थे। आज केवल 53 मरते हैं। उस समय साक्षरता दर करीब 18 फीसदी थी जो आज 68 फीसदी से ज्यादा है। ऐसे अनेक क्षेत्र हैं जिनके आधार पर दुनिया भारतीय गणतंत्र के अभी तक के सफर की सराहना करती है। एक समय दुनिया के जो देश भारत को दीन-हीन मानते थे वे ही इसे भविष्य की महाशक्ति मानकर इसके साथ संबंध बनाने में गर्व महसूस करते हैं। यह सब फौरी तौर पर तो हमारे गणतंत्र की सफलता का प्रमाण है। लेकिन जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि गणतांत्रिक भारत का हमारा लक्ष्य क्या था तो फिर सतह की इस चमचमाहट के पीछे गहरा स्याह अंधेरा नजर आता है। भयावह भ्रष्टाचार, भूख से मरते लोग, पानी को तरसते ख्ोत, काम की तलाश करते करोड़ों हाथ, बेकाबू कानून-व्यवस्था और बढ़ते अपराध की स्थिति हमारे गणतंत्र की सफलता को मुंह चिढ़ाती है।
फिर भी यह कहना उचित नहीं होगा कि भारत में गणतंत्र पूरी तरह असफल हो गया। असल समस्या कहीं और है। दरअसल, भारत का गणतंत्र शहरों तक सिमट कर रह गया है और शहरी लोगों के पास कोई राष्ट्रीय परिदृश्य नहीं है। इसीलिए उन्होंने गांवों से नाता तोड़ लिया है। सरकार को किसानों की चिंता हरित क्रांति तक ही थी, ताकि अन्न के मामले में देश आत्मनिर्भर हो जाए। उसके बाद गांवों और किसानों को उनकी किस्मत के हवाले कर दिया गया। यही वजह है कि पिछले एक दशक में दो लाख से भी ज्यादा किसानों के आत्महत्या कर लेने पर भी हमारा गणतंत्र विचलित नहीं हुआ। इस लिहाज से कह सकते हैं कि हमारा गणतंत्र शहरों में तो अपेक्षाकृत सफल हुआ है पर गांवों को विकास की धारा में शामिल करने में पूरी तरह विफल रहा। इस कमी को दूर करने के लिए पंचायती राज शुरू किया गया, मगर ग्रामीण इलाकों में निवेश नहीं बढ़ने से पंचायतें भी गांवों को कितना खुशहाल बना सकती हैं? इन्हीं सब कारणों के चलते हमारे संविधान की मंशा के अनुरूप गांव स्वावलंबन की ओर अग्रसर होने की बजाय अति परावलंबी और दुर्दशा के शिकार होते गए हंै। गांव के लोगों को सामान्य जीवनयापन के लिए भी शहरों का रुख करना पड़ रहा है। गांवों का क्षेत्रफल कितनी तेजी से सिकुड़ रहा है इसका प्रमाण 2०11 की जनगणना है। इसमें पहली बार गांवों की तुलना में शहरों की आबादी बढèने की गति अब तक की जनगणनाओं में सबसे ज्यादा है। शहरों की आबादी 2००1 के 27.81 फीसदी से बढèकर 31.16 फीसदी हो गई जबकि गांवों की आबादी 72.19 फीसदी से घटकर 68.84 फीसदी हो गई । इस प्रकार गांवों की कब्रगाह पर विस्तार ले रहे शहरीकरण की प्रवृत्ति हमारे संंविधान की मूल भावना के विपरीत है। हमारा संविधान कहीं भी देहाती आबादी को खत्म करने की बात नहीं करता, पर हमारी आर्थिक नीतियां वही भूमिका निभा रही हैं और इसी से गण और तंत्र के बीच की खाई लगातार गहरी होती जा रही है।
भारतीय गणतंत्र की मुकम्मिल कामयाबी की एक मात्र शर्त यही है कि जी-जान से अखिल भारतीयता की कद्र करने वाले तबके की अस्मिता और संवेदनाओं की कद्र की जाए। आखिर जो तबका हर तरह से वंचित होने के बाद भी श्ोषनाग की तरह भारत को टिकाए हुए है, उसकी स्वैच्छिक भागीदारी के बगैर क्या कोई गणतंत्र मजबूत और सफल हो सकता है? जो समाज स्थायी तौर पर विभाजित, निराश और नाराज हो, वह कैसे एक सफल राष्ट्र बन सकता है?