लालकृष्ण आडवाणी की लगभग दो दशक पहले की सोमनाथ से अयोध्या तक की राम रथयात्रा और अभी-अभी सम्पन्न्न हुई जयप्रकाश नारायण के जन्मस्थान सिताबदियारा से दिल्ली तक की जनचेतना रथयात्रा में क्या फर्क और नाफर्क हो सकता है? वैसे इन दोनों यात्राओं के बीच आडवाणी ने इसी तरह की पांच और यात्राएं भी की हैं। उनकी इन सभी यात्राओं का मकसद मोटे तौर राजनीतिक ही रहा है लेकिन सोमनाथ और सिताबदियारा से शुरू की गई यात्राएं कई मायनों में बाकी यात्राओं से भिन्न और ज्यादा महत्वपूर्ण रहीं। राम रथयात्रा के जरिए जहां आडवाणी ने अपने उग्र हिंदुत्ववादी तेवरों से भारतीय राजनीति का ही नहीं बल्कि भारतीय समाज का भी साम्प्रदायिक आधार पर धु्रवीकरण कर दिया था। इसी ध्रुवीकरण के दम पर वे राजनीति के हाशिए पर पड़ी भाजपा को कांग्रेस की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी और सत्ता की दावेदार पार्टी बनाने में कामयाब रहे थे। वहीं सिताबदियारा से शुरू की गई यात्रा उन्होंने भाजपा की राजनीति में अपने को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए की और इसमें भी वे काफी हद तक कामयाब रहे।
समकालीन भारतीय राजनीति के जाने-माने रथयात्री और भाजपा के 'लौह पुरूष' ने अपनी इस चालीस दिन की रथयात्रा के दौरान भौगोलिक रूप से देश का काफी बड़ा दायरा तय किया है। इस दौरान वे देश के लगभग दो दर्जन राज्यों में गए। अपनी इस सातवीं देशव्यापी रथयात्रा के दौरान जनसमर्थन जुटाने में किस हद तक कामयाब रहे, इसको लेकर अलग-अलग आकलन और दावे हो सकते हैं लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा में अपनी उस सर्वोच्चता को साबित करने में वे काफी हद तक कामयाब रहे हैं, जिस पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परोक्ष रूप से सवाल खड़े करते हुए उन्हें हाशिए पर डालने में जुटा हुआ था और नरेंद्र मोदी जैसे ताकतवर क्षत्रप उन्हें प्रकारांतर से चुनौती दे रहे थे। आडवाणी ने अपनी इस यात्रा के जरिए जहां भाजपा में अपनी सर्वोच्चता साबित की, वहीं दिल्ली में उनकी यात्रा के समापन के मौके पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक दलों के नेताओं की मौजूदगी से भाजपा के दूसरे तमाम नेताओं और संघ नेतृत्व को भी साफ-साफ संकेत मिल गया कि अटलबिहारी वाजपेयी के राजनीतिक परिदृश्य से अलग हो जाने के बाद आडवाणी ही ऐसे नेता हैं जिनकी राजग में व्यापक स्वीकार्यता है। इस मामले में आडवाणी को भरोसे की असली खुराक तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की ओर से मिली। उन्होंने आडवाणी की दिल्ली रैली में अपने प्रतिनिधि को भेजकर निकट भविष्य में राजग में शामिल होने की संभावनाएं जगाईं।
संसद के मानसून सत्र के आखिरी दिन जब आडवाणी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देशव्यापी रथयात्रा निकालने का ऐलान किया था तो भाजपा के बाहर ही नहीं भाजपा के अंदर भी दबे स्वरों में यह अटकलें लगाई जाने लगी थीं कि रथयात्रा के जरिए उनकी असल मंशा खुद को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करने की है। कम से कम संघ नेतृत्व ने तो उनकी घोषणा को इसी रूप में ही लिया। संघ नेतृत्व आडवाणी के रथयात्रा के फैसले से सहमत नहीं था। उसने इस मामले में आडवाणी को अपनी ओर से 'अनापत्ति प्रमाण पत्र' तब ही दिया जब आडवाणी ने खुद नागपुर में उसके समक्ष हाजिर होकर अपनी इस यात्रा को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से जोड़कर न देखने की गुहार लगाई और आश्वस्त किया कि उनका मकसद रथयात्रा के जरिए सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को घेरना है।
लोकसभा चुनाव में अभी ढाई साल बाकी हैं लेकिन पिछले कुछ समय से भाजपा में शीर्ष स्तर पर पार्टी की ओर से आगामी चुनाव में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी को लेकर नाहक ही एक संघर्ष छिड़ा हुआ था, जो कुछ हद तक अभी भी जारी है। आडवाणी की बढ़ती उम्र को उनकी अयोग्यता मानते हुए यह भी मान लिया गया था कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार अपेक्षाकृत कोई युवा ही संभालेगा। इस विवाद को तब और हवा मिली जब तमाम संभावित उम्मीदवारों के बीच शीतयुध्द की खबरें आने लगीं। लेकिन आडवाणी की यात्रा ने तात्कालिक तौर पर इस विवाद को काफी हद तक ठंडा कर दिया। हालांकि आडवाणी ने यह कभी नहीं कहा, यहां तक कि नागपुर में संघ नेतृत्व के दरबार में हाजिरी लगाने के बाद भी नहीं कहा कि वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल नहीं हैं। अलबत्ता पार्टी की ओर से जरूर कहा जाने लगा कि समय आने पर इस बारे में तय किया जाएगा। यह भी कहा जाने लगा कि पार्टी में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए कई काबिल नेता हैं। लेकिन जैसे-जैसे आडवाणी का जनचेतना रथ आगे बढ़ता गया, पार्टी का सुर बदलता गया। पार्टी के सभी दिग्गज नेताओं द्वारा आडवाणी के नाम का इस तरह कीर्तन किया जाने लगा मानो इस सवाल का जवाब दिया जा रहा हो कि पार्टी की ओर प्रधानमंत्री पर का उम्मीदवार कौन है। आडवाणी की तारीफ में कशीदे पढ़े जाने का यह सिलसिला रामलीला मैदान पर उनकी यात्रा के समापन तक जारी रहा।
भाजपा ने 2009 का लोकसभा चुनाव आडवाणी को ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर लड़ा था लेकिन पार्टी को पहले से भी कम सीटें मिली थीं और उसे विपक्ष में बैठना पड़ा। इसके बाद संघ नेतृत्व ने साफ तौर पर आडवाणी को कहा कि वे दूसरी पंक्ति के नेताओं को नेतृत्व संभालने दें और खुद वरिष्ठ राजनेता के तौर पर पार्टी का सिर्फ मार्गदर्शन करें। संघ के हस्तक्षेप से ही नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बनाए गए तथा सुषमा स्वराज को लोकसभा तथा अस्र्ण जेटली को राज्यसभा में पार्टी का नेतृत्व सौंपा गया। लेकिन संघ चाहते हुए भी पूरी तरह आडवाणी को किनारे नहीं कर पाया। उनके लिए संसदीय दल के अध्यक्ष का नया पद सृजित किया गया। अब भी संघ की तमाम असहमतियों के बावजूद आडवाणी ने अपनी जनचेतना यात्रा के जरिए एक बार फिर जता दिया है कि अभी वे चूके नहीं हैं और नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं। अपनी जनचेतना यात्रा को भी धुरंधर रथयात्री ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यों ही केंद्रित नहीं किया। घोटालों के घटाटोप से घिरी यूपीए सरकार को अण्णा हजारे के आंदोलन के असर से लड़खड़ाते देख आडवाणी को लगा कि यही माकूल मौका है जनाक्रोश को भुनाने और अपने को राजनीति के केंद्र में फिर से स्थापित करने का। पूरी रथयात्रा के दौरान आडवाणी ने अपनी कट्टरपंथी और उग्र हिंदूवादी नेता की छवि से छुटकारा पाने की गरज से उन तमाम मुद्दों से भी परहेज किया जिन्हें वे वर्षों तक हर मौके पर शिद्दत से उठाते रहे हैं। यात्रा के दौरान उनके भाषणों से राम मंदिर, धारा 370 और कथित मुस्लिम तुष्टिकरण जैसे तमाम मुद्दे सिरे से नदारद रहे। उन्होंने अपना पूरा फोकस भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे पर ही रखा।
लेकिन इस सबके बावजूद चालीस दिन तक देशभर में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मनमोहन सिंह की सरकार को कोसते रहे आडवाणी इस मसले पर अपनी पार्टी का कोई ठोस कार्यक्रम देश के सामने पेश नहीं कर पाए। बेशक व्यक्तिगत रूप से आडवाणी की छवि बेदाग कही जा सकती है लेकिन एक पार्टी और गठबंधन के नेता के तौर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी प्रतिबध्दता पर कई सवाल खड़े होते हैं। यह सवाल कोई और नहीं, उनकी ही पार्टी के शासन वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों की कारगुजारियां कर रही हैं। कर्नाटक और उत्तराखंड में उनके मुख्यमंत्रियों को अपनी भ्रष्ट कारगुजारियों के कारण ही सत्ता से बाहर होना पड़ा है। इसके अलावा अन्य भाजपा शासित राज्यों से आ रही नित-नए घोटालों की खबरों पर भी आडवाणी को क्या अपना रवैया स्पष्ट नहीं करना चाहिए और यह भी बताना चाहिए कि विदेशों में जमा जिस काले धन की मांग वे जोर-शोर से कर रहे हैं उस काले धन को वापस लाने के लिए राजग सरकार ने क्या कदम उठाए थे, जिसमें वे स्वयं उपप्रधानमंत्री थे?
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