Monday, December 12, 2011

सौ बरस की नई दिल्ली


वैसे तो दिल्ली का इतिहास बहुत पुराना है और दुनिया के सबसे प्राचीन शहरों में इसका शुमार है। यह शहर महाभारत काल में इंद्रप्रस्थ के नाम से पांडवों की राजधानी रहा और बाद में यह तुगलक, लोदी, राजपूत और मुगल शासकों की सत्ता का केंद्र भी रहा। लेकिन आधुनिक दिल्ली यानी भारत की लोकतांत्रिक राजसत्ता का केंद्र, जिसे नई दिल्ली कहा जाता है, का इतिहास महज सौ साल पुराना ही है। आज यह शहर अपनी 100 वीं सालगिरह मना रहा है। ठीक सौ साल पहले ब्रिटिश हुक्मरान भारत की राजधानी को कलकत्ता (अब कोलकाता) से स्थानांतरित कर दिल्ली लाए थे और 12 दिसंबर, 1911 को उत्तरी दिल्ली में यमुना नदी के किनारे किंग्जवे कैंप स्थित कोरोनेशन पार्क में भारत के ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम और महारानी मैरी के राज्याभिषेक का जलसा हुआ था, जिसे दिल्ली दरबार कहा गया था। उस जलसे में देश के सभी राजा-महाराजाओं ने अपने पूरे जलवे के साथ शिरकत कर ब्रिटिश सम्प्रभुता के प्रति सम्मान प्रकट किया था। इसके साथ ही हुई थी नई दिल्ली के बसने की शुरूआत और इसके सूत्रधार बने थे अंग्रेज वास्तुविद्‌ एडविन ल्युटियंस। उनकी देखरेख में ही रायसीना पहाड़ी पर बना वायसराय हाउस (अब राष्ट्रपति भवन) और उसके आसपास के धूल भरे विशाल मैदान में इंडिया गेट, संसद भवन, केंद्रीय सचिवालय तथा अन्य प्रशासनिक इमारतें और सड़कें बनीं, जिनके नाम सम्राट अशोक, बाबर, हुमायूं, शेरशाह सूरी, पृथ्वीराज चौहान, मानसिंह, अकबर, जहांगीर, बहादुरशाह जफर, तुगलक, इब्राहिम लोधी, शाहजहां, औरंगजेब, लार्ड कर्जन, डलहौजी आदि शासकों और अंग्रेज प्रशासकों के नाम पर रखे गए। इन सड़कों के किनारे बनीं ब्रिटिश हुकूमत के कारिंदों-मुसाहिबों की कोठियां। इस तरह दिल्ली बन गई शासक वर्ग और सरकारी कारकुनों की नगरी।
 नई दिल्ली की स्थापना के भले ही सौ बरस हुए हों, पर अपने लंबे इतिहास में इस शहर ने पांडवों से लेकर आज तक कई साम्राज्यों और सरकारों का उत्थान-पतन, कई हमलावर शासकों के हमले, विध्वंस और कत्लेआम के मंजर देखे हैं। अपने लंबे इतिहास में दिल्ली कई बार उजड़ी और बसी है। कहा जा सकता है दिल्ली का इतिहास सौभाग्य और दुर्भाग्य का मिलाजुला इतिहास है। इस शहर की जिजीविषा इतनी प्रबल है और इसमें आकर्षण इतना गजब का है कि आज भी यह न सिर्फ देश की राजधानी बनी हुआ है, बल्कि दुनिया के सृजनशील, सुरूचिपूर्ण और ऐतिहासिक धरोहरों से समृध्द चुनिंदा महानगरों में से एक है। यह एक ऐसा अनोखा महानगर है जो अपने स्वभाव में तमाम आधुनिकताओं को समेटे होने के बावजूद अपने शरीर से पुरातन बना हुआ है। हालांकि वक्त के थपेड़ों ने इस शहर के कई ऐतिहासिक स्मारकों और स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूनों की चमक को धुंधला कर दिया है, लेकिन उनकी मौजूदगी ही इस शहर के शानदार अतीत की कहानी सुना देती है। इन ऐतिहासिक इमारतों और स्मारकों की मौजूदगी से यह शहर आज भी दुनियाभर के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है और बार-बार बुलाता है। दुनिया में कुछ चुनिंदा शहर ही हैं जो इस मामले में दिल्ली की बराबरी करते होंगे। इस सिलसिले में मिस्र की राजधानी काहिरा, यूनान की राजधानी एथेंस, इटली की राजधानी रोम और तुर्की के शहर इस्तांबुल का जिक्र दिल्ली के साथ किया जा सकता है। यह देश का इकलौता महानगर है जिसमें इसके प्राचीन रूतबे और वैभव के अवशेषों की झलक देखी जा सकती है, अन्यथा बाकी महानगरों-मुंबई, कोलकाता और चेन्नई का स्वरूप तो आपादमस्तक औपनिवेशिक है। और, ऐसा होने की वजह भी है, क्योंकि इन महानगरों का उदय और निर्माण ही औपनिवेशिक शासनकाल में हुआ था। दिल्ली इन सबसे बिल्कुल अलहदा है, अनूठी है, क्योंकि यह भारतीय सभ्यता, संस्कृति और इतिहास का महत्वपूर्ण केंद्र रही है।
 दिल्ली की मूल संस्कृति और इसके मिजाज पर देश के बंटवारे की दर्दनाक त्रासदी ने आश्चर्यजनक प्रभाव डाला। जहां सिंध और बलूचिस्तान से विस्थापित होकर लाखों की तादाद में आए लोग मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र, खासकर मुंबई में जाकर बस गए, वहीं पश्चिमी पंजाब और सीमा प्रांत से बड़ी संख्या में विस्थापित होकर आए हिंदू-सिख दिल्ली और पूर्वी पंजाब में बस गए। दिल्ली में आए इन विस्थापितों से दिल्ली का चरित्र ही बदल गया। न सिर्फ सामुदायिक चरित्र बदला, बल्कि साहित्य, भाषा, संस्कृति, खान-पान और पहनावे में भी काफी बदलाव और विविधता आ गई।
आज दिल्ली की संस्कृति बहुरंगी हो गई है। यहां अलग-अलग राज्यों से आने वाले अलग-अलग भाषा-भाषी लोगों की जीवनशैली भी दिल्ली की जीवनशैली के साथ एकाकार हो चुकी है। यहां कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक के हर प्रदेश, हर अंचल के लोगों को लोकजीवन के किसी न किसी क्षेत्र में सक्रिय देखा जा सकता है। लेकिन इस सबके चलते एक खास बात यह हुई कि दिल्ली की अपनी मूल संस्कृति लगभग खो सी गई। देश के बंटवारे और नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के दौर ने इस संस्कृति का काफी नुकसान किया है।
1911 में दिल्ली की आबादी 2.38 लाख थी। 1947 में बंटवारे की वजह से विस्थापितों के बड़ी तादाद शहर में दाखिल होने से इसकी आबादी बढ़कर 6.96 लाख हो गई। बाद के वर्षों में हर दिशा में दिल्ली के शहरीकरण का विस्तार हुआ, जिससे इसकी आबादी में लगातार इजाफा होता गया। 1991 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के साथ ही पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल से बड़ी संख्या में रोजगार की तलाश में लोगों का दिल्ली आना शुरू हुआ, जिससे इस शहर की सीमा से लगे इलाकों में अनियोजित आवासीय योजनाओं को लागू करने से शहर का बेतरतीब शहरीकरण हुआ। ऐसा सिर्फ निम्न और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों की वजह से ही नहीं हुआ बल्कि रईस और कुलीन वर्ग की भोगवादी लालसाओं का भी इसमें बहुत ज्यादा योगदान रहा। आज दिल्ली की आबादी लगभग 1.5 करोड़ है। बढ़ती आबादी और नव धनाड्‌य वर्ग की भोगवादी इच्छाओं के चलते ही दिल्ली में वाहनों की रेलमपेल भी बेतहाशा बढ़ी। आज दिल्ली की सड़कों पर लगभग 65 लाख वाहन दौड़ते हैं जिनमें कारों की संख्या लगभग 21 लाख है। लोगों और वाहनों की इस भीड़ ने दिल्ली की हवा-पानी को भी बुरी तरह प्रदूषित कर दिया। 
बहरहाल, देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली राजनीतिक उठापटक और भागमभाग का अहम केंद्र है। इसी राजनीतिक भागमभाग के माहौल और लोगों में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की होड़ ने इस शहर की मस्ती और मासूमियत को लील लिया है और कानून-व्यवस्था की स्थिति को चिंताजनक बना दिया है। कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की अध्ययन रिपोर्टें दिल्ली को देश के सबसे असुरक्षित शहरों में शुमार बताती हैं। दिल्ली की शान-ओ-शौकत और इसके पुरसुकून माहौल के मुरीद मशहूर शायर शेख मुहम्मद इब्राहीम 'जौक' ने कभी इठलाते हुए फरमाया था 'कौन जाए जौक दिल्ली की गलियां छोड़कर।' जौक साहब अगर आज होते तो कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो चुकी दिल्ली का सूरत-ए-हाल देखकर निश्चित ही झुंझलाते हुए यहां के लोगों से कह उठते 'जा सकते हो तो चले जाओ दिल्ली की गलियां छोड़कर।'

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