Monday, August 22, 2011

क्रांति नायक कृष्ण

कृष्ण यानी हजारों वर्षों से व्यक्त-अव्यक्त  रूप में भारतीय जनमानस में गहरे तक रचा-बसा एक कालजयी चरित्र, एक लीला-पुरुष, एक कथा-नायक, एक महान तत्वशास्त्री, एक युगंधर..युगपुरुष।  हर समाज, देश और युग में कोई न कोई अवतार या महानायक हुआ है जिसने अन्याय और अत्याचार के तत्कालीन यथार्थ से जूझते हुए स्थापित व्यवस्था को चुनौती दी है और सामाजिक न्याय की स्थापना के प्रयास करते हुए न सिर्फ अपने समकालीन समाज को बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी गहरे तक प्रभावित किया है। भारत के संदर्भ में राम और कृष्ण ऐसे ही दो नाम हैं। विगत लगभग दो हजार वर्षों में इन दो अवतार पुरुषों ने भारतीय साहित्य और समाज को जितना प्रभावित किया है उतना शायद ही किसी अन्य कथा-नायक या अवतार पुरुष ने किया हो। राम और कृष्ण दोनों को ही विष्णु का अवतार माना गया है। राम अंशावतार माने गए हैं, जबकि कृष्ण को पूर्णावतार माना गया है। कृष्ण के चरित्र में सभी कलाओं का पूर्ण विकास हुआ है और राम के मुकाबले उनका व्यक्तित्व भी काफी जटिल है। धर्म की रक्षा और विजय के लिए बड़े से बड़ा 'अधर्म' करने को तत्पर रहने के प्रतीक हैं कृष्ण। 
जितनी लीला, उतने नामः 
कृष्ण की जितनी लीलाएं हैं, उतने ही हैं उनके नाम भी। हर लीला के अनुरूप अलग-अलग नाम हैं। वे यशोदानंदन भी हैं और देवकीनंदन भी। बालकृष्ण भी हैं और श्यामसुंदर भी। केशव भी हैं और माधव भी। मुरलीधर भी हैं और गिरधारी भी। मधुसूदन भी हैं और कंसनिषूदन भी। पार्थसारथी भी हैं और रणछोड़ भी। जितना व्यापक और विविधतापूर्ण है कृष्ण का जीवन, उतनी की व्यापक और वैविध्यपूर्ण हैं कृष्ण की लीलाएं। किंतु कोई भी एक व्यक्ति न तो जीवन की संपूर्ण व्यापकता का अनुभव कर पाता है और न ही उसकी समग्र विविधता को आत्मसात कर पाता है। सभी अंश में जीते हैं और संपूर्ण के भ्रम में रहते हैं। तीव्रतम संवेदनाओं से युक्त कवि और भक्त भी इसके अपवाद नहीं रहे। सभी ने अपनी-अपनी मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं के अनुरूप कृष्ण-लीला चुनी, जिससे कृष्ण कथा की निधि समृद्ध होती चली गई।  
पूर्व-पश्चिम की एकता के नायकः 
  किसी को कृष्ण की बाल लीला ने रिझाया तो किसी को उनके प्रेमी रूप ने लुभाया। भागवत में कृष्ण भक्ति की महिमा गाई गई है तो आधुनिक भारतीय चिंतकों और विचारकों ने उन्हें राष्ट्र निर्माता युगपुरुष के रूप में प्रस्तुत किया। देश की स्वतंत्रता के बाद की स्वार्थसनी और समाजद्रोही राजनीति से चिंतित और उद्वेलित डॉ. राममनोहर लोहिया ने कृष्ण को भारत की पूर्व-पश्चिम (मणिपुर से द्वारका तक) की एकता का नायक माना और उनकी तुलना उदात्त और उन्मुक्त हृदय से की। जैसे हृदय अपने लिए नहीं, बल्कि शरीर के दूसरे अंगों के लिए धड़कता रहता है, उसी तरह कृष्ण का हर एक काम अपने लिए न होकर दूसरों के लिए था।
इंद्र की व्यवस्था को चुनौतीः  
कृष्ण की एक अन्य छवि उभरती है सामाजिक  क्रांति के योद्धा-नायक के रूप में। इस छवि के लिए  आवश्यक सामग्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं में भी है और भागवत में भी यह उपलब्ध है। आखिर क्रांति का नायक कौन होता है? वही, जिसके पास आदर्श समाज की कोई सुविचारित कल्पना हो और जो सड़ी-गली व्यवस्था को चुनौती देकर उसके स्थान पर नई वैकल्पिक व्यवस्था की नींव रखने की क्षमता रखता हो। तो क्या कृष्ण के पास ऐसी कोई कल्पना थी और ऐसा कोई प्रयास उन्होंने किया था या कि वे भी पुरातन व्यवस्था के ही पोषक संरक्षक या यथास्थितिवादी थे? इस सवाल का थोड़ा बहुत जवाब गोवर्धनलीला में मिलता है। इंद्र प्रतीक थे पुरातन धार्मिक व्यवस्था के। वह व्यवस्था बंधी थी यज्ञ-याग और कर्मकांड से। ब्रजभूमि में भी इंद्र की पूजा का रिवाज था। माता यशोदा और बाबा नंद भी परंपरा के अनुसार इंद्र की पूजा कर उन्हें भोग लगाना चाहते थे, लेकिन बाल कृष्ण ने उनके ऐसा करने पर ऐतराज किया। वे इंद्र को लगाया जाने वाला भोग खुद खा गए और कहा, देखो मां, इंद्र सिर्फ वास लेता है और मैं तो खाता हूं। यशोदा और नंद बाबा ने कृष्ण को समझाया कि मेघराज इंद्र अपनी पूजा से प्रसन्न होते हैं...उनकी पूजा करो और उन्हें भोग लगाओ तो वे जल बरसाते हैं और ऐसा न करने पर वे नाराज हो जाते हैं। कृष्ण के गले पर यह बात नहीं उतरी। उन्होंने आसमानी देवताओं के भरोसे चलने वाली इस व्यवस्था को चुनौती दी। गोपों की आजीविका को इंद्र की राजी-नाराजी पर निर्भर रहने देने के बजाय उसे उनके अपने ही कर्म के अधीन बताते हुए कृष्ण ने कहा था कि इस सबसे इंद्र का क्या लेना-देना। उन्होंने इंद्र को चढ़ाई जाने वाली पूजा यह कहते हुए गोवर्धन को चढ़ाई थी, हम गोपालक हैं, वनों में घूमते हुए गायों के जरिए ही अपनी जीविका चलाते हैं। गो, पर्वत और वन यही हमारे देव हैं। 
  तब रक्षक-प्रहरी बनकर उभरे थे कृष्णः 
आसमानी  देवताओं या आधुनिक संदर्भों में यूं कहें कि शासक वर्ग और स्थापित सामाजिक मान्यताओं  से जो टकराए और चुनौती दे उसे बड़ा पराक्रम दिखाने तथा तकलीफें झेलने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है। अपनी पूजा बंद होने से नाराज इंद्र के कोप  के चलते प्रलयंकारी मेघ गरज-गरजकर बरसे थे ब्रज पर। आकाश से वज्र की तरह ब्रजभूमि पर लपकी थीं बिजलियां। चप्पा-चप्पा पानी ने लील लिया था और जल प्रलय से त्रस्त हो त्राहिमाम कर उठे थे समूची ब्रज भूमि के गोप। अपने अनुयायियों पर आई इस विपदा की कठिन घड़ी में समर्थ और कुशल क्रांतिकारी की तरह रक्षक-प्रहरी बनकर आगे आए थे कृष्ण। उन्होंने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से गोपों और गायों की रक्षा की थी।  
गोवर्धन धारण का अर्थः  
कृष्ण के गोवर्धन धारण करने का एक ही अर्थ है कि जो व्यक्ति स्थापित  व्यवस्था को चुनौती दे उसे  मुक्त क्षेत्र का रक्षक-प्रहरी भी बनना पड़ता है। ब्रजभूमि के गोपों में इतना साहस कहां था कि वे इंद्र को चुनौती देते। किसी भी समाज में स्थापित मान्यताओं और व्यवस्थाओं के विरुद्ध विद्रोह एकाएक ही नहीं फूट पड़ता। उसके पीछे सामाजिक चेतना और उससे प्रेरित संकल्प के अनेक छोटे-बड़े कृत्य होते हैं। कृष्ण की बाल लीला ऐसे ही कृत्यों से परिपूर्ण थी। नायक के अद्‌भुत साहस और पराक्रम को अलौकिक मानने वाली दृष्टि ने कृष्ण के इस रक्षक रूप को परम पुरुष की योगमाया या अवतार पुरुष के चमत्कार से जोड़ दिया। लेकिन ज्यादा संभावना यही है कि कंस के संगी-साथियों और सेवकों के अत्याचारों से पीड़ित ब्रजवासियों में कृष्ण ने अत्याचारों का प्रतिकार करने की सामर्थ्य जगाई हो। यह सामर्थ्य उपदेशों प्रवचनों से जाग्रत नहीं होती, बल्कि उसके लिए नायक को खुद पराक्रम करते हुए दिखना पड़ता है।  गोप-ग्वालों  में कहां से आई चेतनाः  कृष्ण लीला में जिन्हें पूतना, तृणावर्त, बकासुर, अधासुर, धनुकासुर कहकर आसुरी परंपरा से संबद्ध कर दिया गया है, वे सभी किसी न किसी रूप में क्रूरकर्मा कंस की अत्याचारी व्यवस्था से जुड़े हुए थे। वे सभी उस व्यवस्था की रक्षा के लिए और उसके दम पर ही लोगों पर अत्याचार करते थे। ऐसे सभी आततायियों से कृष्ण लड़े और जीते। इससे ही गोप-ग्वालों में इतनी जाग्रति आई कि वे देवराज इंद्र को भी चुनौती दे पाए और कंस की अत्याचारी व्यवस्था के विरुद्ध भी संगठित हो सके। क्रांति शास्त्र का सार्वकालिक और सर्वमान्य सिद्धांत है कि साहस का एक काम हजारो हजार उपदेशों से ज्यादा प्रभावी होता है।
कंस वध की युगांतरकारी घटनाः  
कृष्ण के नेतृत्व में ब्रजवासियों  के पराक्रम की पराकाष्ठा  हुई कंस के वध में। कितनी  युगांतरकारी घटना रही होगी वह जब कृष्ण ने अत्याचारी  कंस के केश पकड़कर उसे  सिंहासन से नीचे गिराकर उसका वध किया होगा और उसके जुल्मी शासन का अंत हुआ होगा। यशोदानंदन के साथ आए गोप-ग्वाल विजयोल्लास में झूम उठे थे और उन्होंने घोषणा की थी कि अब राज्य शक्ति हमारे हाथों में होगी। लेकिन कंस वध के पीछे कृष्ण का मकसद उसकी सत्ता पर काबिज होना कतई नहीं था। कृष्ण सत्ताकामी नहीं, क्रांतिकारी थे और यह उनके क्रांतिकारी व्यक्तित्व का ही प्रमाण है कि कंस वध के बाद उन्होंने खुद राजसत्ता नहीं संभाली। महान उद्देश्यों के लिए संघर्षरत व्यक्तियों के लिए सत्ता कभी साध्य नहीं होती और न ही वे सत्ता को किसी बड़े सामाजिक परिवर्तन का औजार मानते हैं। यही वजह है कि कृष्ण ने राज सिंहासन पर खुद बैठने के बजाय उस पर किसी और को बैठाया और खुद शेष कामों को पूरा करने में जुट गए। इस परिप्रेक्ष्य में हम महात्मा गांधी को कृष्ण-परंपरा का वाहक कह सकते हैं। ऐसे ही लोग एक के बाद दूसरे क्षेत्र में सामाजिक जड़ता और अन्याय की शक्तियों से जूझते हुए और जोखिमों से खेलते हुए परिवर्तन को दिशा दृष्टि देते रहे हैं। कृष्ण को भी यही दिशा-दृष्टि मथुरा से द्वारका ले गई।  
द्वारका को बनाया शक्ति केंद्रः 
सेनारहित  और संपत्तिविहीन कृष्ण-बलराम  और उनका यदु कुल ब्रज से बहुत दूर द्वारका को अपने कौशल और पराक्रम के बल पर एक शक्ति केंद्र बनाने में सफल रहा। यह केंद्र इतना शक्तिशाली था कि उसने अपने सहयोगी पांडवों के साथ मिलकर न सिर्फ जरासंध और शिशुपाल जैसे दंभी और अन्यायी शासकों का अंत किया, बल्कि महाभारत के माध्यम से अन्याय के विरुद्ध न्याय का निर्णायक युद्ध भी लड़ा। यशोदानंदन से कंसनिषूदन तक की कृष्ण कथा तो प्रस्तावना मात्र थी। इसकी अंतिम परिणति थी अन्यायी कौरव साम्राज्य की जगह न्याय आधारित धर्म राज्य की स्थापना, भारत की पूर्व-पश्चिम एकता और योगेश्वर के रूप में कृष्ण को देवत्व की प्राप्ति में। अपनी इस लंबी संघर्ष यात्रा में कृष्ण ने मानव जीवन को उसकी संपूर्णता में समेटा है।  

Monday, August 15, 2011

जब पुलिस ही हत्यारी हो जाए!

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी कसौटी यह होती है कि उसमें मानवाधिकारों की कितनी हिफाजत और इज्जत होती है। इस मामले में हमारे देश का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है। हमारे यहां पुलिस का रवैया लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के तकाजों से कतई मेल नहीं खाता है। आम आदमी पुलिस की मौजूदगी में अपने को सुरक्षित और निश्चिन्त  महसूस करने के बजाय उसे देखकर ही खौफ खाता है। फर्जी मामलों में किसी बेगुनाह को फंसाने और पूछताछ के नाम पर अमानवीय यातना देने की घटनाएं आमतौर पर पुलिस की कार्यप्रणाली का हिस्सा बन गई हैं। फर्जी मुठभेड़ में होने वाली हत्याएं और हिरासत में होने वाली मौतें इस सिलसिले की सबसे कू्रर कड़ियां हैं। यह बेहद अफसोस की बात है कि हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल अकसर इस क्रूरता पर चुप्पी साधे रहते हैं। अलबत्ता हमारी न्यायपालिका खासकर सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर फर्जी मुठभेड़ और हिरासत में मौत के मामलों को गंभीरता से लेते हुए सख्त स्र्ख अपनाया है। नागरिक अधिकारों को हमारे संविधान की बुनियाद माना गया है और सुप्रीम कोर्ट को संविधान के संरक्षक की भूमिका हासिल है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट यह स्र्ख उसकी भूमिका और उससे की जाने वाली अपेक्षा के अनुरूप ही है।  
 हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान पुलिस के हाथों फर्जी मुठभेड़ में हुई एक मौत के मामले की सुनवाई करते हुए कहा है कि ऐसे मामलों में दोषी पुलिसकर्मियों को फांसी की सजा मिलनी चाहिए। गौरतलब है कि अक्टूबर, 2006 में राजस्थान पुलिस ने दारा सिंह नामक एक कथित बदमाश को मार डाला था और यह प्रचारित किया था कि वह मुठभेड़ में मारा गया है। इस मामले में पुलिस के कई बड़े अधिकारी भी शामिल थे। राज्य के एक पूर्व मंत्री और भाजपा नेता समेत कुल सोलह आरोपियों में से कई अभी तक फरार हैं। हालांकि ऐसे मामलों में दोषियों को फांसी देने की बात सुप्रीम कोर्ट ने कोई पहली बार नहीं की है। तीन महीने पहले भी इसी तरह के एक मामले में आरोपी पुलिसकर्मियों की जमानत याचिका खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यही सुझाव दिया था। 

वैसे किसी भी मामले में दोषी व्यक्ति को फांसी की सजा दी जानी चाहिए या नहीं, यह लंबे समय से बहस का मुद्दा बना हुआ है। दुनिया में इस समय लगभग एक तिहाई देश ऐसे हैं जिन्होंने अपने यहां मौत की सजा को पूरी तरह खत्म कर दिया है। इसके अलावा लगभग इतने ही देश ऐसे हैं जिन्होंने इस सजा को औपचारिक रूप से तो खत्म नहीं किया है, लेकिन वे इस सजा को अमल में भी नहीं लाते हैं। हमारे देश में भी इस सजा को खत्म करने की मांग जब-तब उठती रहती है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी अदालत का यह सुझाव किसी को भी थोड़ा अटपटा लग सकता है कि फर्जी मुठभेड़ के तहत होने वाली हत्याओं के दोषी पुलिसकर्मियों को फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए। मानवाधिकारवादियों के अलावा कई न्यायविदों का भी मानना रहा है कि मौत की सजा का प्रावधान खत्म होना चाहिए। खुद सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदला है। लेकिन फर्जी मुठभेड़ में किसी के मारे जाने को उसने दुर्लभ में भी दुर्लभतम किस्म का अपराध करार देते हुए इसके दोषियों को मौत की सजा देने की सिफारिश की है। यह सिफारिश करते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और न्यायमूर्ति सीके प्रसाद ने सवाल किया कि पुलिस को लोगों को अपराध से बचाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है लेकिन अगर वही अपराध करने लगे या किसी की जान लेने लगे तो कानून के शासन का क्या होगा?   
जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल उठाया, इत्तफाक से उसी दिन जम्मू में मानसिक रूप से बीमार एक व्यक्ति को आतंकवादी बताकर मार दिए जाने की खबर आई। समझा जाता है कि पुरस्कार और पदोन्नति पाने के चक्कर में एक आतंकवादी को मुठभेड़ में मार गिराने का यह झूठा किस्सा गढ़ा गया। लेकिन पुरस्कार और पदोन्नति के लालच के अलावा सबूत मिटाने के मकसद से भी कई बार फर्जी मुठभेड़ का नाटक रचा जाता है। कुछ वर्ष पहले सोहराबुद्दीन, उसकी बीवी कौसर बी और तुलसीराम प्रजापति की पुलिस द्वारा हत्याएं इसीलिए की गई थीं। इस मामले में गुजरात अदालत के सख्त स्र्ख के चलते गुजरात के कई आला पुलिस अधिकारियों को जेल जाना पड़ा। इसी तरह का मामला कुछ महीनों पहले माओवादी नेता चेरूकुरि राजकुमार उर्फ आजाद और पत्रकार हेमचंद्र पांडेय की आंध्र प्रदेश पुलिस के हाथों हुई मौत का है। इस मामले की जांच कराने में आंध्र प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट की हिदायत के बाद भी आनाकानी करती रही। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में इन दोनों के फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने की पुष्टि हुई थी। इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हमारा गणतंत्र इस तरह अपने बच्चों को नहीं मार सकता।  
दरअसल, समाज में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए नागरिक जीवन में पुलिस की मौजूदगी तो एक अनिवार्य तथ्य के रूप में स्वीकृत है ही, साथ ही उसकी कू्ररता और भ्रष्टाचार भी। पुलिस की इस कू्ररता और भ्रष्टाचार के आगे आम आदमी असहाय है। औपनिवेशिक काल से लेकर आज तक पुलिस की क्रूरता की हजारों कहानियां फैली हुई हैं। देश-विदेश के नागरिक और मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टों तथा समाचार पत्र-पत्रिकाओं में भी पुलिस की क्रूरता के ब्यौरे मिलते हैं। आजादी के बाद भारतीय गणतंत्र में पुलिस की बदली हुई भूमिका अपेक्षित थी लेकिन औपनिवेशिक भूत ने उसका पीछा नहीं छोड़ा तो नहीं छोड़ा। वर्षों पूर्व इलाहाबाद हाई कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश आनंद नारायण मुल्ला की पुलिस के बारे में की गई टिप्पणी आज भी मौजूं है। उन्होंने पुलिस हिरासत में हुई मौत के एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था-'भारतीय पुलिस अपराधियों का सर्वाधिक संगठित गिरोह है।' आज भी फर्जी मुठभेड़ और पुलिस हिरासत में हत्या की घटनाएं देश के विभिन्न इलाकों में होती रहती हैं। ऐसी घटनाएं सीमावर्ती राज्यों में तो बहुतायत में होती हैं, जहां अलगाववादी और उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं। मानवाधिकार आयोग को इस किस्म की शिकायतें देश के विभिन्न राज्यों से लगातार मिलती रही हैं। आयोग में दर्ज शिकायतों के मुताबिक बीते तीन साल में अकेले उत्तर प्रदेश में ही फर्जी मुठभेड़ में एक सौ बीस लोग मारे जा चुके हैं। इन्हीं सारे तथ्यों के प्रकाश में फर्जी मुठभेड़ के दोषी पुलिसकर्मियों को फांसी की सजा देने का सुप्रीम कोर्ट का ताजा सुझाव देश में पुलिस सुधार की आवश्यकता और फर्जी मुठभेड़ की बढ़ती घटनाओं की ओर समूचे व्यवस्था तंत्र का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश है।  
 यह सच है कि अहिंसा का दर्शन भारत-भूमि से ही प्रस्फुटित हुआ है और मौत की सजा को दुनियाभर में खत्म करवाने में जुटे संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल तथा दुनिया के अन्य मानवाधिकार संगठनों के प्रयास भी अहिंसा के उदात्त मूल्य पर आधारित एक आदर्श की स्थापना के ही प्रयास हैं, जो यह मानता है कि मनुष्य जीवन अनमोल है, इसलिए किसी अपराधी की जान लेने के बजाय उसे आत्म-सुधार का मौका देना चाहिए। लेकिन आदर्श और यथार्थ में बड़ा फर्क होता है। हमारे देश का जो मौजूदा यथार्थ है वह आदर्श से कतई से मेल नहीं खाता है। हालांकि मौत की सजा भी एक तरह की बर्बरता ही है। वॉल्टर बेंजामिन ने कहा भी है कि सभ्यता का इतिहास बर्बरता का भी इतिहास है। लेकिन सभ्यता का इतिहास अहिंसक तरीकों से ऐसी  स्थितियां विकसित करने का भी तो है, जिनमें हिंसक विवाद और अपराध जन्म ही न ले सकें। भारत सहित जिन देशों को उनके यहां के हालात मौत की सजा खत्म करने की इजाजत नहीं देते, उन्हें तो अपने यहां अहिंसक तरीकों से ऐसा वातावरण बनाने की ठोस कोशिशें करनी ही चाहिए।

Friday, August 12, 2011

फिल्मों से खौफ खाते हमारे राजनेता



दुनिया में शायद भारत ही एकमात्र ऐसा देश होगा जहां कुछ राजनेता कभी किसी फिल्म से डर जाते हैं तो कभी किसी नाटक के मंचन से। कभी कोई किताब या किसी चित्रकार का बनाया कोई चित्र उन्हें लोगों की भावनाएं आहत करने वाला लगता है तो कभी कोई गीत या कविता उन्हें आपत्तिजनक लगने लगती है। इन्हें कभी लड़कियों की किसी खास तरह की पोशाक से तो कभी वेलेंटाइन डे जैसे पश्चिमी त्योहार से अपनी संस्कृति खतरे में पड़ती नजर आती है। कभी वे यह तय करने लगते कि अमुक देश की क्रिकेट टीम को भारत नहीं आने देना चाहिए या भारतीय टीम को अमुक देश का दौरा नहीं करना चाहिए तो कभी उन्हें पड़ोसी देशों के कलाकारों का भारत आना खटकता है।
फिलहाल इन दिनों हमारे कुछ राजनेता प्रकाश झा जैसे जिम्मेदार और प्रतिबध्द फिल्म निर्देशक की फिल्म 'आरक्षण' से डरे हुए नजर आ रहे हैं। सबसे ज्यादा भयभीत उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार है। उसने तय किया है कि इस फिल्म को रिलीज होने से पहले उसकी बनाई एक कमेटी के सदस्य देखेंगे और वे ही फैसला करेंगे कि फिल्म को प्रदेश के सिनेमाघरों में दिखाए जाने की अनुमति दी जाए या नहीं। कुछ इसी तरह का रवैया आंध्र प्रदेश और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों तथा पंजाब की अकाली-भाजपा सरकार ने भी अपनाया हुआ है। उधर, महाराष्ट्र के लोक निर्माण मंत्री छगन भुजबल और दलित नेता रामदास अठावले ने भी इसके प्रदर्शन का विरोध करने की चेतावनी दे रखी है। अठावले की रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया और भुजबल की संस्था महात्मा फूले समता परिषद के कार्यकर्ताओं ने तो मुबंई में प्रकाश झा के घर और दफ्तर पर विरोध प्रदर्शन भी किया। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में बैठे कुछ राजनेताओं ने भी इस फिल्म को देखे बगैर ही फतवा दे दिया है कि यह दलित विरोधी फिल्म है। इसी तरह की दलीलों के साथ इस फिल्म का प्रदर्शन रूकवाने के लिए बंबई हाई कोर्ट में एक याचिका भी दायर की गई थी, जो खारिज कर दी गई है। इसके बावजूद कुछ राज्य सरकारें  और कुछ राजनेता अपने रूख पर अड़े हुए हैं और 'सुपर सेंसर' की भूमिका निभा रहे हैं।
 जैसा विरोध आरक्षण का हो रहा है, इसी तरह का विरोध कुछ दिनों पहले रिलीज हुई फिल्म 'खाप' को लेकर भी हो रहा है, जो 'ऑनर किलिंग' जैसे ज्वलंत मुद्दे पर बनी है। इस विरोध को हवा देने का काम खाप पंचायतों की राजनीति से जुड़े लोग कर रहे हैं। एक जमाने में महान फिल्मकार गुरूदत्त की फिल्म 'प्यासा' और गुलजार की बनाई फिल्म 'आंधी' भी राजनेताओं के कोप का शिकार हुई थीं। देश की आजादी के कुछ ही समय बाद बनी 'प्यासा' फिल्म के एक गीत को लेकर उस समय के कांग्रेसी नेताओं को आपत्ति थी। उनका मानना था कि इस गीत में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को निशाना बनाते हुए उन कटाक्ष किया गया है। सत्ताधारी नेताओं के कोप के चलते आकाशवाणी पर उस गीत का प्रसारण प्रतिबंधित कर दिया गया था। इसी तरह 'आंधी' फिल्म पर महज इसलिए पाबंदी लगा दी गई थी कि उसमें सुचित्रा सेन के चरित्र में सत्ताधारी कांग्रेस के कुछ नेताओं को उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की झलक दिखाई दे रही थी। हाल के वर्षों में बनी रामगोपाल वर्मा की फिल्म 'शूल' का बिहार के सिनेमाघरों में प्रदर्शन तभी हो सका था, जब पहले उसे उस समय के सत्तास्र्ढ़ राष्ट्रीय जनता दल के एक नेता ने देखकर उसके प्रदर्शन की इजाजत दी थी। इसी तरह महेश मांजरेकर की फिल्म 'पद्‌मश्री लालू प्रसाद यादव' का प्रदर्शन बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव की हरी झंडी मिलने के बाद ही संभव हो पाया था।
 फिल्मों में क्या आपत्तिजनक है और क्या नहीं, यह तय करने के लिए हमारे यहां सेंसर बोर्ड नाम की एक संस्था है, जो अपना काम आमतौर पर पूरी संजीदगी के साथ करती आ रही है। ऐसे में राजनेताओं को यह अधिकार देश के किस कानून ने दे दिया है कि वे यह तय करने लग जाएं कि कौन सी फिल्म प्रदर्शन के लायक है और कौनसी नहीं, या फिल्म में क्या दिखाया जाए और क्या नहीं? अगर राजनेताओं के इस तरह के अराजक सेंसर से ही यह सब कुछ तय होने लगेगा तो फिर सेंसर बोर्ड को बनाए रखने का क्या औचित्य रह जाएगा? हम किसी कम्युनिस्ट अथवा सैन्य तानाशाही के तहत नहीं रह रहे हैं। न ही हमारे यहां किसी तरह कि धार्मिक या तालिबानी हुकूमत है। हम एक लोकतांत्रिक देश हैं। हमारे संविधान ने देश के हर नागरिक को अभिव्यक्ति दी आजादी दी है। इस अभिव्यक्ति की आजादी में देखने, सुनने, और पढ़ने की आजादी भी निहित है। आम लोगों को क्या देखना है और क्या पढ़ना है, यह कुछ व्यक्ति या व्यक्तियों का कोई समूह कैसे तय कर सकता है?
सवाल पूछा जा सकता है कि जो राजनेता इन फिल्मों को विरोध कर रहे हैं उनकी अपनी योग्यता क्या है? क्या उन्होंने फिल्मों के बारे में कोई अकादमिक प्रशिक्षण ले रखा है या वे देश की जाति व्यवस्था और जातिवाद की समस्या को गहराई से जानते और समझते हैं? एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि जिस फिल्म का विरोध किया जा रहा है, उसका नाम भले ही आरक्षण हो, लेकिन उसमें शिक्षा के व्यवसायीकरण की समस्या को ही उभारा गया है। शिक्षा के व्यवसायीकरण या बाजारीकरण का सबसे ज्यादा खामियाजा देश के गरीब वर्ग को और प्रकारांतर से व्यापक स्तर पर दलित और पिछड़े तबकों को ही उठाना पड़ रहा है, क्योंकि गरीबी और विपन्नता के महासागर में सबसे ज्यादा तादात इन्हीं तबके के लोगों की है। दरअसल, इन मूढ़ और कूढ़मगज नेताओं को न तो हमारी शिक्षा-व्यवस्था की समझ है और  न ही ये हमारी जाति-व्यवस्था और जातिवाद की बुराइयों की गहरी समझ रखते हैं। ये  आरक्षण की अवधारणा को भी ठीक से नहीं समझते हैं और न ही आरक्षण व्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को। ज्यादातर राजनेताओं का आरक्षण प्रेम और आरक्षण विरोध स्वार्थसनी राजनीति से प्रेरित है।
इस किस्म के राजनेता जबर्दस्त रूप से असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हैं। ये राजनेता जनता के बीच अपनी किसी वैचारिक प्रतिबध्दता के दम पर नहीं, बल्कि लुभावने नारों, वादों और अपनी लफ्फाजी के सहारे टिके हुए हैं। दरअसल, अपने घर की गंदगी को कालीन या चटाई के नीचे छिपा देने की प्रवृत्ति भारतीय समाज में काफी हद तक व्याप्त है। देश की राजनीति भी इस प्रवृत्ति से अछूती नहीं है। इस गंदगी को साफ करने को लेकर हमारे मन में झिझक है या उसके उजागर होने में एक तरह का अपराध बोध होता है। यही झिझक और अपराध बोध कभी किसी फिल्म, कभी किसी नाटक, कभी किसी किताब और कभी किसी कलाकृति के विरोध के रूप में उजागर होता रहता है।

Friday, August 5, 2011

एक क्षत्रप के आगे बेबस भाजपा नेतृत्व


जो बी. एस. येदियुरप्पा कल तक भारतीय जनता पार्टी के गले का हार होते थे वे आज उसके पैर में चुभा कांटा हो गए हैं। कर्नाटक के इस पूर्व मुख्यमंत्री ने वह कर दिखाया है जो भारतीय जनता पार्टी में पहले कभी नहीं हुआ था और न ही पार्टी में कभी किसी ऐसा होने के बारे में सोचा होगा। येदियुरप्पा ने अपना उत्तराधिकारी चुनने के लिए हुए गुप्त मतदान में पार्टी नेतृत्व की मर्जी के खिलाफ अपने भरोसेमंद डी. वी. सदानंद गौड़ा को अपना उत्तराधिकारी चुनवा दिया। इस तरह येदियुरप्पा ने अपने को पार्टी का सबसे बड़ा क्षत्रप साबित कर दिखाया। इससे पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ही पार्टी का सबसे ताकतवर सूबेदार माना जाता था, लेकिन येदियुरप्पा मोदी से भी आगे निकल गए। उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व के एक वर्ग की जगदीश शेट्टार को मुख्यमंत्री बनाने की मुहिम की हवा निकालकर रख दी। पार्टी नेतृत्व की ओर से राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की दशा-दिशा तय करने बेंगलुरू पहुंचे पार्टी तीन दिग्गज अस्र्ण जेटली, राजनाथ सिंह और वेंकैया नायडू अपनी मौजूदगी के अलावा और कुछ दर्ज नहीं करवा सके। येदियुरप्पा के लिए यह वाकई एक बड़ी बात है कि अपना इस्तीफा देने के बाद भी वे शक्ति परीक्षण में जीत गए। इस शक्ति परीक्षण से जाहिर हो गया कि कर्नाटक में पार्टी अंतर्कलह और गुटबाजी के कितने गंभीर संकट से गुजर रही है। एक अलग तरह की और अनुशासित पार्टी का दावा करने वाली भाजपा के लिए यह घटना किसी आघात से कम नहीं है।
 उत्तर भारत में जनसंघ के रूप में जन्मी, पली-बढ़ी और जवान हुई भाजपा के दक्षिण अभियान में कर्नाटक एक अहम मुकाम रहा है, जो अब उसके पांवों की बेड़ी भी बनता जा रहा है। केरल में बरसों की मशक्कत के बावजूद आज तक भाजपा की दाल नहीं गल पाई है। इस राज्य में उसने हिंदुओं को रिझाने के जो-जो टोटके हो सकते हैं, वह सब आजमा लिए हैं, लेकिन सारे के सारे बेमतलब साबित हुए हैं। वहां पार्टी लोकसभा की सीट जीतना तो दूर राज्य विधानसभा में भी अपना खाता नहीं खोल पाई है। तमिलनाडु में भी कभी इस या कभी उस द्रविड़ पार्टी का पल्लू पकड़कर ही उसने प्रतीकात्मक यानी नाममात्र की सफलता दो-एक बार हासिल की है। आंध्र प्रदेश में जरूर किसी समय भाजपा ने अपने लिए थोड़ी-बहुत राजनीतिक जमीन तैयार की थी, लेकिन मौजूदा हालात में उस जमीन का कहीं अता-पता नहीं है।
कर्नाटक में यद्यपि भाजपा ने अपने पैर जमाने की शुरूआत अस्सी के दशक में ही कर दी थी, लेकिन राज्य की राजनीति में निर्णायक ताकत वह 2006 में ही हासिल कर पाई, जब राज्य विधानसभा की 224 में से लगभग 65 सीटें जीत कर वह सदन में दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। एक समझौता फार्मूले के तहत उसके समर्थन से जनता दल सेक्यूलर के नेता एच. डी. कुमारस्वामी ने साझा सरकार बनाई। समझौता फार्मूले के मुताबिक साझा सरकार का नेतृत्व बीस-बीस माह बारी-बारी से जनता दल एस और भाजपा के पास रहना था। पहले बीस माह का कार्यकाल पूरा होते-होते ही दोनों दलों के रिश्तों में खटास आ गई थी। हालांकि एक माह की जद्दोजहद के बाद येदियुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी, लेकिन विधानसभा में बहुमत साबित न कर पाने के कारण महज एक सप्ताह में ही वह सरकार अकाल मृत्यु की शिकार हो गई और राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया। वर्ष 2008 में हुए चुनाव में येदियुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा ने 224 के सदन में 110 सीटें जीती और कुछ निर्दलीयों के समर्थन से येदियुरप्पा ने सरकार बनाई। दक्षिण भारत के किसी राज्य में भाजपा की अपने अकेले के बूते बनी यह पहली सरकार थी, लेकिन पार्टी के लिए सरकार के मुखिया के तौर पर येदियुरप्पा कभी भी निरापद और निर्विवाद नहीं रहे।
 भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरूपयोग से जुड़े मामलों ने भाजपा की इस पहली दक्षिण भारतीय सरकार और उसके मुख्यमंत्री का कभी पीछा नहीं छोड़ा। कभी पूर्व प्रधानमंत्री एच. डी. देवगौड़ा और उनके बेटे कुमारस्वामी के आरोपों के कारण, कभी येदियुरप्पा द्वारा अपने परिवारजनों को अनुचित तरीके से सरकारी जमीन आवंटित करने के कारण, कभी राज्य मंत्रिमंडल के सदस्य रेड्डी भाइयों के खनन कारोबार को लेकर, कभी राज्यपाल की मुख्यमंत्री विरोधी राजनीति के कारण, तो कभी अपने ही विधायकों की बगावत से उपजे संकट के कारण, कुल मिलाकर सरकार लगातार मुसीबतों में फंसती रही और उबरती रही। लेकिन इस बार येदियुरप्पा और उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों पर आरोप उनके किसी राजनीतिक विरोधी ने नहीं लगाया, बल्कि राज्य के लोकायुक्त ने उन्हें दोषी माना। उस लोकायुक्त ने जिनकी ईमानदारी असंदिग्ध है। होना तो यह चाहिए था कि लोकायुक्त की लीक हुई रिपोर्ट पर ही भाजपा नेतृत्व कहता कि अगर येदियुरप्पा दोषी हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन उसके प्रवक्ता ऐसा कहने के बजाय रिपोर्ट लीक होने का तकनीकी बहाना बनाकर कुछ कहने से बचते रहे। खैर, यह स्थिति ज्यादा समय तक कायम नहीं रह सकी और लोकायुक्त एन. संतोष हेगड़े ने अंतत अपनी रिपोर्ट औपचारिक रूप से राज्य के मुख्य सचिव और राज्यपाल को सौंप दी, जिसमें येदियुरप्पा और उनके परिवार को एक खनन कंपनी से अनुचित और संदेहजनक लाभ हासिल करने का दोषी पाया गया। इस समय देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह का मुखर माहौल बना हुआ है, उसके चलते भाजपा के लिए इस रिपोर्ट की अनदेखी कर येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद पर बनाए रखना किसी भी तरह मुमकिन नहीं था। हालांकि इससे पहले जमीन आवंटन से संबंधित मामले में भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने बड़ी निर्लज्ज और फूहड़ दलील के जरिए उनका बचाव किया था। उनका कहना था, 'येदियुरप्पा ने जो किया है वह अनैतिक तो है, पर गैरकानूनी नहीं।'
 अगर येदियुरप्पा का बस चलता तो वे कभी इस्तीफा देने को तैयार नहीं होते। लोकायुक्त की रिपोर्ट आ जाने के बाद भी येदियुरप्पा यही कहते रहे कि उनके इस्तीफा देने का सवाल ही नहीं उठता और वे अपना कार्यकाल पूरा करेंगे। अतीत में भी केंद्रीय नेतृत्व को अंगूठा दिखाते हुए वे अपनी कुर्सी पर जमे रहे हैं, लेकिन इस बार लोकायुक्त की रिपोर्ट आने के बाद उनकी पार्टी भारतीय जनता पार्टी को उन्हें झेलना आत्मघाती साबित हो सकता था। भाजपा नेतृत्व को इस बात का अच्छी तरह अहसास था कि अगर अब भी येदियुरप्पा को उसने नहीं हटाया तो भ्रष्टाचार को लेकर कांगे्रस के खिलाफ उसके अभियान की हवा निकल जाएगी। इसलिए भाजपा संसदीय बोर्ड ने आनन-फानन में येदियुरप्पा को हटाने का फैसला किया। लेकिन येदियुरप्पा ने इस फैसले को आसानी से स्वीकार नहीं किया। उन्होंने एक बार फिर अपने लिंगायत जनाधार के बूते बागी तेवर दिखाए। लोकायुक्त की रिपोर्ट को पूर्वाग्रह से प्रेरित और अपने को पाक-साफ बताते हुए पार्टी के लगभग 70 विधायकों और 14 सांसदों को अपने समर्थन में खड़ाकर येदियुरप्पा ने पार्टी नेतृत्व को यह दिखाने की कोशिश की कि उन्हें हटाने का फैसला पार्टी को भारी पड़ सकता है, यानी कर्नाटक उसके हाथ से निकल सकता है। लेकिन जब उन्होंने देख लिया कि पार्टी नेतृत्व उनके बागी तेवरों से जरा भी प्रभावित नहीं है तो उन्होंने नया दांव चला। वे इस्तीफा देने को तो राजी हो गए, लेकिन इस शर्त के साथ कि अगला मुख्यमंत्री उनकी पसंद का ही हो। अपनी पसंद की तौर पर उन्होंने वोक्कालिगा समुदाय के अपने समर्थक पार्टी सांसद सदानंद गौड़ा का नाम पेश किया। पार्टी नेतृत्व इस मुगालते में था कि येदियुरप्पा के इस्तीफा देते ही विधायक दल में उनका समर्थन छिन्न-भिन्न हो जाएगा और वह येदियुरप्पा को दरकिनार कर अपनी पसंद का मुख्यमंत्री बना लेगा। दरअसल, पार्टी नेतृत्व में एक वर्ग येदियुरप्पा के कट्टर विरोधी अनंत कुमार को मुख्यमंत्री बनाना चाहता था, लेकिन उसका यह मंसूबा पूरा नहीं हो सका। येदियुरप्पा के इस्तीफा देने के बाद भी उनके समर्थक विधायकों में कोई भी इधर से उधर नहीं हुआ।
 आखिरकार येदियुरप्पा विरोधी केंद्रीय नेताओं ने अनंत कुमार के ही समर्थक जगदीश शेट्टार को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर येदियुरप्पा को मात देने के लिए गुप्त मतदान के जरिए विधायक दल के नेता का चुनाव कराया, जिसमें येदियुरप्पा अपने करीबी सदानंद गौड़ा को जितवाने में कामयाब रहे। येदियुरप्पा की हिम्मत देखिए कि राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने लोकायुक्त की रिपोर्ट के आधार पर उन पर भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी है, मगर फिर भी येदियुरप्पा खुलेआम घोषणा कर रहे हैं कि छह महीने बाद वे फिर से सत्ता संभालेंगे। इस घोषणा से सबसे ज्यादा चिंतित भाजपा को ही होना चाहिए और चिंता की बात यह है कि येदियुरप्पा कर्नाटक में भाजपा को अपनी मुट्‌ठी में रखना चाहते हैं। वैसे कहने को तो अब भी कर्नाटक में भाजपा की ही सरकार होगी, लेकिन हकीकत यह है कि वहां परोक्ष रूप से रिमोट कंट्रोल के जरिए येदियुरप्पा ही राज करेंगे। अगर पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने या दिल्ली में बैठे येदियुरप्पा विरोधी नेताओं ने सदानंद गौड़ा की सरकार के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ की या उसे अस्थिर करने की कोशिश की तो फिर कर्नाटक को उसके हाथों से खिसकने से कोई नहीं रोक पाएगा, क्योंकि येदियुरप्पा के पास क्षेत्रीय पार्टी विकल्प बनाने का विकल्प अभी भी खुला है और इसका परोक्ष संकेत वे पहले ही पार्टी नेतृत्व को दे चुके हैं।

गरीबी मापने की आड़ में गरीबी छिपाने का खेल


जिस तरह भारत कृषि प्रधान देश है, उसी तरह गरीबी प्रधान देश भी है। यानी भारत की बहुसंख्य आबादी गरीब है। इस जगजाहिर हकीकत के बावजूद किसी को यह ठीक-ठीक मालूम ही नहीं हैं कि गरीबी का यह हिंद महासागर कितना विशाल है, यानी देश में गरीब आबादी का वास्तविक आंकड़ा क्या है। देश और समाज की जमीनी हकीकत से हमारे नीति-नियामकों की बेखबरी की यह इन्तहा ही है। पिछले दिनों केंद्र सरकार ने लंबी ऊहापोह के बाद फैसला किया है कि 2011 की जनगणना के साथ जातियों के आंकड़े जुटाने के साथ ही गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाली आबादी के आंकड़े भी जुटाए जाएंगे। इसी फैसले के तहत सरकार लगभग साढ़े तीन हजार करोड़ रूपए खर्च कर पूरे देश में गरीबों की पहचान के लिए गणना अभियान शुरू कर रही है। लेकिन सवाल यह खड़ा हो गया है कि सरकार किसको गरीब मानेगी। गरीबी को मापने की जो प्रचलित सरकारी पद्धति है उसे तमाम अर्थशास्त्री नकारते रहे हैं। गरीबी मापने के जो अंतरराष्ट्रीय पैमाने हैं उनमें और हमारी सरकारी पद्घति में भी कोई साम्य नहीं है। दरअसल, सरकार में बैठे योजनाकारों द्वारा गरीबी मापने का जो पैमाना तय किया गया है, वह गरीबी को मापने से ज्यादा गरीबी को छिपाने का काम करता है। यही वजह है कि योजना आयोग द्वारा निर्धारित गरीबी की परिभाषा से सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) भी सहमत नहीं है। 
योजना आयोग ने 2004-2005 में बताया था कि देश में सिर्फ 27फीसदी लोग गरीब हैं। योजना आयोग द्वारा ही 2009 में गठित सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली समिति ने इस आंकड़े को खारिज करते हुए बताया कि 37 फीसदी भारतीय गरीब हैं, जिसमें 42 फीसदी गरीब गांवों में बसती है। तेंदुलकर समिति का यह अनुमान भी हकीकत से दूर है। तेंदुलकर समिति के बाद उसी दौर में असंगठित क्षेत्र की स्थिति के अध्ययन के लिए गठित अर्जुन सेनगुप्त की सदारत वाली एक अन्य समिति ने अपनी रिपोर्ट में कुल आबादी के 78 फीसदी हिस्से के गरीब होने का अनुमान पेश किया था। इसके बाद ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से गठित एन सी सक्सेना की अध्यक्षता वाली समिति ने आधी यानी 50 फीसदी आबादी को गरीब माना। अब योजना आयोग ने गरीबी की जो कसौटी बनाई है, वह हैरान करने वाली और निहायत ही हास्यास्पद है। अपनी बनाई इस कसौटी को योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में भी पेश किया है। इस कसौटी के मुताबिक शहरी क्षेत्र में 578 रुपए मासिक यानी प्रतिदिन बीस रुपए से कम पर गुजर-बसर करने वाले व्यक्ति को गरीब माना जाएगा। इस 578 रुपए में दो वक्त का खाना, मकान का किराया, दवाई आदि समेत बीस मदें शामिल हैं। इसमें सब्जी-भाजी की मद में खर्च की सीमा एक रुपए बाईस पैसे प्रतिदिन हैं। इस खर्च सीमा में कोई व्यक्ति दो वक्त की बात तो छोड़िए, एक वक्त के लिए कैसे सब्जी-भाजी जुटा सकता है? इसी तरह शहरों में मकान के किराए पर खर्च की सीमा इकतीस रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिमाह रखी गई। ग्रामीण इलाकों के लिए तो गरीबी की कसौटी और भी सख्त है। योजना आयोग ने गांवों में रहने वाले उन्हीं लोगों को गरीब माना है जिनका रोजाना का खर्च पंद्रह रुपए से ज्यादा न हो। इससे भी ज्यादा अतार्किक और हास्यास्पद बात यह है कि शहरी और ग्रामीण गरीबी का यह निर्धारण 2004-05 की कीमतों के आधार पर किया गया है, जबकि आज कीमतें तब के मुकाबले लगभग दोगुनी हो गई हैं। जाहिर है कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से निर्देशित होने वाले हमारे योजनाकार गरीबों की और गरीबी की खिल्ली उड़ा रहे हैं। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री और उनकी योजनाकार मंडली की बाजीगरी देखिए कि उन्होंने गरीबी कम करने के तो कोई उपाय नहीं खोजे, जो कि वे खोजना भी नहीं चाहते हैं और न ही खोज सकते हैं, पर गरीबों की संख्या कम करने और दिखाने की कई नायाब तरकीबें उन्होंने जरूर ईजाद कर ली हैं। वैसे गरीबों की संख्या कम करने का सबसे पुराना तरीका तो वह गरीबी रेखा है जो सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ कार्यक्रम के तहत ग्रामीण इलाकों में प्रतिव्यक्ति 2400 कैलोरी और शहरी इलाकों में 2100 कैलोरी के उपभोग के आधार पर गढ़ी गई थी। इसके तहत जिस भी व्यक्ति की मासिक आमदनी इस जरूरी कैलोरी का भोजन जुटाने लायक नहीं थी उसे गरीबी रेखा के नीचे माना गया था। अब भी गरीबी मापने के लिए शहरी और ग्रामीण इलाकों में प्रतिव्यक्ति मासिक आमदनी की जो सीमा तय की गई है उसमें 2400 कैलोरी का भोजन तो दूर एक वक्त का भोजन भी जुटाना मुश्किल है। इसलिए योजना आयोग द्वारा निर्धारित गरीबी की इस रेखा को अर्थशास्त्री अगर भुखमरी की रेखा कहते हैं तो इसमें गलत क्या है?
आए दिन ऊंची विकास दर का हवाला देकर देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश कर लोगों को सब्जबाग दिखाने वाले योजनाकारों द्वारा बनाई गई गरीबी मापने की यह कसौटी दरअसल गरीबी की वास्तविक तस्वीर छिपाने की फूहड़ कोशिश ही है और साथ ही देश के गरीबों के साथ शर्मनाक मजाक भी। यही वजह है कि एनएसी के सदस्य इस कसौटी को लेकर आगबबूला हैं। गरीबी मापने के अंतरराष्ट्रीय मापदंड के अनुसार प्रतिदिन सवा डॉलर तक खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब और एक डॉलर तक खर्च करने वाले को अति गरीब माना जाता है। अगर यही मापदंड भारत में लागू किया जाए तो कैसी तस्वीर दिखाई देगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
सवाल उठता है कि आखिर हमारे योजनाकार गरीबी की असली तस्वीर पर परदा क्यों डालना चाहते हैं? जाहिर है कि वे ऐसा करके विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से प्रेरित मौजूदा आर्थिक नीतियों की सार्थकता साबित करना और गरीब तबके के लिए चलने वाली योजनाओं के बजट में कटौती करना चाहते है और सब्सिडी का बोझ घटाना चाहते हैं। इसके लिए यह जरूरी है कि सरकारी आंकड़ों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वालों की संख्या सीमित रखी जाए। लेकिन कोई कितनी ही और कैसी भी कोशिश कर ले, आम लोगों की आर्थिक हालत ऐसी चीज है जो नहीं छिपाने की लाख कोशिशों के बाद भी नहीं छिप सकती। पिछले कुछ वर्षों से देश के चंद उद्योग घरानों की सम्पत्ति में हो रहा बेतहाशा इजाफा, और देश के विभिन्न इलाकों में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं और भूख व कुपोषण से हो रही मौतें बता रही हैं कि किस तरह के भारत का निर्माण हो रहा है और सरकार का हाथ किसके साथ है। खुद योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका के सिलसिले में दायर अपने हलफनामे में कहा है कि देश में प्रतिदिन कोई ढाई हजार बच्चे कुपोषण की वजह से मौत के मुंह में चले जाते हैं। दूसरी ओर भंडारण की बदइंतजामी, गोदामों की कमी और लापरवाही के चलते हजारों टन अनाज हर साल सड़ जाता है। इतनी सारी कड़वी हकीकतों के बावजूद सरकार के योजनाकार गरीबों की संख्या सीमित बताने की फूहड़ और शर्मनाक कोशिशें कर रहे हैं। ऐसे में सारा दारोमदार मानसून सत्र में आने वाले खाद्य सुरक्षा बिल पर है, जिसमें अगर गरीबी रेखा का तर्कसंगत निर्धारण होगा तो ही सरकारों की नीतियों और प्राथमिकताओं में गुणात्मक फर्क आएगा।



नीति और नेतृत्व के संकट से जूझती भाजपा

गर भारतीय जनता पार्टी को एक मुद्दे वाली पार्टी की छवि से छुटकारा दिलाने में उसके नेतृत्व की ही कोई दिलचस्पी नहीं हो तो कोई क्या कर सकता है? ऐसे समय में जब देश में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है और केंद्र की कांग्रेस नीत गठबंधन सरकार पर आए दिन घपले-घोटाले के नए-नए आरोप लग रहे हैं तथा महंगाई का ग्राफ भी लगातार आसमान की ओर ऊंचा होता जा रहा है, भाजपा के पास मौका है कि वह देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी होने के नाते इन दोनों महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर देशव्यापी जनांदोलन का एक ठोस कार्यक्रम बनाए और सरकार के लिए राजनीतिक चुनौती पेश करे। लेकिन घोर अकर्मण्यता के शिकार उसके बयान बहादुर नेताओं के मौजूदा राजनीतिक रंग-ढंग देखकर नहीं लगता कि पार्टी इस दिशा में कुछ करने की इच्छा रखती है या उसमें  ऐसा कुछ करने की सामर्थ्य है।
पिछले दिनों लखनऊ में हुई उसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी और दूसरे तमाम दिग्गज नेताओं के भाषणों से भी ऐसा कोई आभास नहीं मिला कि पार्टी बदलते वक्त और चुनौतियों के अनुरूप अपने को ढालने का माद्दा रखती है। हाल ही में सम्पन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने कुल 824 सीटों में महज पांच सीटें जीती हैं। इस जमीनी हकीकत के बावजूद भाजपा नेतृत्व का दावा है कि पार्टी न सिर्फ अगले वर्ष उत्तर प्रदेश में सरकार बनाएगी, बल्कि 2014 में वह केंद्र में भी सत्ता पर काबिज होगी। इन दो मुश्किल लक्ष्यों को हासिल करने के लिए पार्टी ने अपनी कोई सुविचारित राजनीतिक कार्ययोजना पेश करने के बजाय अपने प्रिय और चिर-परिचित राम मंदिर मुद्दे का और अपने प्रथम पुष अटलबिहारी वाजपेयी के नाम का ही आसरा लिया है। वाजपेयी लंबे समय से अस्वस्थ हैं और इसी वजह से सार्वजनिक जीवन से भी पूरी तरह संन्यास ले चुके हैं। और फिर, देश की राजनीति भी अब वाजपेयी के समय से काफी आगे निकल चुकी है, यह बात राजनीति का सामान्य सा विद्यार्थी भी अच्छी तरह जानता है लेकिन पता नहीं भाजपा नेतृत्व इस हकीकत को क्यों नहीं समझ पा रहा है?
दरअसल, अब तो उत्तर प्रदेश और देश के मतदाताओं के सामने कसौटी पर वाजपेयी नहीं, बल्कि भाजपा का मौजूदा नेतृत्व है, जिसमें न तो वाजपेयी जैसी सर्वस्वीकार्यता है और न ही जन-मन को मुग्ध करने वाली वाक्‌पटुता। रही बात राम मंदिर की, तो इस मुद्दे को तो अपनी रंगत खोए लगभग एक दशक हो चुका है और इस दौरान पार्टी दो मर्तबा लोकसभा और इतनी ही दफा उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हार चुकी है। चूंकि अब फिर उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव सिर पर हैं। इसलिए भाजपा को जनता के इस सवाल का जवाब देने के लिए कुछ तो तैयारी करनी ही होगी कि दो दशक बाद भी अयोध्या में वह राम मंदिर क्यों नहीं बनाया जा सका, जिसके लिए बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी। भाजपा नेतृत्व के लिए इस आरोप का बोझ अपने सिर पर लेकर चलना मुश्किल होगा कि वे अपने आराध्य राम को भूल गए हैं। इसलिए इस मुद्दे से चिपके रहना पार्टी की मजबूरी है।
पार्टी सिर्फ नीति और कार्यक्रम के मामले में ही दिवालिया नहीं है, नेतृत्व के मोर्चे पर भी उसकी हालत बेहद दयनीय है। वाजपेयी जहां अपनी बीमारी के चलते मैदान से पूरी तरह बाहर है, वहीं लालकृष्ण आडवाणी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ठिकाने लगा चुका है। उनको पार्टी का नेतृत्व छोड़ने को मजबूर कर उनकी जगह पार्टी के अध्यक्ष बनाए गए नितिन गडकरी की हालत यह है कि संघ की अनुकम्पा से वे पार्टी के पदेन राष्ट्रीय नेता जरूर बन गए हैं, मगर उनका कद अभी भी जिला स्तर के नेता से ज्यादा ऊंचा नहीं हो पाया है। हाल में महाराष्ट्र के एक जिला अध्यक्ष को लेकर पार्टी संसदीय दल के उपनेता गोपीनाथ मुंडे के साथ हुआ विवाद इसकी मिसाल है। उनमें अनुभव की कमी तो है ही, साथ ही अपने बयानों से भी उन्होंने अपनी  छवि ऐसी बना ली है कि न तो पार्टी के बाहर उन्हें कोई गंभीरता से लेता है और न ही पार्टी के भीतर। अपने विरोधियों के प्रति गाली-गलौच वाली भाषा से युक्त उनके गडकरी के भाषणों से तो यही लगता है कि वे खुद भी नहीं चाहते कि कोई उन्हें गंभीरता से ले।
जहां तक लोकसभा और राज्यसभा में पार्टी संसदीय दल के नेतृत्व का सवाल है, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के बीच चलने वाली तनातनी कोई नई और छिपी हुई बात नहीं है। इन दोनों का ज्यादातर समय आपसी हिसाब-किताब चुकता करने और गडकरी को कमजोर करने की कोशिशों में ही बीतता है। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथसिंह अपने को मानते राष्ट्रीय स्तर का नेता हैं, लेकिन वे उत्तर प्रदेश की राजनीति से ही बाहर नहीं निकल पाते हैं। यह अलग बात है कि उनकी  उत्तर प्रदेश में राजनीति में भरपूर दिलचस्पी के बावजूद पार्टी को वहां अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। पार्टी के एक अन्य वरिष्ठ नेता और पूर्व अध्यक्ष डॉ मुरली मनोहर जोशी को आडवाणी ही काफी पहले हाशिए पर डाल चुके हैं। फिर भी वे संसद की लोकलेखा समिति के अध्यक्ष की हैसियत से किसी तरह अपना राजनीतिक वजूद और उपयोगिता बनाए हुए हैं। दिलचस्प बात यह है कि पार्टी के सत्ता में आने के अभी दूर-दूर तक कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं, लेकिन ये सारे नेता अपने को आडवाणी की तरह प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग मानते हैं। यह अलग बात है कि इनमें से अरुण जेटली ने आज तक कोई चुनाव नहीं लड़ा है और वे राज्यसभा के रास्ते से ही संसद तक पहुंचते रहे हैं। सुषमा स्वराज पहली बार लोकसभा पहुंची हैं, अन्यथा वे भी हमेशा लोकसभा चुनाव हारती रही हैं और कभी इस राज्य से तो कभी उस राज्य से राज्यसभा की शोभा बढ़ाती रही हैं। यही हाल राजनाथ सिंह का है। वे भी अपने राजनीतिक जीवन में मात्र एक बार लोकसभा का चुनाव जीत पाए हैं, वह भी उत्तर प्रदेश में अपने गृह जिले से काफी दूर दिल्ली से सटे राजपूत बहुल गाजियाबाद क्षेत्र से।
आज हालत यह है कि राजनीतिक परिदृश्य से वाजपेयी के हटने के बाद पार्टी के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जिसे आगे कर वह राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को चुनौती दे सके और फिर से दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो सके। यही स्थिति उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के बाहर निकल जाने के बाद है। वहां भी पार्टी के पास एक भी चेहरा ऐसा नहीं है जिसके दम पर वह उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के सामने कोई सशक्त चुनौती पेश कर सके। उत्तर प्रदेश में नेतृत्व के संकट के चलते ही पार्टी को मजबूरन उमा भारती को लाकर उन्हें स्टार प्रचारक बनाना पड़ा। इस सूबे में दो मर्तबा सरकार बना चुकी भाजपा की हालत आज यह है कि उसका परंपरागत वोट बैंक उससे छिटक कर कांग्रेस और बसपा के पास पहुंच चुका है और पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों के लिहाज से पार्टी वहां चौथे पायदान खड़ी है। ऐसी स्थिति में भाजपा नेतृत्व ने उमा को इस सूबे का जिम्मा सौंपकर एक तरह से बड़ा राजनीतिक जुआं खेला है। यदि उमा का करिश्मा चल गया तो पार्टी तो पार्टी के दिन तो फिरेंगे ही, उमा कद भी बढ़ जाएगा। और, अगर ऐसा नहीं भी हुआ तो भाजपा के पास खोने के लिए रखा भी क्या है?
वैसे भाजपा के पास सुशासन या यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने का यह माकूल मौका है, लेकिन कर्नाटक और उत्तराखंड में उसकी अपनी सरकारों के दागदार रिकार्ड के चलते उसके सामने इन मुद्दों पर विश्वसनीयता का संकट सामने आ खड़ा हो जाता है। वह इन मुद्दों को चाहकर भी जोरदार तरीके से नहीं उठा सकती। यही वजह है कि अब वह योग गुरू रामदेव और अण्णा हजारे की पालकी का कहार बनकर जनता के बीच अपनी साख जमाने की कोशिश कर रही है।