Tuesday, September 24, 2013

संघ और भाजपा का अद्वैत

पंचतंत्र में एक कथा है, जिसमें बंदर का दिल खाने को आतुर एक मगरमच्छ से अपनी जान बचाने के लिए बंदर कहता है कि हम बंदर अपना दिल पेड़ पर टांगकर ही कहीं जाते हैं...! वैसे तो जनसंघ के समय से ही लेकिन खासकर 2004 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सत्ता से बाहर होने के बाद से भाजपा की हालत भी कमोबेश यही है कि उसके नेता भी अपना विवेक नागपुर स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय में रखकर ही राजनीतिक फैसले करते हैं। इसी बात को यशस्वी संपादक-पत्रकार प्रभाष जोशी थोड़ा अलग अंदाज में कहा करते थे। उन्होंने एक जगह लिखा है कि संघी कुनबे में दिल्ली के सौ सुनारों पर नागपुर के लुहार का एक हथौड़ा भारी पड़ता है। प्रभाष जोशी अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनकी यह स्थापना एक बार नहीं, बार-बार सही साबित हुई है। और, इस बार तो नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवाने के लिए नागपुर में बैठे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आकाओं ने जिस तरह दबंगई दिखाई उससे किसी को भी यह भ्रम नहीं रहा कि अपने दावे के मुताबिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सांस्कृतिक संगठन नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से राजनीतिक संगठन है और भारतीय जनता पार्टी उसका मुखौटा भर है।
वैसे संघ के तमाम कर्ताधर्ता यह दावा करते नहीं थकते कि भाजपा अपने फैसले खुद करती है, उनमें संघ का कोई हस्तक्षेप नहीं होता, वह तो सिर्फ सलाह देने भर का काम करता है। ठीक इसी तरह भाजपा भी संघ से अपनी दूरी का इजहार करती है। मगर हकीकत किसी से छिपी नहीं है। भाजपा के सांगठनिक फैसलों में हर स्तर पर संघ का पूरा दखल होता है। वैसे भाजपा में एक तबका ऐसा है जो पार्टी के मामलों में संघ की दखलंदाजी पसंद नहीं करता है। कोई दो-ढाई दशक पहले जब संघ ने पार्टी के महत्वपूर्ण पदों पर अपने प्रचारकों को बिठाना शुरू किया था, तभी से पार्टी के भीतर यह आवाज उठती रही है कि भाजपा ने अगर संघ से दूरी नहीं बनाई तो पार्टी की मुश्किलें बढ़ती जाएंगी। जब तक पार्टी का नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के हाथों में रहा तब तक तो संघ्ा का हस्तक्षेप एक सीमा तक ही होता था या इसे यों कहें कि वाजपेयी-आडवाणी ने संघ को एक सीमा से ज्यादा पार्टी पर हावी नहीं होने दिया। बेशक, वाजपेयी और आडवाणी दोनों ही संघ की उपज थे, लेकिन उस कुनबे में पैदा हुए वे पहले ऐसे राजनीति-कर्मी थे, जो संसदीय लोकतंत्र के ढांचे में अपनी पहचान बनाने की कोशिश में बेहद संजीदगी से लगे थे। अपनी इन कोशिशों के दौरान ही उन्होंने यह भी अच्छी तरह समझ लिया था कि संघ का स्वयंसेवक कहलाने में कोई दिक्कत नहीं है, गाहे-बगाहे संघ के कार्यक्रम में जाकर ध्वज-प्रणाम करने और 'नमस्ते सदा वत्सले...!" गुनगुनाने में भी कोई परेशानी नहीं है और मौका आने पर संघ परिवार का हित-साधन भी बेझिझक किया जा सकता है। वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी ने यह सब कुछ किया भी लेकिन संसदीय राजनीति में और खासकर एनडीए शासनकाल के दौरान सरकार के कामकाज में संघ की बेजा दखलंदाजी को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। दोनों नेताओं ने अपनी राजनीतिक योग्यता, भारतीय राजनीति में अपनी स्वीकार्यता और पार्टी (जनसंघ, जनता पार्टी, भाजपा) में अपनी अनिवार्यता के कारण ऐसी हैसियत बना ली कि वे संघ परिवार की पकड़ से बाहर होने लगे। दोनों नेताओं ने इस आजादी का खूब लुत्फ भी उठाया और इसको बनाए रखने की लड़ाई भी बड़ी चालाकी और मजबूती से लड़ी। डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और बलराज मधोक तो इस तरह की आजादी की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, जैसी आजादी इन दोनों नेताओं ने हासिल की और भोगी।
लेकिन 2004 के आम चुनाव में पार्टी की हार और एनडीए के सत्ता से बाहर होने के बाद अपनी अस्वस्थता के चलते वाजपेयी के  राजनीतिक परिदृश्य से बाहर हो जाने से संघ का काम आसान हो गया। अब उसे सिर्फ आडवाणी से ही निपटना था। 2005 के चर्चित जिन्न्ा प्रकरण ने उसे यह मौका भी उपलब्ध करा दिया। उसने आडवाणी को पार्टी और संघ की मूल विचारधारा से विचलित होने का मुजरिम करार देकर उन्हें पार्टी अध्यक्षता छोड़ने के लिए मजबूर किया और बजरिए राजनाथ सिंह पार्टी के सूत्र परोक्ष रूप से अपने हाथ में ले लिए। फिर 2009 में उसने आडवाणी से पार्टी का संसदीय नेतृत्व भी झटक लिया। आडवाणी को पूरी तरह किनारे लगा देने के बाद भाजपा में कोई नेता इस कद का नहीं बचा जो संघ को उसकी हदें बताने की हिमाकत कर सके। उधर, संघ के जो प्रचारक पार्टी में प्रादेशिक और केंद्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किए गए थे उन्हें भी राजनीति रास आने लगी और उनमें भी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं अंगड़ाई लेने लगी। इस सबका नतीजा यह हुआ कि पार्टी पर संघ का शिकंजा इस कदर कसता गया कि उसने राष्ट्रीय राजनीति की पेचिदगियों से निहायत अनजान, महाराष्ट्र के एक जिला स्तरीय नेता नितिन गडकरी को उसने पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवा दिया। फिर उन पर अनियमितताओं के आरोप लगने के बावजूद उसने दबाव बनाया कि उन्हें ही दोबारा अध्यक्ष बनाया जाए। लेकिन पार्टी के कुछ नेताओं ने जब इसका विरोध किया तो संघ ने मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, अस्र्ण जेटली जैसे नेताओं की दावेदारी को सिरे से खारिज कर अपनी ही पसंद के राजनाथ सिंह को एक बार फिर पार्टी पर थोप दिया।
राजनाथ सिंह ने भी संघ को निराश करने जैसा कोई काम नहीं किया। मोदी को अगली कतार में लाने की संघ की मंशा के खिलाफ पार्टी में काफी पहले से सुगबुगाहट थी। एनडीए के कुछ दलों ने भी विरोध किया। जनता दल (यू) ने तो इस आधार पर एनडीए यानी भाजपा से अपना 17 साल पुराना नाता ही तोड़ लिया, लेकिन फिर भी भाजपा के तमाम कद्दावर नेता संघ के सामने तन कर खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। संघ ने राजनाथ के माध्यम से सबसे पहले मोदी को पार्टी संसदीय बोर्ड का सदस्य बनवाया, फिर आडवाणी समेत कई नेताओं के एतराज को दरकिनार उन्हें पार्टी की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष मनोनीत करवाया और कई महीनों की अटकल भरी कवायद के बाद आखिरकार उन्हें अपनी चिर-परिचित मंशा के अनुरूप प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित करवा दिया। आडवाणी, सुषमा स्वराज जैसे दिग्गजों और पार्टी में मोदी की ही तरह कामयाब माने जाने वाले शिवराज सिंह चौहान जैसे मुख्यमंत्री का एतराज धरा रह गया।
हालांकि सुषमा स्वराज और शिवराज सिंह ने आखिरी वक्त में अपनी असहमति वापस ले ली और संघ की इच्छा के आगे समर्पण कर दिया तथा मोदी की उम्मीदवारी घोषित हो जाने के दो दिन बाद आडवाणी ने भी कोप भवन से बाहर आकर मजबूरी में ही सही नमो-नमो का जाप शुरू कर दिया। इस तरह एक बार फिर यही जाहिर हुआ है कि भाजपा न तो संघ की बैसाखी के बगैर चल सकती है और न ही अपने फैसले खुद कर सकती है। यह सवाल और गहरा हुआ है कि जो पार्टी छह सालों तक केंद्र की सत्ता में रह चुकी है और जिसकी कई राज्यों में सरकारें हैं, वह अपने फैसले आखिर खुद क्यों नहीं कर पाती है और जिन लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी को सत्ता का स्वाद चखाने में अहम भूमिका निभाई उनकी राय भी संघ के इशारे पर निष्ठुरतापूर्वक क्यों कुचल दी जाती है? इसकी वजहें भी साफ हैं।
दरअसल, भाजपा लगातार दो आम चुनाव हार चुकी है और अब एक ऐसे नेता पर दांव लगाना चाहती है जो भीड़ और वोट खींच सके। मोदी प्रधानमंत्री बन पाएंगे या नहीं, इस सवाल का जवाब तो समय के गर्भ में है। मगर पार्टी में यह आम धारणा बन चुकी है कि मोदी पार्टी को बहुमत तक पहुंचा पाएं या नहीं, उन्हें चुनावी चेहरे के तौर पर पेश करने से पार्टी की सीटों में उत्साहजनक इजाफा हो सकता है। इसी उम्मीद में भाजपा ने मोदी को लेकर तमाम पार्टियों के रुख और एनडीए के विस्तार की संभावनाओं की परवाह नहीं की। फिर, मोदी के पक्ष में निर्णायक भूमिका तो संघ के दखल की रही ही। अगर संघ का दबाव न होता तो चुनावी संभावनाओं की दलीलों के बावजूद कहना मुश्किल है कि मोदी के नाम पर भाजपा संसदीय बोर्ड की मुहर लग ही जाती।
यह किसी से छिपा नहीं है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करने के पीछे संघ की दिलचस्पी सिर्फ चुनावी नहीं है। पिछले दिनों अपने सहयोगी संगठनों और भाजपा के शीर्ष नेताओं के साथ हुई बैठक में राम मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता जैसे विवादास्पद मुद््दों को फिर से पार्टी का एजेंडा बनाने का दबाव डाल कर संघ ने अपने इरादे जता दिए हैं। उसे लगता होगा कि उसकी इस रणनीति में मोदी की छवि ही सबसे ज्यादा काम आएगी। जाहिर है, मोदी को आगे कर संघ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए भाजपा को फिर से सत्ता में लाने का सपना देख रहा है। ऐसे में हो सकता है कि विकास को मुख्य मुद््दा बनाने की भाजपा की घोषणा मध्यवर्ग को लुभाने की एक भंगिमा भर साबित हो और पार्टी उसी दिशा में मुड़ जाए जिधर संघ चाहता है। ऐसा हुआ तो देश की बात तो छोड़िए, वह भाजपा के भविष्य के लिए भी शुभ नहीं होगा।
             

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