Thursday, September 12, 2013

तीसरा मोर्चा कैसे बनेगा, कितना चलेगा


देश की राजनीति में एक बार फिर तीसरे मोर्चे के गठन की चर्चा हवा में तैर रही है। पिछले ढाई दशक के दौरान तीसरा मोर्चा इतनी बार बना और टूटा है कि इसको लेकर होने वाली किसी भी चर्चा को गंभीरता से न लेने की अब जनता को आदत पड गई है। हां, देश में दो दलीय अथवा दो ध्रुवीय राजनीतिक व्यवस्था की पैरोकारकांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जरू र ऐसे मोर्चे के गठन की कोशिशों पर भçडक उठती हैं और ऐसी कोशिश करने वाले नेताओं अथवा दलों को खरी-खोटी सुनाती है, जिससे ऐसा लगता है कि वे शायद तीसरे मोर्चे को गंभीरता से लेती हैं। बहरहाल, पिछले लगभग डेçढ दशक के दौरान कांग्रेस और भाजपा से इतर तीसरे मोर्चे के गठन की कोशिशों और संभावनाओं को कई मौकों पर पलीता लगा चुके समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव इन दिनों बडी शिद्दत से तीसरे मोर्चे के गठन का राग अलाप रहे हैं। पिछले नौ वर्षों से केंद्ग में जिस कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार को उनकी पार्टी बाहर से समर्थन दे रही है, उसी कांग्रेस को अब वे धोखेबाज और यूपीए सरकार को नाकारा करार देकर अपना अलग रास्ता तलाश रहे हैं। इसी तरह यूपीए के लगभग हर फैसले में साथ रहने वाली शरद पवार की राष्टवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) को भी तीसरे मोर्चे की जरू रत महसूस हो रही है और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौडा का जनता दल (एस) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी मुलायम के सुर में सुर मिला रही है। यही नहीं, कुछ दिनों पहले तक राष्टीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का अहम हिस्सा रहते हुए देश में तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को खारिज करते रहे जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव भी अब आगामी आम चुनाव के बाद तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की बात कर रहे हैं। कुछ दिनों पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तेलुगू देशम पार्टी के सुप्रीमो चंद्गबाबू नायडू और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी तीसरा मोर्चा या फेडरल फ्रंट बनाने की वकालत कर चुके हैं। इन सबके के बीच दिलचस्प यह है कि अतीत में तीसरे मोर्चे के गठन में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती रही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) इस बार ऐसी किसी पहल को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं है। अलबत्ता उसके नेताओं प्रकाश करात और सीताराम येचुरी की तीसरे मोर्चे के पैरोकारों से मुलाकातें जरू र हो रही हैं। बहरहाल, सबसे बçडा सवाल यह है कि वास्तव में तीसरे मोर्चे के गठन की संभावना कितनी है और इस तरह की कोई पहल हुई तो क्या वह कारगर या टिकाऊ हो पाएगी?
मुलायम सिंह और शरद यादव समेत तीसरे मोर्चे के तमाम पैरोकारों का दावा है कि अगले आम चुनाव में न तो कांग्रेस और न ही भाजपा अपने दम पर सरकार बना पाएगी, जो भी सरकार बनेगी वह या तो तीसरे मोर्चे की होगी या उसके समर्थन से बनेगी। दरअसल, गठबंधन की राजनीति मौजूदा दौर की हकीकत है, जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता। देश में पिछले ढाई दशक से किसी भी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला है। सत्ता पर कांग्रेस का वष्रों पुराना एकाधिकार टूटने के बाद गठबंधन की व्यवस्था ने आकार लिया। आज कांग्रेस और भाजपा की अगुआई मे दो गठबंधन देश मे चल रहे हैं। केंद्ग की मौजूदा सरकार गठबंधन की ही देन है। यूपीए से पहले भी एनडीए के रू प में गठबंधन सरकार ही थी, जिसका नेतृत्व भाजपा ने किया था और उससे पहले तीसरे मोर्चे की भी दो सरकारें कांग्रेस के समर्थन से बनी उसके समर्थन वापस लेने से ही अल्पावधि में ही गिर गई। अगले आम चुनाव के बाद भी जो सरकार बनेगी, वह किसी न किसी गठबंधन की ही होगी, यह बात तमाम राजनीतिक पर्यवेक्षक भी मानते हैं। इसलिए मुलायम सिंह और शरद यादव जो बात कह रहे हैं उसमें नया कुछ खास नहीं है। उनके दावे में नया सिर्फ इतना ही है कि वे तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को लेकर जरू रत से ज्यादा आश्वस्त हैं।
देश की राजनीति में तीसरे मोर्चे का व्यावहारिक आशय उन दलों से रहा है जो कांग्रेस और भाजपा अलग एक मोर्चे में हों या ऐसा मोर्चा बनाने के इच्छुक हों। इस वक्त ऐसे दलों की पर्याप्त संख्या और शक्ति है जो तीसरे मोर्चे का आधार बन सकते हैं। दूसरी ओर कांग्रेस और भाजपा का विस्तार नहीं हो पा रहा है। पिछले दिनों हुए दो राष्टीय सर्वेक्षणों का निष्कर्ष भी कमोबेश यही है कि कांग्रेस और भाजपा का चुनावी भविष्य बहुत उज्जवल नहीं है। अपने शासन के दस साल पूरे करने जा रही कांग्रेस जहां जनता की अदालत में अपने भविष्य के प्रति अनिश्चित और मुंह लटकाए खडी है, वहीं इतने ही समय से प्रमुख विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व कर रही भाजपा को भी कांग्रेस की इस बदहाली के बावजूद अपने विकास की संभावनाएं नहीं दिख रही है। सर्वेक्षण के आंकडे कांग्रेस की गिरावट तो दिखाते हैं लेकिन उसके बरक्स भाजपा की निर्णायक बढत नहीं दिखाते। जाहिर है कि देश की दोनों प्रमुख पार्टियों का पिछले दस वर्षों का कार्यकाल संतोषजनक नहीं रहा है। सत्ता में हो या विपक्ष में, वे अपने राष्टीय होने का धर्म निभाने में नाकाम रही हैं। सर्वेक्षणों के इन्हीं नतीजों से उत्साहित होकर मुलायम सिंह और तमाम क्षत्रप तीसरे मोर्चे का राग अलाप रहे हैं।
इसमे कोई दो मत नही कि जनता में यूपीए सरकार के प्रति गहरा अंसतोष है, लेकिन तमाम मोर्चों पर सरकार की नाकामी के लिए सिर्फ कांग्रेस ही जिम्मेदार नहीं है। जनता सत्तारुढ गठबंधन के बाकी घटक दलो के मंत्रियो के कामकाज को भी देख-परख रही है। वह यह भी जान रही है कि किस मसले पर किस दल ने सरकार का समर्थन किया है। इसलिए यूपीए सरकार के विरोध में कोई मोर्चा बनता है, तो उसे साफ करना होगा कि वह किस मामले में मौजूदा सरकार से अलग है और उसके पास जनता को देने के लिए क्या खास है?
बेशक देश की राजनीति मे तीसरे मोर्चे की गुंजाइश बनी हुई है। पर इसकी कुछ शर्तें या तकाजे भी हैं। सवाल है कि इन शर्तों या तकाजों को कौन पूरा कर सकता है? कांग्रेस और भाजपा का आधार लगातार छीज रहा है और अलग-अलग कारणों से उनके गठबंधन रुपी कुनबे का आकार भी बढने के बजाय सिकुडता जा रहा है। बावजूद इसके कई ऐसी वजहें हैं जो इन दोनों दलों अथवा इनकी अगुआई वाले गठबंधनों से अलग किसी तीसरे गठबंधन की संभावनाओं को बाधित करती हैं। पहली और सबसे अहम वजह तो यह है कि तीसरे मोर्चे के संभावित दलों में एक भी ऐसा नहीं है जिसका एक से अधिक राज्यों में जनाधार हो और जो ऐसे मोर्चे की धुरी बन सके या बाकी दलों का नेतृत्व कर सके। पूर्व में यह भूमिका अविभाजित जनता दल निभाता रहा जब पांच-छह राज्यों में उसका जनाधार होता था लेकिन कई टुकडों में विभाजित होने के बाद वह यह हैसियत खो चुका है। इसके अलावा तीसरे मोर्चे के संभावित दलों में ऐसा कोई नेता भी नहीं है जिसका नेतृत्व सबको स्वीकार्य हो और जो सबको एकजुट रख सके। एक समय यह भूमिका विश्वनाथ प्रताप सिंह ने निभाई थी लेकिन वे भी अन्यान्य कारणों से ज्यादा दूर तक नहीं चल सके। अब मौजूदा नेताओं में उनका स्थान ले सके ऐसा कोई भी नहीं है।
तीसरे मोर्चे के गठन की राह में तीसरी बडी बाधा है वामपंथी दलों का अनमनापन। एक समय वामपंथी दल ऐसी कवायद को लेकर बेहद उत्साहित और सक्रिय रहते थे, लेकिन अब ऐसे किसी उपक्रम में उनकी वैसी दिलचस्पी नहीं है। इसकी अहम वजह उनकी अपनी ताकत का पहले से काफी घट जाना है। अतीत में वाम दलों ने ही भाजपा की हिदुत्ववादी राजनीति की काट के रू प मे एक धर्मनिरपेक्ष गठबंधन की अवधारणा को आगे बढाया था। आर्थिक और दूसरे पहलुओं को लेकर भी तीसरे मोर्चे का एक अलग कार्यक्रम रहा। लेकिन धीरे-धीरे यह महज एक रणनीतिक गठबंधन बनकर रह गया। इसके पिछले संस्करणों को देखें तो यह विशुद्ध स्वार्थों का गठजोड रहा है। क्षत्रपों की निजी महत्वाकांक्षाएं ही उनके दलों को एक साथ खडा करती रही हैं। शायद इसीलिए यह कभी टिकाऊ और विश्वसनीय नही बन सका। अब तो नीतियों और कार्यक्रमों के स्तर पर भी तीसरे मोर्चे के संभावित दलों में ऐसी कोई भिन्नता नहीं बची है जो उन्हें कांग्रेस या भाजपा से अलग दिखाती हो या जो उन्हें तीसरे मोर्चे के गठन के लिए प्रेरित कर सके। तमाम क्षेत्रीय दल भी एक तरफ वंशवाद और व्यक्तिवाद के शिकार है और दूसरी तरफ उन्हीं आर्थिक नीतियो को आगे बढ़ाने मे लगे है जिनकी पैरोकारी करते कांग्रेस और भाजपा थकती नहीं हैं।
सवाल उठता है कि फिर तीसरा मोर्चा कैसे बनेगा? ज्यादा से ज्यादा वह चार-पांच-सात क्षेत्रीय दलो का राष्टीय मंच हो सकता है। पर ऐसा कोई भी मंच या मोर्चा कांग्रेस और भाजपा को चुनौती दे पाएगा, ऐसी कोई सूरत फिलहाल नजर नही आती। तीसरे मोर्चे के अधिकतर संभावित खिलाडी कभी न कभी कांग्रेस या भाजपा के पाले में शामिल रहे हैं। उनमें से कोई भी किसी भी बात पर नाराजगी के चलते छिटक कर अलग हो सकता है या फिर से कांग्रेस या भाजपा का दामन थाम सकता है। खुद मुलायम सिंह  इस मामले में बहुत संजीदा नही रहे हैं। एक समय उन्होंने कुछ क्षेत्रीय दलांे का गठजोड बनाया था। लेकिन अमेरिका से परमाणु करार के मसले पर वामपंथी दलों के यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद वे यूपीए सरकार को बचाने चले गए और अपने बनाए गठजोड को खुद उन्होंने ही पलीता लगा दिया। इसके बाद राष्टपति चुनाव और खुदरा क्षेत्र मे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) जैसे कई और मसले गिनाए जा सकते हैं जब उन्होंने अचानक अपना रुख बदल लिया। ऐसी साख लेकर वे तीसरा मोर्चा बना पाएंगे, इसमें संदेह की भरपूर गुंजाइश है। अगर वे अपनी इस कोशिश में कामयाब हो भी गए तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वह मोर्चा टिकाऊ साबित हो पाएगा।

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