Tuesday, September 24, 2013

मोदी के ढोल में पोल ही पोल

यह समय की बलिहारी ही है कि जिन नरेंद्र मोदी की कुर्सी को एक समय लालकृष्ण आडवाणी ने ढाल बनकर बचाया था उन्हीं नरेंद्र मोदी ने आज अपने सबसे बड़े सरपरस्त को 'बेचारा" बनाकर न सिर्फ पार्टी में बल्कि समूचे संघी कुनबे में लगभग अप्रासंगिक बना दिया है। यह भी समय का ही फेर है कि जिन नरेंद्र मोदी से छह साल पहले तक उनकी ही पार्टी के दिग्गज नजरें चुरा लिया करते थे, आज सब उन्हीं के नाम का कीर्तन करते हुए घूम रहे हैं। वर्ष 2007 में गुजरात में पार्टी लगातार दूसरी बार जीत दिलाने के बावजूद उन दिनों मोदी पर दंगों यानी मुसलमानों के जनसंहार का दाग इस कदर गहराया हुआ था कि सार्वजनिक बहस में भाजपा के ज्यादातर नेता बड़े शरमाते-सकुचाते हुए उनकी तरफदारी करते थे। पार्टी के संसदीय बोर्ड से उन्हें निकाल फेंका गया था। और तो और राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी अन्य तमाम संगठनों ने भी दंगों के दाग की वजह से तो नहीं लेकिन दूसरे अन्यान्य कारणों के चलते उनसे दूरी बना ली थी। समय का चक्का ऐसा घूमा कि उन्हीं नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के लिए संघ और उसके सहयोगी संगठनों ने पार्टी पर ऐसा दबाव बनाया कि पार्टी ने अपने 'लौह पुस्र्ष" आडवाणी और उनकी तमाम नसीहतों तक को धता बता दिया, जिनकी बहुचर्चित रथयात्रा के तूफान ने भाजपा को केंद्र समेत कई राज्यों में सत्ता का स्वाद चखाया था।
तीन महीने पहले गोवा में हुए पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान जिस तरह आडवाणी की नाराजगी भरी गैरमौजूदगी में पार्टी ने मोदी को अपना मुस्तकबिल मानते हुए उन्हें पार्टी की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष मनोनीत किया था, ठीक उसी तरह इस बार भी पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। आडवाणी ने इस बार भी अपना एतराज जताने में कोई झिझक नहीं दिखाई। शायद इसलिए कि उनके पास अब खोने को कुछ नहीं बचा है। वैसे भाजपा की अग्रिम पंक्ति के नेताओं में अरुण जेटली के अलावा शायद ही कोई होगा, जिसने संघ के दबाव में मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करने के राजनाथ सिंह के फैसले को राजी-खुशी स्वीकारा होगा। इन नेताओं में मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज से लेकर मध्य प्रदेश्ा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह तक सब शामिल हैं। दरअसल पार्टी के दोयम दर्जे के नेताओं और कार्यकर्ताओं में मोदी जितना उत्साह भरते हैं, पार्टी के बड़े नेताओं में उतना ही खौफ भी। गुजरात में पिछले 10-12 वर्ष का अनुभव उन्हें बताता है कि मोदी किसी को भी न तो अपने से बड़ा होने देते हैं और न ही अपने से आगे बढ़ने देते हैं।
बहरहाल, नागपुर की ओर से आडवाणी को उनकी हैसियत से रूबरू करा दिया गया है, इसीलिए तीन दिन की नाराजगी भरी खामोशी के बाद उन्होंने भी मन मारकर मोदी का नेतृत्व कुबूल कर लिया है। वैसे मोदी भी तो रथ से विरथ हुए आडवाणी के दिखाए रास्ते ही पर आगे बढ़ रहे हैं। अलबत्ता  जनसंघ-भाजपा में अपने पूर्ववर्ती शीर्ष नेताओं के मुकाबले मोदी के विचारों और अभिव्यक्ति में एक खास तरह की आक्रामकता और निरंकुशता के तत्व प्रभावी दिखते हैं। शायद इसलिए कि सन 2001 के बाद मोदी की राजनीतिक शख्सियत का निर्माण कॉरपोरेट क्रूरता और साम्प्रदायिक कट्टरता के नायाब रसायन से हुआ है। ऐसा रसायन, जिसे नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के दौर की संघ परिवारी-प्रयोगशाला में विकसित किया गया है। साफ है कि संघ और भाजपा ने किस उम्मीद में मोदी पर दांव लगाया है।
दरअसल, भाजपा में वाजपेयी-आडवाणी दौर युग की समाप्ति के बाद शुरू हुए मोदी युग की अहमियत महज उसके अल्पसंख्यक विरोध तक ही सीमित नहीं है, गुजरात में मोदी का शासन बड़े पूंजीपतियों और कारोबारियों को उपलब्ध कराई जा रही तमाम सेवाओं-सुविधाओं के लिए भी चर्चित है। गुजरात में तमाम बड़े औद्योगिक घरानों की सेवा में करोड़ों-अरबों स्र्पए की जमीन और अन्य संसाधन कौड़ियों के मोल समर्पित किए गए हैं। गत अप्रैल में आई नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में कॉरपोरेट घरानों पर की गई इसी बेजा मेहरबानी के लिए गुजरात सरकार की तीखी आलोचना की गई थी। सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि किस तरह कॉरपोरेट क्षेत्र के प्रति मोदी सरकार की दरियादिली के चलते राज्य के सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों को पांच सौ अस्सी करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा। उसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि किस तरह नियमों को ताक पर रखकर फोर्ड इंडिया और लार्सन एंड टूब्रो को जमीन दी गई और किस तरह अंबानी भाइयों, एस्सार स्टील और अडानी पॉवर लिमिटेड जैसी कंपनियों को दूसरे अनुचित फायदे पहुंचाए गए।   
बड़े औद्योगिक घरानों के प्रति खासे मेहरबान रहने वाले मोदी कहते भी हैं कि देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाना है तो सरकार को उद्योग-व्यापार के क्षेत्र में अपनी भूमिका खत्म करना होगी, क्योंकि यह काम उद्योग और व्यापार में लगे लोगों का है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार के कार्यकाल में देश को विनिवेश के नाम पर नए मंत्रालय की सौगात देने वाली भाजपा को मोदी के रूप में अर्थनीति के स्तर पर भी एक 'आदर्श" नेता मिला है। दक्षिणपंथी धारा में वे अपने ढंग के बिल्कुल नए नेता हैं। कुल मिलाकर वे साम्प्रदायिक कट्टरता और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के खतरनाक मिश्रण की नुमाइंदगी करते हैं। दिन-रात स्वदेशी और भारतीय संस्कृति का मंत्रोच्चार करने वाले संघ परिवार को निश्चित ही इससे कोई गुरेज नहीं है। हालांकि मोदी का कॉरपोरेट प्रेम एकतरफा नहीं है बल्कि यह परस्पर 'लेन-देन" पर आधारित है। एक ओर मोदी जहां दिग्गज उद्योगपतियों पर मेहरबानियां लुटाते हैं, वहीं बदले में वे उद्योगपति और उनके द्वारा पोषित मीडिया संस्थान भी उनके प्रधानमंत्री बनने की कामना करने में कोई संकोच नहीं करते हैं। कहा जा सकता है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवाने से पहले संघ के नागपुरी नेतृत्व ने मोदी पर उमड़ने वाले उद्योगपतियों के इस प्रेम पर भी निश्चित ही गौर फरमाया होगा।
मोदी को जिस तरह से विकास-पुस्र्ष बताया जा रहा है और भाजपा की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष मनोनीत होने के बाद पिछले तीन महीने से नरेंद्र मोदी जिस आक्रामकता से देशभर में गुजरात के अपने विकास मॉडल की मार्केटिंग कर रहे हैं, उसकी असलियत भी उसी तेजी से सामने आ रही है। मानव विकास सूचकांक के कई जरूरी मानदंडों पर मोदी का गुजरात देश के औसत सूचकांक से भी पीछे है। तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मिजोरम और मणिपुर जैसे राज्य उससे बहुत आगे हैं। उसकी कथित विकास दर की कहानी की हकीकत भी सामने आ चुकी है कि किस तरह सन 1980-99 के दौर में भी गुजरात अन्य कई राज्यों से आगे था। पर आज देश के कई राज्यों की विकास दर की उछाल उससे बहुत ज्यादा है।
इन ठोस तथ्यों के उजागर होने के बाद ही मोदी ने विकास की उथली नारेबाजी के साथ-साथ फिर से उग्र हिंदुत्व को सबसे भरोसेमंद अस्त्र के रूप में अपना लिया है। ऐसा लगता है कि अगले चुनाव में संघ और मोदी का ज्यादा जोर कट्टर हिंदुत्व और खास तरह की सोशल इंजीनियरिंग के मिले-जुले एजेंडे पर होगा। यह महज संयोग नहीं कि बिहार और उत्तर प्रदेश में मोदी को सामाजिक न्याय आंदोलन से जोड़ने की कोशिश की गई है। इस भौंडे अभियान में बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी और प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नंदकिशोर यादव को खासतौर पर लगाया गया है। बिहार के गांवों में, खासकर पिछड़ी जातियों के बीच सभाओं-रैलियों के जरिए प्रचारित किया जा रहा है कि मोदी पिछड़ी जाति के पहले ऐसे नेता होंगे, जो प्रधानमंत्री बनेंगे। जाहिर है, संघ परिवार के शीर्ष नेतृत्व की इजाजत के बगैर इस तरह का अभियान नहीं चलाया जा सकता। जहां मोदी को पिछड़ा (ओबीसी) बताने से वोट मिल सकते हैं, वहां भाजपा पिछड़े वर्ग की राजनीति करेगी, जहां अगड़ों को गोलबंद करना होगा, वहां वह आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बवाल कराने से भी गुरेज नहीं करेगी। इलाहाबाद और आसपास के इलाकों में पिछले दिनों हुआ हिंसक हंगामा इसका सबूत है।
एक विदेशी समाचार एजेंसी को दिए साक्षात्कार में पिछले दिनों नरेंद्र मोदी ने अपना राजनीतिक परिचय पूछे जाने पर बताया कि वे 'हिंदू-राष्ट्रवादी" हैं। उन्होंने अपना परिचय एक भारतीय बता कर नहीं दिया। भारतीय हिंदू या राष्ट्रवादी हिंदू भी नहीं कहा, हिंदू राष्ट्रवादी कहा। राष्ट्रवादी हिंदू और हिंदू राष्ट्रवादी का फर्क समझा जा सकता है। मोदी और उनकी पार्टी अक्सर अमेरिका और यूरोपीय देशों के विकास मॉडल की तारीफ करते नहीं थकते। उनसे पूछा जाना चाहिए कि दुनिया के किस पूंजीवादी मुल्क या किस समृद्ध-खुशहाल जनतांत्रिक देश का बड़ा नेता अपनी राष्ट्रीयता से पहले अपने धर्म का उल्लेख करता है? लेकिन मोदी एक खतरनाक विरासत के वाहक हैं। उन्होंने अपनी पार्टी के आदर्श राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्र्रपतियों की तरह अपनी राष्ट्रीयता को सर्वोपरि नहीं माना, सबसे पहले अपने धार्मिक विश्वास को चिह्नित करते हुए अपना परिचय दिया।
इसी साक्षात्कार के दौरान ही मोदी ने 2002 के गुजरात दंगों में मारे गए अल्पसंख्यक समुदाय के हजारों लोगों के बारे में पूछे एक सवाल के जवाब में कहा था कि वे गाड़ी में पीछे बैठें हों और चलती गाड़ी के नीचे कुत्ते का बच्चा आ जाए, तो भी उन्हें दुख होगा। कुछ मोदी-भक्तों को गुजरात के मुख्यमंत्री के इस वाक्य में स्वाभाविक मानवीय करुणा नजर आई। लेकिन कोई भी निष्पक्ष और विवेकवान व्यक्ति जब मोदी के जवाब को पत्रकार द्वारा पूछे सवाल के संदर्भ में देखेगा तो अल्पसंख्यकों के प्रति उनके खास रवैये का आसानी से अहसास हो जाएगा। अपने इसी खास रवैये या अल्पसंख्यक विरोधी मानसिकता के चलते ही गुजरात में हजारों मुसलमानों के कत्लेआम के लिए सूबे के मुखिया के तौर पर नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मोदी ने आज तक माफी मांगना तो दूर, खेद भी नहीं जताया है।
इस साक्षात्कार के बाद महज तीन दिन बाद ही नरेंद्र मोदी ने चौदह जुलाई को पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में छात्रों-युवाओं को बीच कांग्रेस और यूपीए सरकार को जमकर कोसा। उनके भाषण के एक खास वाक्य को ज्यादातर अखबारों और टीवी चैनलों ने अपनी सुर्खी के तौर पर पेश किया। वह वाक्य था- 'संकट में फंसने पर कांग्रेस पार्टी सेक्युलरिज्म का बुर्का ओढ़ लेती है।" मोदी चाहते तो अपनी बात को ज्यादा संयत-शालीन तरीक से भी कह सकते थे। पर कांग्रेस और सेक्युलरिज्म के साथ उन्होंने बुर्का शब्द जोड़ा ताकि दोनों को एक खास प्रतीकात्मक ढंग से जोड़ा जा सके। यही नहीं, उन्होंने कांग्रेस और बुर्के के साथ बंकर का भी जिक्र किया। यानी उन्होंने गलतफहमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। एक समुदाय विशेष के पहनावे को प्रतीक बना कर उन्होंने उसका रिश्ता एक सामरिक प्रतीक से जोड़ने की कोशिश की, आतंकवाद की तरफ इंगित करने के लिए। समाज के कुछ हिस्सों में उत्तेजना और विवाद पैदा करने के लिए यह उन्हें जरूरी लगा होगा।
ताज्जुब की बात है कि यह एक निर्वाचित मुख्यमंत्री की भाषा है, जिसे उसकी पार्टी ने देश के प्रधानमंत्री पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाया है। वैसे मोदी के लिए यह कोई नई बात नहीं है। वे जानबूझ कर राजनीतिक शिष्टाचार, प्रोटोकॉल और सभ्य सामाजिक मूल्यों की अवहेलना करते रहते हैं। वे जिस तरह पचास करोड़ की गलफ्रेंड, कुत्ते का बच्चा, हिंदू राष्ट्रवादी, सेक्युलरिज्म का बुर्का, या आबादी बढ़ाने वाली मशीन जैसे जुमलों का इस्तेमाल करते आ रहे हैं, वे उनके राजनीतिक व्यक्तित्व के खास पहलू की तरफ इंगित करते हैं। इस तरह के के ढेर सारे उनके जुमले यह साबित करने के लिए काफी हैं कि राजनीतिक संवाद में वे हमेशा असहज रहते हैं और आए दिन सामाजिक शिष्टाचार की मर्यादा लांघते रहते हैं।
संघ-भाजपा परिवार भले ही मोदी को अपना मुस्तकबिल मान चुका हो लेकिन हकीकत यही है कि मोदी अपनी ही दक्षिणपंथी राजनीतिक धारा के पुरखों दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी या लालकृष्ण आडवाणी की तरह व्यवस्थित सोच-विचार वाले नेता नहीं हैं। भाषा में सांप्रदायिक विद्वेष भरी चुटकलेबाजी करते हुए वे हमेशा सहज मानवीय मूल्यों के भी खिलाफ खड़े दिखते हैं।  उनकी वाणी और व्यवहार में गंभीरता और मानवीयता कहीं नजर नहीं आती। वे अपनी वाचालता, राजनीतिक उथलेपन और शब्दों की बाजीगरी से भीड़ की तालियां और वाहवाही तो बटोर सकते हैं लेकिन मौजूदा जटिल वैश्विक परिदृश्य में भारत जैसे महादेश की अगुआई कतई नहीं कर सकते।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त देश की जनता यूपीए या यूं कहें कि कांग्रेस की सरकार से बेहद निराश है। इसलिए प्रमुख विपक्षी पार्टी के नेता के तौर पर मोदी को पूरा हक है कि वे जनता से कांग्रेस को सबक सिखाने और उसे हराने की अपील करे, लेकिन वे तो देश को कांग्रेस-मुक्त भारत बनाने का आह्वान जनता से करते हैं। वामपंथी दलों को भी वे अपना राजनीतिक विरोधी नहीं बल्कि देशद्रोही बताते हैं। विविधता से भरे इस महादेश में मोदी का यह संकीर्ण राजनीतिक सोच क्या हमारे विकासशील जनतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा नहीं है?
लेकिन लगता है मोदी अपने इन्हीं जुमलों को अपना यूएसपी मानते हैं और उन्हें संस्कारित-दीक्षित करने वाले संघ और उसके परिवारजनों को भी शायद मोदी की यही शब्दावली खूब भाती है और उन्हें लगता है कि इसी के दम पर मोदी कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक भाजपा के पक्ष में लहर पैदा कर देंगे। लेकिन इस खुशफहमी के बीच एक पहलू पर संघ के रणनीतिकारों ने जरा भी गौर नहीं किया है, वह है गुजरात के बाहर मोदी के कथित करिश्मे के ढोल की पोल। कॉरपोरेट मीडिया द्वारा मोदी के नाम पर खूब जोर-जोर से पीटे जा रहे ढोल-नगाड़ों के बावजूद गुजरात के बाहर देश के विभिन्न् इलाकों में हुए चुनावों में मोदी अंतत: एक क्षेत्रीय नेता के तौर पर ही सामने आए हैं। महज चार महीने पहले हुए कर्नाटक के विधानसभा चुनाव को ही देखें। किसी न किसी विवादों में लिप्त कॉरपोरेट सम्राटों और भगवा वस्त्रधारियों बाबाओं-स्वामियों के एक हिस्से ने मोदी को जबसे प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे काबिल व्यक्ति  घोषित किया है, उसके बाद यह पहला मौका था उनकी इस कथित काबिलियत के इम्तिहान का। लेकिन कर्नाटक के नतीजों से साफ है कि वे इस इम्तिहान में बुरी तरह फेल हो गए।  
कर्नाटक चुनाव में मोदी की तीन रैलियां उन इलाकों में रखी गई थीं, जो भाजपा के गढ़ माने जाते थे। पहली रैली बेंगलुरु में थी, जहां कुल 28 सीटें हैं, जिनमें से भाजपा ने पिछले चुनाव में 17 जीती थीं। लेकिन इस बार वह दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर सकी। दो अन्य रैलियां तटीय कर्नाटक में हुईं, जिनमें से एक उड़ुपी और दूसरी बेलगाम में हुई। दक्षिण कन्न्ड़ जिले की कुल आठ में से एक भी सीट भाजपा के खाते में नहीं आई और उडुपी की पांच में से भाजपा को महज एक पर कामयाबी मिली। यह थी भाजपा के चुनावी शुभंकर और स्टार प्रचारक की उपलब्धि। लेकिन कॉरपोरेट जगत और मीडिया के एक हिस्से का उनके प्रति भक्ति-भाव देखिए कि कर्नाटक की शिकस्त को किसी ने मोदी की शिकस्त नहीं कहा। अगर नतीजे विपरीत आए होते यानी किसी करिश्मे से भाजपा जीत जाती तो यही मीडिया मोदी के प्रशस्ति-गान में जमीन-आसमान एक कर देता।
वैसे यह कोई पहला मौका नहीं था कि मोदी गुजरात के बाहर चूके हुए कारतूस साबित हुए। जब-जब मोदी गुजरात के बाहर गए या पार्टी ने उन्हें इसका जिम्मा सौंपा, वे अपनी तमाम लफ्फाजियों के बावजूद बेअसर साबित हुए। पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें महाराराष्ट्र, गोवा और दमन-दीव की जिम्मेदारी दी गई थी, लेकिन इन राज्यों में भाजपा को उम्मीद के मुताबिक कामयाबी नहीं मिली। और तो और गुजरात में भी 2009 के चुनाव में कांग्रेस की तुलना में भाजपा महज दो सीटों पर आगे थी। गुजरात की तुलना में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी को अच्छी कामयाबी मिली जहां मोदी प्रचार के लिए नहीं गए थे या उन्हें बुलाया नहीं गया था। पिछले साल हुए उत्तराखंड विधानसभा के चुनाव को भी देखें, जब मोदी ने पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की इच्छा को ठुकराते हुए चुनाव प्रचार में हिस्सा नहीं लिया था। मोदी की अनुपस्थिति के बावजूद भाजपा ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी और वह महज दो सीटों से कांग्रेस से पिछड़ गई। ऐसा नहीं कि पांच साल में पार्टी की हालत वहां बहुत बेहतर थी। इस दौरान उसे तीन बार मुख्यमंत्री बदलने पड़े थे। उत्तराखंड के बाद हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भी मोदी का करिश्मा नहीं चल पाया। वहां भी मोदी के प्रचार करने बावजूद भाजपा को सत्ता से बेदखल होना पड़ा।  
इस सिलसिले में बिहार का जिक्र करना भी लाजिमी होगा जहां पिछले कुछ वर्षों में पार्टी ने अपने जनाधार में लगातार बढ़ोतरी की है और सीटें भी बढ़ाई हैं। वहां मोदी कभी भी चुनाव प्रचार के लिए नहीं गए बल्कि जनता दल (यू) के एतराज के चलते उन्हें बुलाया ही नहीं गया। वहां पिछले चुनाव की तैयारी के दौरान खुद सुषमा स्वराज ने तो यह कह कर सभी को चौंका भी दिया था कि मोदी का मैजिक हर जगह नहीं चलता है। इसी के बरक्स 2011 में हुए असम के चुनाव में मोदी की मौजूदगी ने पार्टी को नाकामी के नए मुकाम पर पहुंचा दिया। वहां उसकी सीटें पहले से आधी हो गईं । यह शायद संघ के एजेंडे का ही प्रभाव था कि असम में ऐसे ही लोगों को चुनाव प्रभारी या स्टार प्रचारक के तौर पर भेजा गया जिनकी छवि उग्र हिंदुत्व की रही है। संघ-भाजपा की पूरी कोशिश थी कि असम में सांप्रदायिक सद्भाव को  पलीता लगा दिया जाए ताकि होने वाला ध्रुवीकरण उसके फायदे में रहे। चुनाव में स्टार प्रचारक के तौर पर हिंदुत्व के पोस्टर बॉय नरेंद्र मोदी की ड्यूटी लगाई गई थी, जिन्होंने कई स्थानों पर सभाओं को संबोधित किया था। मोदी की इस विफलता ने 2007 के उत्तर प्रदेश चुनावों की याद ताजा कर दी थी, जिसमें उन्हें स्टार प्रचारक के तौर पर उतारा गया था। याद रहे कि यह वही चुनाव था, जब वहां भाजपा चौथे नंबर पर पहुंच गई थी। जहां मोदी की सभाएं हुई थीं, उनमंे  ज्यादातर स्थानों पर भाजपा को शिकस्त मिली थी। गुजरात के बाहर बार-बार चूका हुआ कारतूस साबित हुए मोदी को 2014 के लिए अपना चुनावी शुभंकर और प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर संघ-भाजपा ने एक बड़ा जुआ खेला है। संघ प्रमुख मोहन भागवत भाजपा पर संघ का नियंत्रण मजबूत करके इस समय जरूर हौले-हौले मुस्करा रहे हैं लेकिन जुए में दांव हारने पर उन्हें निश्चित ही आडवाणी की नसीहतें याद आएंगी।
          

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