Thursday, September 25, 2014



इसे भाषाई नस्लभेद न कहें तो क्या कहें?
अनिल जैन
भाषा की गुलामी बाकी तमाम गुलामियों में सबसे बड़ी गुलामी होती है। दुनिया में जो भी देश परतंत्रता से मुक्त हुए हैं, उन्होंने सबसे पहला काम अपने सिर से भाषाई गुलामी के गठ्ठर को उतार फेंकने का किया है। यह काम रूस में लेनिन ने, तुर्की में कमाल पाशा ने, इंडोनेशिया में सुकर्णो ने और एशिया, अफ्रीका तथा लातिन-अमेरिकी देशों के दर्जनों छोटे-बड़े नेताओं ने किया है। लेकिन भारत में जैसा भाषाई पाखंड जारी है, वैसा कहीं और देखने-सुनने में नहीं आता। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्घ तक गुलाम रहे देशों में भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जो अपनी आजादी के लगभग साढ़े छह दशक बीत जाने के बाद भी भाषाई लिहाज से किसी भी मौजूदा गुलाम देश से ज्यादा गुलाम है। यह नंगी हकीकत केंद्रीय लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षाओं के मौजूदा स्वरूप के विरोध में शुरू हुए छात्रों के आंदोलन के परिपेक्ष्य में एक बार फिर पूरी शिद्दत से उजागर हुई है। इस आंदोलन ने देश के शासक वर्ग यानी नौकरशाहों, कारपोरेट क्षेत्र से जुड़े लोगों, अभिजात वर्ग के राजनेताओं और कुछ अंगरेजीदां बददिमाग शिक्षाविदों को बुरी तरह परेशान कर दिया है। उन्हें अपनी इस लाडली भाषा के वर्चस्व के लिए हर बार की तरह इस बार भी खतरा पैदा होता दिखाई दे रहा है। अंगरेजी के बरक्स हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं की बात करने वालों को उसी तरह हिकारत से देखा जा रहा है जैसे कि कई यूरोपीय मुल्कों में अश्वेत लोगों को देखा जाता है। यह एक किस्म का भाषाई नस्लभेद है।
दरअसल, यूपीएससी की परीक्षा के स्वरूप को लेकर उमड़ा विरोध न तो हिंदी की तरफदारी में है, न अंगरेजी के विरोध में, बल्कि यह संघर्ष सभी भारतीय भाषाओं का पक्षधर है और अंगरेजी के दबदबे के खिलाफ है। अंगरेजी मीडिया और अंगरेजी समर्थक यह बात समझ ही नहीं पा रहे हैं कि हिंदी-हिमायती या अंगरेजी-विरोधी हुए बगैर भी कोई भाषायी गैर-बराबरी का सवाल उठा सकता है। अंगरेजी का अंध हिमायती यह तबका चीख-चीख कर यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि अंगरेजी ही देश की संपर्क भाषा है और उसके बगैर देश का काम नहीं चल सकता। यह भी कहा जा रहा है कि यदि अंगरेजी के प्रति नफरत का वातावरण बनाया गया तो यह देश टूट जाएगा। लेकिन हकीकत यह है कि आंदोलनकारी छात्रों और उनके समर्थन में आवाज उठा रहे लोगों का विरोध अंगरेजी से नहीं है, बल्कि वे तो महज यूपीएससी की परीक्षा में अंगरेजी दबदबा खत्म करने की मांग कर रहे हैं। यूपीएससी की इन भर्ती-परीक्षाओं में अंगरेजी का इतना बोलबाला है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से पास होनेवाले छात्रों की संख्या लगातार घटती जा रही है। पिछले साल यानी 2013 में कुल 1122 लोग चुने गए थे, जिनमें से सिर्फ 26 हिंदी वाले थे। शेष सभी भारतीय भाषाओं के सिर्फ 27 लोग चुने गए। यानी किसी भाषा के सिर्फ एक-दो आदमी सरकारी नौकरी में भर्ती हुए और किसी भाषा के एक भी नही! क्या दुनिया के किसी और आजाद मुल्क में कभी ऐसा होता है या ऐसा होना मुमकिन है? भारत की यह स्थिति तो गुलाम मुल्कों से भी बदतर नहीं है क्या?
दरअसल, यह मामला सिर्फ हिंदी का नही, बल्कि समूची भारतीय भाषाओं के स्वाभिमान और सम्मान का है। यह सवाल बहुत पुराना है कि सरकारी नौकरियों की भर्ती-परीक्षाएं सिर्फ अंगरेजी में ही क्यों होती है, भारतीय भाषाओ में भी क्यों नहीं? इसको लेकर संसद में भी कई बार बहस हो चुकी है। मसले के हल के लिए एक के बाद एक कई आयोग बने। धीरे-धीरे यूपीएससी की परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को छूट भी मिली लेकिन अंगरेजी की दमघोंटू अनिवार्यता अभी तक बनी हुई है। इसी अनिवार्यता ने अब छात्रों को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर किया है। ऐसा नहीं है कि यह आंदोलन सिर्फ दिल्ली मे हो रहा है। हैदराबाद, चेन्नई, बेंगलूरु तथा अन्य सूबों की राजधानियों मे भी काफी सुगबुगाहट है। छात्रों के इस आंदोलन का लक्ष्य सीमित है। यह केवल यूपीएससी की भर्ती परीक्षा में 'सीसैट' के प्रश्न-पत्र को हटवाना चाहता है।
आखिर यह 'सीसैट' क्या बला है? यह सिविल सेवा में भर्ती की प्रारंभिक परीक्षा का अंग्रेजी नाम है। इसका पूरा नाम है- 'सिविल सर्विसेज़ एप्टीट्‌यूड टेस्ट'। यानी सरकारी नौकरियों मे भर्ती होने वालों के बौद्धिक रुझान, मानसिक स्तर, सामान्य ज्ञान आदि की परीक्षा! इस प्रारंभिक परीक्षा का उद्देश्य अच्छा है लेकिन इस प्रश्न-पत्र में तकनीकी, वैज्ञानिक, गणितीय और व्यावसायिक प्रश्नों की भरमार रहती है। इसकी वजह से जो छात्र इन्हीं विषयों को पढ़कर आते हैं, वे तो उन प्रश्नों को आसानी से हल कर देते हैं लेकिन जो छात्र कला, समाजविज्ञान और मानविकी संकायों से आते हैं, वे उन प्रश्नों को देखकर बगले झांकने लगते हैं। कुल मिलाकर सीसैट प्रश्न-पत्र  का मूल चरित्र ही सवालों के घेरे में है। इसके अलावा इस प्रश्न-पत्र में जो सवाल हिंदी मे पूछे जाते हैं, वह हिंदी मौलिक नहीं होती है बल्कि वह अंगरेजी का भ्रष्ट और घटिया अनुवाद होता है, जो छात्रों की नहीं, बल्कि यूपीएससी के कर्ताधर्ताओं की समझ से भी परे होता है। यही मूल समस्या है।
जब परीक्षा में पूछे गए सवाल ही छात्रों के पल्ले नहीं पड़ेंगे तो वे उनका जवाब क्या देंगे? इसके अलावा 200 नंबरों के दो प्रश्नपत्रो में 22 नंबर के सवाल अंग्रेजी में होते है। उनके जवाब भी अंग्रेजी में देने होते हैं। इन 20-22 नंबरों का घाटा जिन छात्रों को होता है, वे तो फिजूल में ही मारे जाते हैं। भर्ती-परीक्षा में तो एक-एक नंबर छात्रों के भविष्य के लिए कीमती होता है। सवाल है कि आप उनकी योग्यता, कार्यक्षमता और बौद्धिक रुचि की परीक्षा ले रहे हैं या यह जानने की कोशिश कर रहे है कि परीक्षार्थी अंगरेजी की रटंत-विधा में पारंगत है या नही? अंगरेजी की रटंत-विधा से पैदा हुई नौकरशाही ने आजाद भारत में क्या गुल खिलाए है, यह किसी से छिपा नहीं है। इसीलिए यह मामला सिर्फ 'सीसैट' के प्रश्न-पत्र  का नहीं, बल्कि समूचे देश की शासन-व्यवस्था का है। यदि सरकारी कामकाज में अंग्रेजी छाई हुई है तो आप उसे भर्ती-परीक्षा से कैसे हटा सकते हैं? अभी तक की सभी सरकारों ने इस मजबूरी के सामने घुटने टेके है। नरेंद्र मोदी की सरकार भी इस मामले में अपवाद साबित होते नहीं दिखाई दे रही है।
यूपीएससी की परीक्षाओं से सीसैट के प्रश्न-पत्र को हटवाने के लिए जारी छात्रों का संघर्ष नया नहीं है। इस सिलसिले में देश के सभी भारतीय भाषाओं के छात्र लंबे समय से आंदोलनरत हैं। आम चुनाव में पहले तक भाजपा के तमाम नेता आंदोलनरत छात्रों की इस मांग का समर्थन करते थे, लेकिन सत्ता में आने के बाद उनके सुर बदल गए हैं। मोदी सरकार ने छात्रों की मांगों पर सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाने के बजाय पहले तो उनके प्रति उदासीनता दिखाई और जब आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया तो पुलिस के जरिए उनके दमन का रास्ता अपनाया। जब मामला संसद में गरमाया और लगभग सभी विपक्षी दलों ने छात्रों की मांगों के समर्थन में आवाज उठाई तो सरकार ने मामले का समाधान सुझाने के लिए एक कमेटी बैठा दी। कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में यूपीएससी के सुर में सुर मिलाते हुए कह दिया कि न तो सीसैट की परीक्षा तिथि आगे बढ़ाई जा सकती है और न ही सीसैट के मौजूदा स्वरूप में बदलाव किया जा सकता है। यह भी दलील दी गई कि अगर ऐसा कुछ किया तो कई छात्र यूपीएससी के खिलाफ अदालत में जा सकते हैं। अगर भाजपा ने सत्ता में आते ही इस दिशा में संजीदगी दिखाई होती और  सार्थक पहल की होती तो वह यूपीएससी को आवश्यक दिशा-निर्देश दे देती, जिससे छात्रों को प्रवेश-पत्र ही वितरित नहीं होते। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और सवाल उठने पर दलील दी कि वह यूपीएससी स्वायत्तता में कोई दखलंदाजी नहीं करना चाहती।
अब अगर तकनीकी कारणों से सीसैट को इस समय नहीं हटाया जा सकता है तो कम से कम इसके स्वरूप में तो बदलाव किया ही जा सकता है। ऐसा नया प्रश्न-पत्र तैयार किया जा सकता है, जिसमें प्रबंधन और तकनीकी विषयों के साथ-साथ कला, समाजविज्ञान और मानविकी संकायों के विषयों से भी समान अनुपात में प्रश्न हों। ऐसा करने पर प्रत्येक विषय के छात्र की काबिलियत और क्षमता का मूल्यांकन हो सकेगा। प्रशासनिक क्षेत्र के अधिकारियों को क्या भारत के इतिहास, भूगोल और सांस्कृतिक बहुलता की बुनियादी समझ नहीं होना चाहिए? क्या सरकार और यूपीएससी के कर्ता-धर्ता यह चाहते हैं कि सिविल सेवा परीक्षा पास करने वाले ऐसे अधिकारी बनें जो बिहार में जाकर तक्षशिला के बिहार में होने जैसा बयान दें।
यह समझ से परे है कि मूल प्रश्न-पत्र अंगरेजी में तैयार करने और फिर उसका अनुवाद करने की बात क्यों की जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के तमाम नेता हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विकास के लिए अपनी प्रतिबद्धता जताते रहे हैं। ऐसी स्थिति में यूपीएससी की सिविल सेवाओं की परीक्षाओं के प्रश्न-पत्र मूलतः अंगरेजी में ही तैयार करने की जिद क्यों? यूपीएससी के कामकाज से बड़ी तादाद में नौजवानों का भविष्य जुड़ा है और भारत के लोक-प्रशासन का भी।
उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने वाले छात्रों की सफलता की तादाद पहले लगातार बढ़ रही थी, जो कि सीसैट शुरू होने के बाद से कम हो रही है। बाजार आधारित आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद निजी क्षेत्र में जिस तरह आकर्षक रोजगारों के दरवाजे खुले, उसकी वजह से महानगरों और दूसरे बड़े शहरों के कई नौजवान, जो पहले शायद केंद्रीय सेवाओं की ओर आकर्षित होते थे, वे प्रबंधन या निजी आर्थिक संस्थानों की ओर मुड़ने लगे। इसी तरह, कस्बाई और ग्रामीण नौजवानों के लिए भी शैक्षणिक अवसर और जानकारी के जरिये बढ़े, इसलिए उनमें केंद्रीय सेवाओं मे आने की महत्वाकांक्षा पैदा हुई। ये लड़के- लड़कियां प्रतिभा, ज्ञान और परिश्रम में किसी से कम नहीं थे, लेकिन उनकी अंगरेजी उतनी अच्छी नही थी, जितनी महानगरों के अभिजात शिक्षण संस्थानों में पढ़े रईसजादों की थी।
कई सर्वेक्षणों ने यह साबित किया है कि यूपीएससी की परीक्षाओं मे बैठने वाले और चुने जाने वाले छात्रों का वर्ग चरित्र बदल रहा है और उनमें ग्रामीण या कस्बाई पृष्ठभूमि के प्रत्याशी तेजी से बढ़ रहे है। यह इस मायने में अच्छा है कि अब केद्रीय सेवाएं भारतीय विविधता का बेहतर प्रतिनिधित्व करती हैं। मौजूदा माहौल में केंद्रीय सेवाओं में किसी अफसर को अंगरेजी का ठीक-ठाक ज्ञान होना जरूरी है, लेकिन वह अंग्रेजी में पूरी तरह पारंगत हो, यह कतई जरूरी नहीं। यह परिवर्तन समाज की बेहतरी के लिए था, इसलिए अगर सीसैट नामक बला ने इसमें बाधा पैदा की है, तो उसे क्यों नहीं हटा देना चाहिए? सीसैट के खिलाफ आंदोलनरत छात्रों के प्रति सरकार और यूपीएससी के हठी रवैये का देश की जनता की दृष्टि से क्या मतलब निकाला जाए? यही कि देश के बहुसंख्य लोग ऐसे हैं जिनके करोड़ों बच्चों का शासन-संचालन से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि ये लोग अपने बच्चों को अंगरेजी माध्यम के महंगे स्कूलों में नहीं पढ़ा सकते। आला दर्जे की सरकारी नौकरियों पर सिर्फ मुट्‌ठीभर शहरी, धनवान, ऊंची जातियों और अंग्रेजीदां लोगों का कब्जा बना रहेगा सवाल है कि देश के गरीब, ग्रामीण, वंचित और पिछड़े तबके के लोग कथित रूप से बचपन में चाय बेचने वाले नरेंद्र मोदी के राज मे भी क्या वैसे ही रहेगे, जैसे अंग्रेजों के जमाने थे?
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