Friday, December 23, 2011

क्योंकि तब बात दूर तलक जाएगी!


पिछले कुछ समय से देश में काले धन का मुद्दा खासा चर्चा में है। लेकिन चर्चा सिर्फ विदेशों के बैंकों में जमा काले धन की ही हो रही है। देश में जमा काले धन और उसके स्रोतों का कहीं जिक्र नहीं हो रहा है। देश को आजादी मिलने के बाद से लेकर आज तक आर्थिक मोर्चे पर जिन गंभीर समस्याओं से मुकाबिल होना पड़ रहा है और उनके लिए जो महत्वपूर्ण कारण गिनाए जा सकते हैं, उनमें एक है काला धन। हालांकि समय-समय पर इस समस्या से निजात पाने के उपाय भी किए जाते रहे हैं लेकिन समस्या लगातार बढ़ती गई है। यानी मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की। इसकी बड़ी वजह रही राजनीतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति का अभाव। सार्वजनिक जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो काले धन की बीमारी से बचा हो। रिश्वतखोरी के अलावा हवाला, तस्करी, कर चोरी का भी अवैध धन के उत्पादन में कम योगदान नहीं है। इस तरह देश के संसाधनों और आम लोगों की मेहनत की कमाई को लूटने का खेल बेहद संगठित तौर पर यों तो देश की आजादी के बाद से ही खेला जा रहा है लेकिन दो दशक पूर्व लागू हुई नव उदारीकरण की अर्थनीति के बाद इस खेल में हैरान करने वाली तेजी आई है। इस तरह के हथकंडों से अर्जित धन को छिपा कर या बेनामी या फर्जी नामों से रखा जाता है। इस धन का काफी बड़ा हिस्सा विदेशों के उन बैंकों में भी जमा होता रहा है जो खाताधारी की पहचान गुप्त रखने की गारंटी देते हैं। स्विट्‌जरलैंड के कुछ बैंक इस मामले में दुनिया भर में बदनाम हैं लेकिन अब कई और देशों में भी यह 'सुविधा' उपलब्ध है।
 कुछ दिनों पहले एक अमेरिकी संस्था 'ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी' ने भारत के बारे में 1948 से 2008 तक की स्थिति पर जारी अपनी एक शोध रिपोर्ट में कहा है कि आजादी के बाद से भारत को कर चोरी और भ्रष्टाचार के जरिए अब तक 21 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है तथा 1991 के बाद भारत ने जिस तेजी से आर्थिक प्रगति की है, उतनी ही तेजी से भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। कुछ समय पहले स्विस बैंक  एसोसिएशन ने भी अपनी एक रिपोर्ट में इस तथ्य की पुष्टि की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक काला धन जुटाने के मामले में भारत दुनिया भर में सबसे अव्वल है और उसका कुल 65,223 अरब स्र्पए का काला धन स्विस बैंकों में जमा है। जबकि दुनिया के सबसे अमीर देश अमेरिका का स्थान इस मामले में काफी पीछे है। जाहिर है कि यह स्थिति किसी देश की समृध्दि को नहीं बल्कि वहां की आर्थिक लूट, अवैध धंधों के फलने-फूलने और कर चोरी के पैमाने को बताती है। यह तथ्य भी गौरतलब है कि आजादी के बाद से जो काला धन भारत से बाहर गया उसमें से आधे से ज्यादा पिछले 15 वर्षों के दौरान गया है। इस अवधि में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन की भी केंद्र में सरकार रही है। लेकिन उसने भी इस सिलसिले को रोकने की दिशा में कुछ नहीं किया, पिछले लोकसभा चुनाव में इसे उसने मुद्दा बनाने की कोशिश भले ही की हो। पिछले कुछ दिनों से यह मांग फिर जोर पकड़ रही है कि देश का जो काला धन देश के बाहर के बैंकों में जमा है उसे वापस लाया जाए। लेकिन इस बारे में सरकार के रवैये से आम लोगों में अगर यह धारणा गहरे तक घर चुकी है कि विदेशों में जमा काले धन को वापस देश में लाने में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है और सुप्रीम कोर्ट भी इसी तरह का अंदेशा जाहिर कर चुका है तो यह स्वाभाविक ही है।
 विदेशों में जमा काले धन के सवाल पर हाल ही में लोकसभा में विपक्ष के काम रोको प्रस्ताव पर हुई निरर्थक बहस से भी इस बात की पुष्टि हुई है। लगभग छह घंटे तक चली इस बहस में न तो विपक्ष की ओर से कोई नई बात कही गई और न ही सरकार की ओर से। दोनों ओर से वही सब कहा गया जिसे सुनते-सुनते लोगों के कान पक गए हैं। संसद में भारतीय जनता पार्टी  के प्रथम पुरुष लालकृष्ण आडवाणी के लंबे भाषण में वे ही सब बातें थीं, जो वे कालेधन के मुद्दे पर हाल ही में संपन्न अपनी देशव्यापी जनचेतना रथयात्रा के दौरान जगह-जगह पर कह रहे थे। सत्ता पक्ष की ओर से वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने भी उम्मीद के मुताबिक ऐसा कुछ नहीं कहा, जिसे नया कहा जा सके। अंतरराष्ट्रीय संधियों का हवाला देते हुए विदेशों में काला धन जमा करने वाले खातेदारों के नाम सार्वजनिक करने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने विदेशों में जमा काले धन पर जल्द ही एक श्वेत पत्र लाने की बात कही जो कि पहले भी कही जा चुकी है। कहा जा सकता है कि इस मुद्दे पर विपक्ष की ओर से काम रोको प्रस्ताव के तहत सरकार को बहस के लिए बाध्य करना एक तरह से महज रस्म अदायगी थी, देश को यह दिखाने के लिए कि देखो, विपक्ष इस सवाल पर कितना गंभीर है।
 अगर ऐसा नहीं होता तो बहस सिर्फ विदेशों में जमा काले धन पर ही नहीं बल्कि देश में जो काले धन के तहखाने हैं, उन पर भी होती और होनी चाहिए। विदेशों में जमा भारत का काला धन बेशक एक गंभीर मुद्दा है लेकिन जितना पैसा विदेशी बैंकों में काले धन के तौर पर जमा है, उससे कई गुना ज्यादा काला धन देश के भीतर ही मौजूद है। देश में आम लोगों की मेहनत की कमाई को लूटने के इस संगठित खेल में भ्रष्ट राजनेता, भ्रष्ट नौकरशाह और बेईमान कारपोरेट घराने शामिल हैं। यह खेल कितना बड़ा है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 50 फीसदी हिस्से के बराबर काला धन देश में हर साल जमा हो रहा है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के वरिष्ठ प्रोफेसर अरुण कुमार की पुस्तक 'ब्लैकमनी इन इंडिया' के मुताबिक 'देश का जीडीपी लगभग 78 लाख करोड़ रुपए का है जबकि इससे अलग करीब 38 लाख करोड़ रुपए काले धन के तौर पर देश में हर साल उत्पादित हो जाते हैं। जाहिर है, यह खेल पूरे सिस्टम की भागीदारी के बगैर लंबे समय तक कतई नहीं खेला जा सकता। अगर हर साल यह 38 लाख करोड़ रुपए देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ जाएं तो हमारी आर्थिक विकास दर काफी बेहतर हो सकती है।'
 एक साल के भीतर देश में जो 38 लाख करोड़ रुपए का काला धन पैदा होता है, उसमें से महज चार लाख करोड़ रुपए विदेशी बैंकों में काले धन के रूप में जमा होते हैं। बाकी पैसे का निवेश तो देश में ही शेयर बाजार, रियल एस्टेट जैसे कारोबारों में होता है। चूंकि जो काला धन देश में रहता है उसी में से कुछ हिस्सा राजनीतिक दलों को चुनावी चंदे के रूप में मिलता है। कई धर्माचार्यों की व्यासपीठें भी आमतौर पर इसी काले धन के हिस्से से सजती हैं। इसलिए देश में काले धन के व्यवहार के बारे में न तो कोई राजनीतिक दल बोलता है, न ही कोई राजनेता इसके खिलाफ जनचेतना पैदा करने के लिए रथयात्रा निकालता है। भ्रष्टाचार को लेकर चिंतित रहने वाले तथाकथित सिविल सोसायटी के स्वयंभू अलमबरदार, धर्माचार्य और योग गुरु भी इस बारे में अपना मुंह खोलने से बचते हैं। क्योंकि उन्हें डर है कि इस बारे में जिक्र छेड़ा गया तो फिर बात दूर तलक जा सकती है। हाल में भाजपा के सभी सांसदों ने हलफनामे देकर घोषित किया है कि उनका विदेशों में कोई काला धन नहीं है। किसी ने यह घोषणा नहीं की है कि देश के भीतर भी उसने काले धन का कहीं निवेश नहीं कर रखा है। हालांकि राजनेताओं के ऐसे हलफनामों को दिखाने के दांतों से ज्यादा कुछ नहीं माना जा सकता। विदेशों में जमा काला धन तो वापस लाना चाहिए और इसके लिए सरकार को निश्चित रूप से कोई कोताही नहीं बरतनी चाहिए लेकिन देश के अंदर भी ऐसी कारगर व्यवस्था बनानी चाहिए, जिससे कि काला धन पैदा ही न हो। क्योंकि समस्या की बुनियादी वजह यही है।

Monday, December 12, 2011

सौ बरस की नई दिल्ली


वैसे तो दिल्ली का इतिहास बहुत पुराना है और दुनिया के सबसे प्राचीन शहरों में इसका शुमार है। यह शहर महाभारत काल में इंद्रप्रस्थ के नाम से पांडवों की राजधानी रहा और बाद में यह तुगलक, लोदी, राजपूत और मुगल शासकों की सत्ता का केंद्र भी रहा। लेकिन आधुनिक दिल्ली यानी भारत की लोकतांत्रिक राजसत्ता का केंद्र, जिसे नई दिल्ली कहा जाता है, का इतिहास महज सौ साल पुराना ही है। आज यह शहर अपनी 100 वीं सालगिरह मना रहा है। ठीक सौ साल पहले ब्रिटिश हुक्मरान भारत की राजधानी को कलकत्ता (अब कोलकाता) से स्थानांतरित कर दिल्ली लाए थे और 12 दिसंबर, 1911 को उत्तरी दिल्ली में यमुना नदी के किनारे किंग्जवे कैंप स्थित कोरोनेशन पार्क में भारत के ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम और महारानी मैरी के राज्याभिषेक का जलसा हुआ था, जिसे दिल्ली दरबार कहा गया था। उस जलसे में देश के सभी राजा-महाराजाओं ने अपने पूरे जलवे के साथ शिरकत कर ब्रिटिश सम्प्रभुता के प्रति सम्मान प्रकट किया था। इसके साथ ही हुई थी नई दिल्ली के बसने की शुरूआत और इसके सूत्रधार बने थे अंग्रेज वास्तुविद्‌ एडविन ल्युटियंस। उनकी देखरेख में ही रायसीना पहाड़ी पर बना वायसराय हाउस (अब राष्ट्रपति भवन) और उसके आसपास के धूल भरे विशाल मैदान में इंडिया गेट, संसद भवन, केंद्रीय सचिवालय तथा अन्य प्रशासनिक इमारतें और सड़कें बनीं, जिनके नाम सम्राट अशोक, बाबर, हुमायूं, शेरशाह सूरी, पृथ्वीराज चौहान, मानसिंह, अकबर, जहांगीर, बहादुरशाह जफर, तुगलक, इब्राहिम लोधी, शाहजहां, औरंगजेब, लार्ड कर्जन, डलहौजी आदि शासकों और अंग्रेज प्रशासकों के नाम पर रखे गए। इन सड़कों के किनारे बनीं ब्रिटिश हुकूमत के कारिंदों-मुसाहिबों की कोठियां। इस तरह दिल्ली बन गई शासक वर्ग और सरकारी कारकुनों की नगरी।
 नई दिल्ली की स्थापना के भले ही सौ बरस हुए हों, पर अपने लंबे इतिहास में इस शहर ने पांडवों से लेकर आज तक कई साम्राज्यों और सरकारों का उत्थान-पतन, कई हमलावर शासकों के हमले, विध्वंस और कत्लेआम के मंजर देखे हैं। अपने लंबे इतिहास में दिल्ली कई बार उजड़ी और बसी है। कहा जा सकता है दिल्ली का इतिहास सौभाग्य और दुर्भाग्य का मिलाजुला इतिहास है। इस शहर की जिजीविषा इतनी प्रबल है और इसमें आकर्षण इतना गजब का है कि आज भी यह न सिर्फ देश की राजधानी बनी हुआ है, बल्कि दुनिया के सृजनशील, सुरूचिपूर्ण और ऐतिहासिक धरोहरों से समृध्द चुनिंदा महानगरों में से एक है। यह एक ऐसा अनोखा महानगर है जो अपने स्वभाव में तमाम आधुनिकताओं को समेटे होने के बावजूद अपने शरीर से पुरातन बना हुआ है। हालांकि वक्त के थपेड़ों ने इस शहर के कई ऐतिहासिक स्मारकों और स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूनों की चमक को धुंधला कर दिया है, लेकिन उनकी मौजूदगी ही इस शहर के शानदार अतीत की कहानी सुना देती है। इन ऐतिहासिक इमारतों और स्मारकों की मौजूदगी से यह शहर आज भी दुनियाभर के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है और बार-बार बुलाता है। दुनिया में कुछ चुनिंदा शहर ही हैं जो इस मामले में दिल्ली की बराबरी करते होंगे। इस सिलसिले में मिस्र की राजधानी काहिरा, यूनान की राजधानी एथेंस, इटली की राजधानी रोम और तुर्की के शहर इस्तांबुल का जिक्र दिल्ली के साथ किया जा सकता है। यह देश का इकलौता महानगर है जिसमें इसके प्राचीन रूतबे और वैभव के अवशेषों की झलक देखी जा सकती है, अन्यथा बाकी महानगरों-मुंबई, कोलकाता और चेन्नई का स्वरूप तो आपादमस्तक औपनिवेशिक है। और, ऐसा होने की वजह भी है, क्योंकि इन महानगरों का उदय और निर्माण ही औपनिवेशिक शासनकाल में हुआ था। दिल्ली इन सबसे बिल्कुल अलहदा है, अनूठी है, क्योंकि यह भारतीय सभ्यता, संस्कृति और इतिहास का महत्वपूर्ण केंद्र रही है।
 दिल्ली की मूल संस्कृति और इसके मिजाज पर देश के बंटवारे की दर्दनाक त्रासदी ने आश्चर्यजनक प्रभाव डाला। जहां सिंध और बलूचिस्तान से विस्थापित होकर लाखों की तादाद में आए लोग मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र, खासकर मुंबई में जाकर बस गए, वहीं पश्चिमी पंजाब और सीमा प्रांत से बड़ी संख्या में विस्थापित होकर आए हिंदू-सिख दिल्ली और पूर्वी पंजाब में बस गए। दिल्ली में आए इन विस्थापितों से दिल्ली का चरित्र ही बदल गया। न सिर्फ सामुदायिक चरित्र बदला, बल्कि साहित्य, भाषा, संस्कृति, खान-पान और पहनावे में भी काफी बदलाव और विविधता आ गई।
आज दिल्ली की संस्कृति बहुरंगी हो गई है। यहां अलग-अलग राज्यों से आने वाले अलग-अलग भाषा-भाषी लोगों की जीवनशैली भी दिल्ली की जीवनशैली के साथ एकाकार हो चुकी है। यहां कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक के हर प्रदेश, हर अंचल के लोगों को लोकजीवन के किसी न किसी क्षेत्र में सक्रिय देखा जा सकता है। लेकिन इस सबके चलते एक खास बात यह हुई कि दिल्ली की अपनी मूल संस्कृति लगभग खो सी गई। देश के बंटवारे और नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के दौर ने इस संस्कृति का काफी नुकसान किया है।
1911 में दिल्ली की आबादी 2.38 लाख थी। 1947 में बंटवारे की वजह से विस्थापितों के बड़ी तादाद शहर में दाखिल होने से इसकी आबादी बढ़कर 6.96 लाख हो गई। बाद के वर्षों में हर दिशा में दिल्ली के शहरीकरण का विस्तार हुआ, जिससे इसकी आबादी में लगातार इजाफा होता गया। 1991 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के साथ ही पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल से बड़ी संख्या में रोजगार की तलाश में लोगों का दिल्ली आना शुरू हुआ, जिससे इस शहर की सीमा से लगे इलाकों में अनियोजित आवासीय योजनाओं को लागू करने से शहर का बेतरतीब शहरीकरण हुआ। ऐसा सिर्फ निम्न और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों की वजह से ही नहीं हुआ बल्कि रईस और कुलीन वर्ग की भोगवादी लालसाओं का भी इसमें बहुत ज्यादा योगदान रहा। आज दिल्ली की आबादी लगभग 1.5 करोड़ है। बढ़ती आबादी और नव धनाड्‌य वर्ग की भोगवादी इच्छाओं के चलते ही दिल्ली में वाहनों की रेलमपेल भी बेतहाशा बढ़ी। आज दिल्ली की सड़कों पर लगभग 65 लाख वाहन दौड़ते हैं जिनमें कारों की संख्या लगभग 21 लाख है। लोगों और वाहनों की इस भीड़ ने दिल्ली की हवा-पानी को भी बुरी तरह प्रदूषित कर दिया। 
बहरहाल, देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली राजनीतिक उठापटक और भागमभाग का अहम केंद्र है। इसी राजनीतिक भागमभाग के माहौल और लोगों में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की होड़ ने इस शहर की मस्ती और मासूमियत को लील लिया है और कानून-व्यवस्था की स्थिति को चिंताजनक बना दिया है। कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की अध्ययन रिपोर्टें दिल्ली को देश के सबसे असुरक्षित शहरों में शुमार बताती हैं। दिल्ली की शान-ओ-शौकत और इसके पुरसुकून माहौल के मुरीद मशहूर शायर शेख मुहम्मद इब्राहीम 'जौक' ने कभी इठलाते हुए फरमाया था 'कौन जाए जौक दिल्ली की गलियां छोड़कर।' जौक साहब अगर आज होते तो कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो चुकी दिल्ली का सूरत-ए-हाल देखकर निश्चित ही झुंझलाते हुए यहां के लोगों से कह उठते 'जा सकते हो तो चले जाओ दिल्ली की गलियां छोड़कर।'

Friday, December 9, 2011

यह बेमतलब की हायतौबा थी!


खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने के अपने फैसले के चौतरफा विरोध के चलते सरकार को आखिरकार अपने कदम पीछे खींचने से राजनीतिक घमासान तो थम गया, लेकिन इस फैसले को लेकर एक सप्ताह तक जो संसदीय गतिरोध बना रहा, वह हैरान करने वाला रहा। सरकार के फैसले का व्यापारी संगठनों द्वारा किया गया विरोध तो समझ में आता है, क्योंकि उन्हें सरकार का यह फैसला अपने कारोबारी हितों के प्रतिकूल लगता है। इस फैसले के खिलाफ वामपंथी दलों और जनता दल (युनाइटेड) जैसी समाजवादी पृष्ठभूमि की पार्टी का रवैया भी समझ में आता है क्योंकि विदेशी पूंजी या बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लेकर इन पार्टियां का विरोध पुराना और जगजाहिर है। तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसी सरकार की सहयोगी पार्टियों का विरोध करना भी कतई चौंकाता नहीं है, क्योंकि गठबंधन की राजनीति में अपनी-अपनी क्षेत्रीय और दलीय जरुरतों को ध्यान में रखकर इस तरह का रवैया अपनाना इन पार्टियों के नेतृत्व का पुराना स्वभाव रहा है। हैरान करने वाला रवैया तो भारतीय जनता पार्टी का रहा, क्योंकि इस प्रमुख विरोधी दल की विचारधारा तो इस तरह के विदेशी निवेश के पक्ष में रही है।
 कोई दो दशक पहले उदारीकरण की शुरुआत के बाद भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसी की गर्भनाल से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच ने 'स्वदेशी' का नारा दिया था। भाजपा ने भी कुछ दिनों तक तो स्वदेशी का मंत्रोच्चार किया लेकिन बहुत जल्द ही जाहिर हो गया कि ये खाने के नहीं, सिर्फ दिखाने के दांत हैं। कुछ राज्यों में उसकी सरकारें बनने के बाद उसके मुख्यमंत्री भी विदेशों के दौरे कर विदेशी कंपनियों को अपने राज्यों में उद्योग लगाने के लिए पीले चावल बांटने लगे। अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने जिन आर्थिक नीतियों पर अमल किया, वे वही थीं जिनकी रचना पीवी नरसिंहराव के प्रधानमंत्रित्व के दौरान वित्त मंत्री की हैसियत से डॉ मनमोहन सिंह ने की थी। इसलिए कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश की भाजपा सरकारों ने थोड़ी-बहुत झिझक के साथ खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश का समर्थन किया। दरअसल, दो दशक पहले आर्थिक उदारीकरण का जो सफर शुरू हुआ था, खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश उसी सफर का एक पड़ाव है। हकीकत यह भी है कि व्यवहार में कोई भी राजनीतिक दल विदेशी निवेश के खिलाफ नहीं है। सभी राज्यों के मुख्यमंत्री, वे चाहे जिस पार्टी के हों, अपने-अपने राज्य में विदेशी पूंजी को न्योता देने के लिए विदेश यात्राएं करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर खुदरा कारोबार में ऐसा क्या है जिसमें विदेशी निवेश को लेकर इतनी हायतौबा मचाई गई?
 एक दशक पहले खुदरा कारोबार में देशी कॉरपोरेट घरानों के प्रवेश को इजाजत देने पर भी काफी हल्ला मचा था। आशंका जताई गई थी कि कॉरपोरेट घराने असंगठित क्षेत्र की खुदरा और किराना दुकानों को बंद करवा देंगे, जिससे देश में भारी बेरोजगारी फैल जाएगी। लेकिन यह आशंका निराधार साबित हुई। इस क्षेत्र में विदेशी निवेश की क्या गत हो सकती है, इसका अंदाजा देश के कॉरपोरेट घरानों के निवेश की 'प्रगति' से भी लगाया जा सकता है। रिलायंस, फ्यूचर समूह (बिग बाजार), स्पेंसर, सुभिक्षा जैसे देश के बड़े और संगठित खिलाड़ी बड़ी धूमधाम के साथ खुदरा बाजार में उतरे थे लेकिन इनमें से सिर्फ रिलायंस और बिग बाजार ही अभी तक बाजार में टिके हुए हैं और उनके लिए भी यह बहुत फायदे का सौदा साबित नहीं हुआ है। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में खुदरा कारोबार अभी लगभग 470 अरब डॉलर का है, जिसमें सुपर मार्केट सहित समूचे संगठित क्षेत्र का हिस्सा महज 27 अरब डॉलर है, जो सात फीसदी से भी कम है। अगर खुदरा कारोबार कॉरपोरेट घरानों के लिए बहुत फायदे का सौदा होता तो देश के हर शहर और कस्बे में इनकी चमचमाती दुकानें नजर आती।
उदारीकरण के शरुआती दिनों में जब मैकडोनाल्ड और केएफसी के चटपटे और चमचमाते रेस्टोरेंट भारत आए, तब उनका भी काफी विरोध हुआ था। दिल्ली समेत कई महानगरों में उन रेस्टोरेंटों पर हमले किए गए थे। लेकिन इस शुरुआती तोड़फोड़ और भावुक विरोध के बाद स्थिति सामान्य हो गई और देश के अन्य छोटे-बड़े शहरों में भी ये रेस्टोरेंट खुल गए। लेकिन हुआ क्या? देश के आधा फीसदी लोग भी इन रेस्टोरेंटों की ओर रुख नहीं करते हैं। दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, लखनऊ, भोपाल, इंदौर, जयपुर कहीं भी चले जाइए, आपको इन रेस्टोरेंटों में गिने-चुने लोग ही मिलेंगे, जबकि इनके आसपास ही स्थित खाने-पीने की दूसरी दुकानों पर हर तबके के लोगों की भीड़ मिलेगी।
देश के खुदरा कारोबार में कारपोरेट घराने अगर अपने पैर नहीं फैला पाए हैं तो इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि उनका अपने ग्राहकों से वैसा रिश्ता नहीं बन पाया है और न कभी बन सकता है जैसा गली-मोहल्ले के किराना दुकानदारों का अपने ग्राहकों से होता है। इन दुकानदारों का अपने ग्राहकों से जीवंत सम्पर्क रहता है, इसलिए ये जरुरत पड़ने पर उन्हें उधार में भी सामान दे देते हैं और इन दुकानदारों से ग्राहक मोलभाव भी आसानी से कर लेते हैं। यह छूट उन्हें रिलायंस या बिग बाजार के स्टोर्स पर कभी नहीं मिल सकती और न ही विदेशी कंपनियों की दुकानों पर ऐसी छूट मिल सकेंगी। इसलिए भी यह आशंका निराधार है कि खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियां आ जाने से देशी दुकानदारों का धंधा चौपट हो जाएगा।
दरअसल, खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के आने का विरोध महज राजनीतिक पाखंड के अलावा कुछ भी नहीं है। इस मुद्दे पर हायतौबा मचा कर संसद को एक सप्ताह तक ठप रखने वाले वे ही लोग हैं जो बीमा और बैंकिंग जैसे अहम क्षेत्रों में विदेशी पूंजी को सजदा कर चुके हैं। हमारे शेयर बाजार में विदेशी पूंजी खुल कर खेल रही है। विदेशी कारें देश के शहरों में फर्राटे से दौड़ रही हैं। बोतलबंद पानी भी विदेशी कंपनियां बेच रही हैं। सड़कें , बंदरगाह और हवाई अड्डे बनाने के लिए विदेशी कंपनियों को ठेके दिए जा रहे हैं। विदेशी शिक्षण संस्थानों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने का न्योता दिया जा रहा है। राजग सरकार के दौरान तो भारतीय उद्यमों को विदेशी कंपनियों के हाथों बेचने के लिए एक अलग मंत्रालय ही बना दिया गया था, जिसे विनिवेश मंत्रालय का नाम दिया गया था। भारतीय अर्थव्यवस्था का यह विदेशीकरण क्या चिंता का विषय नहीं होना चाहिए? लेकिन इस मामले में वामपंथियों के अलावा कहीं से कोई प्रतिरोध की आवाज सुनाई नहीं देती।
हकीकत तो यह है कि हमारी लगभग समूची राजनीति ही विदेशी पूंजी की बंधक बनी हुई है। सरकार की बुनियादी आर्थिक नीतियों का वास्तविक और प्रभावी प्रतिरोध कहीं दिखाई नहीं देता। खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी का विरोध महज राजनीतिक अवसरवाद से ज्यादा कुछ नहीं है। अगर विपक्ष का विरोध ईमानदार होता और वह वाकई संसद में इस मुद्दे पर मतदान चाहता तो इस कदर हंगामा मचा कर संसद ठप नहीं करता बल्कि लोकसभा अध्यक्ष द्वारा कामरोको प्रस्ताव नामंजूर कर दिए जाने पर वह सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाता। उसे ऐसा करने से कोई नहीं रोक सकता था। अविश्वास प्रस्ताव आता तो इस मुद्दे पर बहस भी होती और मतदान भी होता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। जाहिर है कि उसका न तो विदेशी पूंजी से कोई विरोध है और न ही वह इस समय सरकार गिराना चाहता है। वह तो सिर्फ खुदरा कारोबारियों और आम जनता को यह दिखाना चाहता था कि देखो तुम्हारे असली हमदर्द तो हम ही हैं। वह सरकार गिराकर और मध्यावधि चुनाव कराकर वैकल्पिक सरकार और वैकल्पिक नीतियां बनाने की स्थिति में बनाने की स्थिति में नहीं है। इसलिए उसने अपनी सारी ऊर्जा संसद को ठप करने में ही लगाई। विपक्ष की इस मनस्थिति को सरकार भी अच्छी तरह समझती है। इसीलिए उसने भी अपने फैसले को रद्द नहीं किया है, महज स्थगित किया है। उसे यकीन है कि यह दिखावटी हल्ला-गुल्ला ज्यादा लंबा नहीं चलेगा और उसे अपना फैसला लागू करने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। सरकार के इस आशावाद से शायद ही कोई असहमत होगा, यहां तक कि विपक्ष भी नहीं।