Friday, August 5, 2011

एक क्षत्रप के आगे बेबस भाजपा नेतृत्व


जो बी. एस. येदियुरप्पा कल तक भारतीय जनता पार्टी के गले का हार होते थे वे आज उसके पैर में चुभा कांटा हो गए हैं। कर्नाटक के इस पूर्व मुख्यमंत्री ने वह कर दिखाया है जो भारतीय जनता पार्टी में पहले कभी नहीं हुआ था और न ही पार्टी में कभी किसी ऐसा होने के बारे में सोचा होगा। येदियुरप्पा ने अपना उत्तराधिकारी चुनने के लिए हुए गुप्त मतदान में पार्टी नेतृत्व की मर्जी के खिलाफ अपने भरोसेमंद डी. वी. सदानंद गौड़ा को अपना उत्तराधिकारी चुनवा दिया। इस तरह येदियुरप्पा ने अपने को पार्टी का सबसे बड़ा क्षत्रप साबित कर दिखाया। इससे पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ही पार्टी का सबसे ताकतवर सूबेदार माना जाता था, लेकिन येदियुरप्पा मोदी से भी आगे निकल गए। उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व के एक वर्ग की जगदीश शेट्टार को मुख्यमंत्री बनाने की मुहिम की हवा निकालकर रख दी। पार्टी नेतृत्व की ओर से राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की दशा-दिशा तय करने बेंगलुरू पहुंचे पार्टी तीन दिग्गज अस्र्ण जेटली, राजनाथ सिंह और वेंकैया नायडू अपनी मौजूदगी के अलावा और कुछ दर्ज नहीं करवा सके। येदियुरप्पा के लिए यह वाकई एक बड़ी बात है कि अपना इस्तीफा देने के बाद भी वे शक्ति परीक्षण में जीत गए। इस शक्ति परीक्षण से जाहिर हो गया कि कर्नाटक में पार्टी अंतर्कलह और गुटबाजी के कितने गंभीर संकट से गुजर रही है। एक अलग तरह की और अनुशासित पार्टी का दावा करने वाली भाजपा के लिए यह घटना किसी आघात से कम नहीं है।
 उत्तर भारत में जनसंघ के रूप में जन्मी, पली-बढ़ी और जवान हुई भाजपा के दक्षिण अभियान में कर्नाटक एक अहम मुकाम रहा है, जो अब उसके पांवों की बेड़ी भी बनता जा रहा है। केरल में बरसों की मशक्कत के बावजूद आज तक भाजपा की दाल नहीं गल पाई है। इस राज्य में उसने हिंदुओं को रिझाने के जो-जो टोटके हो सकते हैं, वह सब आजमा लिए हैं, लेकिन सारे के सारे बेमतलब साबित हुए हैं। वहां पार्टी लोकसभा की सीट जीतना तो दूर राज्य विधानसभा में भी अपना खाता नहीं खोल पाई है। तमिलनाडु में भी कभी इस या कभी उस द्रविड़ पार्टी का पल्लू पकड़कर ही उसने प्रतीकात्मक यानी नाममात्र की सफलता दो-एक बार हासिल की है। आंध्र प्रदेश में जरूर किसी समय भाजपा ने अपने लिए थोड़ी-बहुत राजनीतिक जमीन तैयार की थी, लेकिन मौजूदा हालात में उस जमीन का कहीं अता-पता नहीं है।
कर्नाटक में यद्यपि भाजपा ने अपने पैर जमाने की शुरूआत अस्सी के दशक में ही कर दी थी, लेकिन राज्य की राजनीति में निर्णायक ताकत वह 2006 में ही हासिल कर पाई, जब राज्य विधानसभा की 224 में से लगभग 65 सीटें जीत कर वह सदन में दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। एक समझौता फार्मूले के तहत उसके समर्थन से जनता दल सेक्यूलर के नेता एच. डी. कुमारस्वामी ने साझा सरकार बनाई। समझौता फार्मूले के मुताबिक साझा सरकार का नेतृत्व बीस-बीस माह बारी-बारी से जनता दल एस और भाजपा के पास रहना था। पहले बीस माह का कार्यकाल पूरा होते-होते ही दोनों दलों के रिश्तों में खटास आ गई थी। हालांकि एक माह की जद्दोजहद के बाद येदियुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी, लेकिन विधानसभा में बहुमत साबित न कर पाने के कारण महज एक सप्ताह में ही वह सरकार अकाल मृत्यु की शिकार हो गई और राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया। वर्ष 2008 में हुए चुनाव में येदियुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा ने 224 के सदन में 110 सीटें जीती और कुछ निर्दलीयों के समर्थन से येदियुरप्पा ने सरकार बनाई। दक्षिण भारत के किसी राज्य में भाजपा की अपने अकेले के बूते बनी यह पहली सरकार थी, लेकिन पार्टी के लिए सरकार के मुखिया के तौर पर येदियुरप्पा कभी भी निरापद और निर्विवाद नहीं रहे।
 भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरूपयोग से जुड़े मामलों ने भाजपा की इस पहली दक्षिण भारतीय सरकार और उसके मुख्यमंत्री का कभी पीछा नहीं छोड़ा। कभी पूर्व प्रधानमंत्री एच. डी. देवगौड़ा और उनके बेटे कुमारस्वामी के आरोपों के कारण, कभी येदियुरप्पा द्वारा अपने परिवारजनों को अनुचित तरीके से सरकारी जमीन आवंटित करने के कारण, कभी राज्य मंत्रिमंडल के सदस्य रेड्डी भाइयों के खनन कारोबार को लेकर, कभी राज्यपाल की मुख्यमंत्री विरोधी राजनीति के कारण, तो कभी अपने ही विधायकों की बगावत से उपजे संकट के कारण, कुल मिलाकर सरकार लगातार मुसीबतों में फंसती रही और उबरती रही। लेकिन इस बार येदियुरप्पा और उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों पर आरोप उनके किसी राजनीतिक विरोधी ने नहीं लगाया, बल्कि राज्य के लोकायुक्त ने उन्हें दोषी माना। उस लोकायुक्त ने जिनकी ईमानदारी असंदिग्ध है। होना तो यह चाहिए था कि लोकायुक्त की लीक हुई रिपोर्ट पर ही भाजपा नेतृत्व कहता कि अगर येदियुरप्पा दोषी हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन उसके प्रवक्ता ऐसा कहने के बजाय रिपोर्ट लीक होने का तकनीकी बहाना बनाकर कुछ कहने से बचते रहे। खैर, यह स्थिति ज्यादा समय तक कायम नहीं रह सकी और लोकायुक्त एन. संतोष हेगड़े ने अंतत अपनी रिपोर्ट औपचारिक रूप से राज्य के मुख्य सचिव और राज्यपाल को सौंप दी, जिसमें येदियुरप्पा और उनके परिवार को एक खनन कंपनी से अनुचित और संदेहजनक लाभ हासिल करने का दोषी पाया गया। इस समय देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह का मुखर माहौल बना हुआ है, उसके चलते भाजपा के लिए इस रिपोर्ट की अनदेखी कर येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद पर बनाए रखना किसी भी तरह मुमकिन नहीं था। हालांकि इससे पहले जमीन आवंटन से संबंधित मामले में भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने बड़ी निर्लज्ज और फूहड़ दलील के जरिए उनका बचाव किया था। उनका कहना था, 'येदियुरप्पा ने जो किया है वह अनैतिक तो है, पर गैरकानूनी नहीं।'
 अगर येदियुरप्पा का बस चलता तो वे कभी इस्तीफा देने को तैयार नहीं होते। लोकायुक्त की रिपोर्ट आ जाने के बाद भी येदियुरप्पा यही कहते रहे कि उनके इस्तीफा देने का सवाल ही नहीं उठता और वे अपना कार्यकाल पूरा करेंगे। अतीत में भी केंद्रीय नेतृत्व को अंगूठा दिखाते हुए वे अपनी कुर्सी पर जमे रहे हैं, लेकिन इस बार लोकायुक्त की रिपोर्ट आने के बाद उनकी पार्टी भारतीय जनता पार्टी को उन्हें झेलना आत्मघाती साबित हो सकता था। भाजपा नेतृत्व को इस बात का अच्छी तरह अहसास था कि अगर अब भी येदियुरप्पा को उसने नहीं हटाया तो भ्रष्टाचार को लेकर कांगे्रस के खिलाफ उसके अभियान की हवा निकल जाएगी। इसलिए भाजपा संसदीय बोर्ड ने आनन-फानन में येदियुरप्पा को हटाने का फैसला किया। लेकिन येदियुरप्पा ने इस फैसले को आसानी से स्वीकार नहीं किया। उन्होंने एक बार फिर अपने लिंगायत जनाधार के बूते बागी तेवर दिखाए। लोकायुक्त की रिपोर्ट को पूर्वाग्रह से प्रेरित और अपने को पाक-साफ बताते हुए पार्टी के लगभग 70 विधायकों और 14 सांसदों को अपने समर्थन में खड़ाकर येदियुरप्पा ने पार्टी नेतृत्व को यह दिखाने की कोशिश की कि उन्हें हटाने का फैसला पार्टी को भारी पड़ सकता है, यानी कर्नाटक उसके हाथ से निकल सकता है। लेकिन जब उन्होंने देख लिया कि पार्टी नेतृत्व उनके बागी तेवरों से जरा भी प्रभावित नहीं है तो उन्होंने नया दांव चला। वे इस्तीफा देने को तो राजी हो गए, लेकिन इस शर्त के साथ कि अगला मुख्यमंत्री उनकी पसंद का ही हो। अपनी पसंद की तौर पर उन्होंने वोक्कालिगा समुदाय के अपने समर्थक पार्टी सांसद सदानंद गौड़ा का नाम पेश किया। पार्टी नेतृत्व इस मुगालते में था कि येदियुरप्पा के इस्तीफा देते ही विधायक दल में उनका समर्थन छिन्न-भिन्न हो जाएगा और वह येदियुरप्पा को दरकिनार कर अपनी पसंद का मुख्यमंत्री बना लेगा। दरअसल, पार्टी नेतृत्व में एक वर्ग येदियुरप्पा के कट्टर विरोधी अनंत कुमार को मुख्यमंत्री बनाना चाहता था, लेकिन उसका यह मंसूबा पूरा नहीं हो सका। येदियुरप्पा के इस्तीफा देने के बाद भी उनके समर्थक विधायकों में कोई भी इधर से उधर नहीं हुआ।
 आखिरकार येदियुरप्पा विरोधी केंद्रीय नेताओं ने अनंत कुमार के ही समर्थक जगदीश शेट्टार को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर येदियुरप्पा को मात देने के लिए गुप्त मतदान के जरिए विधायक दल के नेता का चुनाव कराया, जिसमें येदियुरप्पा अपने करीबी सदानंद गौड़ा को जितवाने में कामयाब रहे। येदियुरप्पा की हिम्मत देखिए कि राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने लोकायुक्त की रिपोर्ट के आधार पर उन पर भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी है, मगर फिर भी येदियुरप्पा खुलेआम घोषणा कर रहे हैं कि छह महीने बाद वे फिर से सत्ता संभालेंगे। इस घोषणा से सबसे ज्यादा चिंतित भाजपा को ही होना चाहिए और चिंता की बात यह है कि येदियुरप्पा कर्नाटक में भाजपा को अपनी मुट्‌ठी में रखना चाहते हैं। वैसे कहने को तो अब भी कर्नाटक में भाजपा की ही सरकार होगी, लेकिन हकीकत यह है कि वहां परोक्ष रूप से रिमोट कंट्रोल के जरिए येदियुरप्पा ही राज करेंगे। अगर पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने या दिल्ली में बैठे येदियुरप्पा विरोधी नेताओं ने सदानंद गौड़ा की सरकार के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ की या उसे अस्थिर करने की कोशिश की तो फिर कर्नाटक को उसके हाथों से खिसकने से कोई नहीं रोक पाएगा, क्योंकि येदियुरप्पा के पास क्षेत्रीय पार्टी विकल्प बनाने का विकल्प अभी भी खुला है और इसका परोक्ष संकेत वे पहले ही पार्टी नेतृत्व को दे चुके हैं।

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