Friday, August 12, 2011

फिल्मों से खौफ खाते हमारे राजनेता



दुनिया में शायद भारत ही एकमात्र ऐसा देश होगा जहां कुछ राजनेता कभी किसी फिल्म से डर जाते हैं तो कभी किसी नाटक के मंचन से। कभी कोई किताब या किसी चित्रकार का बनाया कोई चित्र उन्हें लोगों की भावनाएं आहत करने वाला लगता है तो कभी कोई गीत या कविता उन्हें आपत्तिजनक लगने लगती है। इन्हें कभी लड़कियों की किसी खास तरह की पोशाक से तो कभी वेलेंटाइन डे जैसे पश्चिमी त्योहार से अपनी संस्कृति खतरे में पड़ती नजर आती है। कभी वे यह तय करने लगते कि अमुक देश की क्रिकेट टीम को भारत नहीं आने देना चाहिए या भारतीय टीम को अमुक देश का दौरा नहीं करना चाहिए तो कभी उन्हें पड़ोसी देशों के कलाकारों का भारत आना खटकता है।
फिलहाल इन दिनों हमारे कुछ राजनेता प्रकाश झा जैसे जिम्मेदार और प्रतिबध्द फिल्म निर्देशक की फिल्म 'आरक्षण' से डरे हुए नजर आ रहे हैं। सबसे ज्यादा भयभीत उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार है। उसने तय किया है कि इस फिल्म को रिलीज होने से पहले उसकी बनाई एक कमेटी के सदस्य देखेंगे और वे ही फैसला करेंगे कि फिल्म को प्रदेश के सिनेमाघरों में दिखाए जाने की अनुमति दी जाए या नहीं। कुछ इसी तरह का रवैया आंध्र प्रदेश और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों तथा पंजाब की अकाली-भाजपा सरकार ने भी अपनाया हुआ है। उधर, महाराष्ट्र के लोक निर्माण मंत्री छगन भुजबल और दलित नेता रामदास अठावले ने भी इसके प्रदर्शन का विरोध करने की चेतावनी दे रखी है। अठावले की रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया और भुजबल की संस्था महात्मा फूले समता परिषद के कार्यकर्ताओं ने तो मुबंई में प्रकाश झा के घर और दफ्तर पर विरोध प्रदर्शन भी किया। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में बैठे कुछ राजनेताओं ने भी इस फिल्म को देखे बगैर ही फतवा दे दिया है कि यह दलित विरोधी फिल्म है। इसी तरह की दलीलों के साथ इस फिल्म का प्रदर्शन रूकवाने के लिए बंबई हाई कोर्ट में एक याचिका भी दायर की गई थी, जो खारिज कर दी गई है। इसके बावजूद कुछ राज्य सरकारें  और कुछ राजनेता अपने रूख पर अड़े हुए हैं और 'सुपर सेंसर' की भूमिका निभा रहे हैं।
 जैसा विरोध आरक्षण का हो रहा है, इसी तरह का विरोध कुछ दिनों पहले रिलीज हुई फिल्म 'खाप' को लेकर भी हो रहा है, जो 'ऑनर किलिंग' जैसे ज्वलंत मुद्दे पर बनी है। इस विरोध को हवा देने का काम खाप पंचायतों की राजनीति से जुड़े लोग कर रहे हैं। एक जमाने में महान फिल्मकार गुरूदत्त की फिल्म 'प्यासा' और गुलजार की बनाई फिल्म 'आंधी' भी राजनेताओं के कोप का शिकार हुई थीं। देश की आजादी के कुछ ही समय बाद बनी 'प्यासा' फिल्म के एक गीत को लेकर उस समय के कांग्रेसी नेताओं को आपत्ति थी। उनका मानना था कि इस गीत में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को निशाना बनाते हुए उन कटाक्ष किया गया है। सत्ताधारी नेताओं के कोप के चलते आकाशवाणी पर उस गीत का प्रसारण प्रतिबंधित कर दिया गया था। इसी तरह 'आंधी' फिल्म पर महज इसलिए पाबंदी लगा दी गई थी कि उसमें सुचित्रा सेन के चरित्र में सत्ताधारी कांग्रेस के कुछ नेताओं को उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की झलक दिखाई दे रही थी। हाल के वर्षों में बनी रामगोपाल वर्मा की फिल्म 'शूल' का बिहार के सिनेमाघरों में प्रदर्शन तभी हो सका था, जब पहले उसे उस समय के सत्तास्र्ढ़ राष्ट्रीय जनता दल के एक नेता ने देखकर उसके प्रदर्शन की इजाजत दी थी। इसी तरह महेश मांजरेकर की फिल्म 'पद्‌मश्री लालू प्रसाद यादव' का प्रदर्शन बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव की हरी झंडी मिलने के बाद ही संभव हो पाया था।
 फिल्मों में क्या आपत्तिजनक है और क्या नहीं, यह तय करने के लिए हमारे यहां सेंसर बोर्ड नाम की एक संस्था है, जो अपना काम आमतौर पर पूरी संजीदगी के साथ करती आ रही है। ऐसे में राजनेताओं को यह अधिकार देश के किस कानून ने दे दिया है कि वे यह तय करने लग जाएं कि कौन सी फिल्म प्रदर्शन के लायक है और कौनसी नहीं, या फिल्म में क्या दिखाया जाए और क्या नहीं? अगर राजनेताओं के इस तरह के अराजक सेंसर से ही यह सब कुछ तय होने लगेगा तो फिर सेंसर बोर्ड को बनाए रखने का क्या औचित्य रह जाएगा? हम किसी कम्युनिस्ट अथवा सैन्य तानाशाही के तहत नहीं रह रहे हैं। न ही हमारे यहां किसी तरह कि धार्मिक या तालिबानी हुकूमत है। हम एक लोकतांत्रिक देश हैं। हमारे संविधान ने देश के हर नागरिक को अभिव्यक्ति दी आजादी दी है। इस अभिव्यक्ति की आजादी में देखने, सुनने, और पढ़ने की आजादी भी निहित है। आम लोगों को क्या देखना है और क्या पढ़ना है, यह कुछ व्यक्ति या व्यक्तियों का कोई समूह कैसे तय कर सकता है?
सवाल पूछा जा सकता है कि जो राजनेता इन फिल्मों को विरोध कर रहे हैं उनकी अपनी योग्यता क्या है? क्या उन्होंने फिल्मों के बारे में कोई अकादमिक प्रशिक्षण ले रखा है या वे देश की जाति व्यवस्था और जातिवाद की समस्या को गहराई से जानते और समझते हैं? एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि जिस फिल्म का विरोध किया जा रहा है, उसका नाम भले ही आरक्षण हो, लेकिन उसमें शिक्षा के व्यवसायीकरण की समस्या को ही उभारा गया है। शिक्षा के व्यवसायीकरण या बाजारीकरण का सबसे ज्यादा खामियाजा देश के गरीब वर्ग को और प्रकारांतर से व्यापक स्तर पर दलित और पिछड़े तबकों को ही उठाना पड़ रहा है, क्योंकि गरीबी और विपन्नता के महासागर में सबसे ज्यादा तादात इन्हीं तबके के लोगों की है। दरअसल, इन मूढ़ और कूढ़मगज नेताओं को न तो हमारी शिक्षा-व्यवस्था की समझ है और  न ही ये हमारी जाति-व्यवस्था और जातिवाद की बुराइयों की गहरी समझ रखते हैं। ये  आरक्षण की अवधारणा को भी ठीक से नहीं समझते हैं और न ही आरक्षण व्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को। ज्यादातर राजनेताओं का आरक्षण प्रेम और आरक्षण विरोध स्वार्थसनी राजनीति से प्रेरित है।
इस किस्म के राजनेता जबर्दस्त रूप से असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हैं। ये राजनेता जनता के बीच अपनी किसी वैचारिक प्रतिबध्दता के दम पर नहीं, बल्कि लुभावने नारों, वादों और अपनी लफ्फाजी के सहारे टिके हुए हैं। दरअसल, अपने घर की गंदगी को कालीन या चटाई के नीचे छिपा देने की प्रवृत्ति भारतीय समाज में काफी हद तक व्याप्त है। देश की राजनीति भी इस प्रवृत्ति से अछूती नहीं है। इस गंदगी को साफ करने को लेकर हमारे मन में झिझक है या उसके उजागर होने में एक तरह का अपराध बोध होता है। यही झिझक और अपराध बोध कभी किसी फिल्म, कभी किसी नाटक, कभी किसी किताब और कभी किसी कलाकृति के विरोध के रूप में उजागर होता रहता है।

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