Friday, August 5, 2011

नीति और नेतृत्व के संकट से जूझती भाजपा

गर भारतीय जनता पार्टी को एक मुद्दे वाली पार्टी की छवि से छुटकारा दिलाने में उसके नेतृत्व की ही कोई दिलचस्पी नहीं हो तो कोई क्या कर सकता है? ऐसे समय में जब देश में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है और केंद्र की कांग्रेस नीत गठबंधन सरकार पर आए दिन घपले-घोटाले के नए-नए आरोप लग रहे हैं तथा महंगाई का ग्राफ भी लगातार आसमान की ओर ऊंचा होता जा रहा है, भाजपा के पास मौका है कि वह देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी होने के नाते इन दोनों महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर देशव्यापी जनांदोलन का एक ठोस कार्यक्रम बनाए और सरकार के लिए राजनीतिक चुनौती पेश करे। लेकिन घोर अकर्मण्यता के शिकार उसके बयान बहादुर नेताओं के मौजूदा राजनीतिक रंग-ढंग देखकर नहीं लगता कि पार्टी इस दिशा में कुछ करने की इच्छा रखती है या उसमें  ऐसा कुछ करने की सामर्थ्य है।
पिछले दिनों लखनऊ में हुई उसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी और दूसरे तमाम दिग्गज नेताओं के भाषणों से भी ऐसा कोई आभास नहीं मिला कि पार्टी बदलते वक्त और चुनौतियों के अनुरूप अपने को ढालने का माद्दा रखती है। हाल ही में सम्पन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने कुल 824 सीटों में महज पांच सीटें जीती हैं। इस जमीनी हकीकत के बावजूद भाजपा नेतृत्व का दावा है कि पार्टी न सिर्फ अगले वर्ष उत्तर प्रदेश में सरकार बनाएगी, बल्कि 2014 में वह केंद्र में भी सत्ता पर काबिज होगी। इन दो मुश्किल लक्ष्यों को हासिल करने के लिए पार्टी ने अपनी कोई सुविचारित राजनीतिक कार्ययोजना पेश करने के बजाय अपने प्रिय और चिर-परिचित राम मंदिर मुद्दे का और अपने प्रथम पुष अटलबिहारी वाजपेयी के नाम का ही आसरा लिया है। वाजपेयी लंबे समय से अस्वस्थ हैं और इसी वजह से सार्वजनिक जीवन से भी पूरी तरह संन्यास ले चुके हैं। और फिर, देश की राजनीति भी अब वाजपेयी के समय से काफी आगे निकल चुकी है, यह बात राजनीति का सामान्य सा विद्यार्थी भी अच्छी तरह जानता है लेकिन पता नहीं भाजपा नेतृत्व इस हकीकत को क्यों नहीं समझ पा रहा है?
दरअसल, अब तो उत्तर प्रदेश और देश के मतदाताओं के सामने कसौटी पर वाजपेयी नहीं, बल्कि भाजपा का मौजूदा नेतृत्व है, जिसमें न तो वाजपेयी जैसी सर्वस्वीकार्यता है और न ही जन-मन को मुग्ध करने वाली वाक्‌पटुता। रही बात राम मंदिर की, तो इस मुद्दे को तो अपनी रंगत खोए लगभग एक दशक हो चुका है और इस दौरान पार्टी दो मर्तबा लोकसभा और इतनी ही दफा उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हार चुकी है। चूंकि अब फिर उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव सिर पर हैं। इसलिए भाजपा को जनता के इस सवाल का जवाब देने के लिए कुछ तो तैयारी करनी ही होगी कि दो दशक बाद भी अयोध्या में वह राम मंदिर क्यों नहीं बनाया जा सका, जिसके लिए बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी। भाजपा नेतृत्व के लिए इस आरोप का बोझ अपने सिर पर लेकर चलना मुश्किल होगा कि वे अपने आराध्य राम को भूल गए हैं। इसलिए इस मुद्दे से चिपके रहना पार्टी की मजबूरी है।
पार्टी सिर्फ नीति और कार्यक्रम के मामले में ही दिवालिया नहीं है, नेतृत्व के मोर्चे पर भी उसकी हालत बेहद दयनीय है। वाजपेयी जहां अपनी बीमारी के चलते मैदान से पूरी तरह बाहर है, वहीं लालकृष्ण आडवाणी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ठिकाने लगा चुका है। उनको पार्टी का नेतृत्व छोड़ने को मजबूर कर उनकी जगह पार्टी के अध्यक्ष बनाए गए नितिन गडकरी की हालत यह है कि संघ की अनुकम्पा से वे पार्टी के पदेन राष्ट्रीय नेता जरूर बन गए हैं, मगर उनका कद अभी भी जिला स्तर के नेता से ज्यादा ऊंचा नहीं हो पाया है। हाल में महाराष्ट्र के एक जिला अध्यक्ष को लेकर पार्टी संसदीय दल के उपनेता गोपीनाथ मुंडे के साथ हुआ विवाद इसकी मिसाल है। उनमें अनुभव की कमी तो है ही, साथ ही अपने बयानों से भी उन्होंने अपनी  छवि ऐसी बना ली है कि न तो पार्टी के बाहर उन्हें कोई गंभीरता से लेता है और न ही पार्टी के भीतर। अपने विरोधियों के प्रति गाली-गलौच वाली भाषा से युक्त उनके गडकरी के भाषणों से तो यही लगता है कि वे खुद भी नहीं चाहते कि कोई उन्हें गंभीरता से ले।
जहां तक लोकसभा और राज्यसभा में पार्टी संसदीय दल के नेतृत्व का सवाल है, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के बीच चलने वाली तनातनी कोई नई और छिपी हुई बात नहीं है। इन दोनों का ज्यादातर समय आपसी हिसाब-किताब चुकता करने और गडकरी को कमजोर करने की कोशिशों में ही बीतता है। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथसिंह अपने को मानते राष्ट्रीय स्तर का नेता हैं, लेकिन वे उत्तर प्रदेश की राजनीति से ही बाहर नहीं निकल पाते हैं। यह अलग बात है कि उनकी  उत्तर प्रदेश में राजनीति में भरपूर दिलचस्पी के बावजूद पार्टी को वहां अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। पार्टी के एक अन्य वरिष्ठ नेता और पूर्व अध्यक्ष डॉ मुरली मनोहर जोशी को आडवाणी ही काफी पहले हाशिए पर डाल चुके हैं। फिर भी वे संसद की लोकलेखा समिति के अध्यक्ष की हैसियत से किसी तरह अपना राजनीतिक वजूद और उपयोगिता बनाए हुए हैं। दिलचस्प बात यह है कि पार्टी के सत्ता में आने के अभी दूर-दूर तक कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं, लेकिन ये सारे नेता अपने को आडवाणी की तरह प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग मानते हैं। यह अलग बात है कि इनमें से अरुण जेटली ने आज तक कोई चुनाव नहीं लड़ा है और वे राज्यसभा के रास्ते से ही संसद तक पहुंचते रहे हैं। सुषमा स्वराज पहली बार लोकसभा पहुंची हैं, अन्यथा वे भी हमेशा लोकसभा चुनाव हारती रही हैं और कभी इस राज्य से तो कभी उस राज्य से राज्यसभा की शोभा बढ़ाती रही हैं। यही हाल राजनाथ सिंह का है। वे भी अपने राजनीतिक जीवन में मात्र एक बार लोकसभा का चुनाव जीत पाए हैं, वह भी उत्तर प्रदेश में अपने गृह जिले से काफी दूर दिल्ली से सटे राजपूत बहुल गाजियाबाद क्षेत्र से।
आज हालत यह है कि राजनीतिक परिदृश्य से वाजपेयी के हटने के बाद पार्टी के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जिसे आगे कर वह राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को चुनौती दे सके और फिर से दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो सके। यही स्थिति उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के बाहर निकल जाने के बाद है। वहां भी पार्टी के पास एक भी चेहरा ऐसा नहीं है जिसके दम पर वह उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के सामने कोई सशक्त चुनौती पेश कर सके। उत्तर प्रदेश में नेतृत्व के संकट के चलते ही पार्टी को मजबूरन उमा भारती को लाकर उन्हें स्टार प्रचारक बनाना पड़ा। इस सूबे में दो मर्तबा सरकार बना चुकी भाजपा की हालत आज यह है कि उसका परंपरागत वोट बैंक उससे छिटक कर कांग्रेस और बसपा के पास पहुंच चुका है और पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों के लिहाज से पार्टी वहां चौथे पायदान खड़ी है। ऐसी स्थिति में भाजपा नेतृत्व ने उमा को इस सूबे का जिम्मा सौंपकर एक तरह से बड़ा राजनीतिक जुआं खेला है। यदि उमा का करिश्मा चल गया तो पार्टी तो पार्टी के दिन तो फिरेंगे ही, उमा कद भी बढ़ जाएगा। और, अगर ऐसा नहीं भी हुआ तो भाजपा के पास खोने के लिए रखा भी क्या है?
वैसे भाजपा के पास सुशासन या यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने का यह माकूल मौका है, लेकिन कर्नाटक और उत्तराखंड में उसकी अपनी सरकारों के दागदार रिकार्ड के चलते उसके सामने इन मुद्दों पर विश्वसनीयता का संकट सामने आ खड़ा हो जाता है। वह इन मुद्दों को चाहकर भी जोरदार तरीके से नहीं उठा सकती। यही वजह है कि अब वह योग गुरू रामदेव और अण्णा हजारे की पालकी का कहार बनकर जनता के बीच अपनी साख जमाने की कोशिश कर रही है।

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