Monday, August 15, 2011

जब पुलिस ही हत्यारी हो जाए!

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी कसौटी यह होती है कि उसमें मानवाधिकारों की कितनी हिफाजत और इज्जत होती है। इस मामले में हमारे देश का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है। हमारे यहां पुलिस का रवैया लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के तकाजों से कतई मेल नहीं खाता है। आम आदमी पुलिस की मौजूदगी में अपने को सुरक्षित और निश्चिन्त  महसूस करने के बजाय उसे देखकर ही खौफ खाता है। फर्जी मामलों में किसी बेगुनाह को फंसाने और पूछताछ के नाम पर अमानवीय यातना देने की घटनाएं आमतौर पर पुलिस की कार्यप्रणाली का हिस्सा बन गई हैं। फर्जी मुठभेड़ में होने वाली हत्याएं और हिरासत में होने वाली मौतें इस सिलसिले की सबसे कू्रर कड़ियां हैं। यह बेहद अफसोस की बात है कि हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल अकसर इस क्रूरता पर चुप्पी साधे रहते हैं। अलबत्ता हमारी न्यायपालिका खासकर सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर फर्जी मुठभेड़ और हिरासत में मौत के मामलों को गंभीरता से लेते हुए सख्त स्र्ख अपनाया है। नागरिक अधिकारों को हमारे संविधान की बुनियाद माना गया है और सुप्रीम कोर्ट को संविधान के संरक्षक की भूमिका हासिल है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट यह स्र्ख उसकी भूमिका और उससे की जाने वाली अपेक्षा के अनुरूप ही है।  
 हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान पुलिस के हाथों फर्जी मुठभेड़ में हुई एक मौत के मामले की सुनवाई करते हुए कहा है कि ऐसे मामलों में दोषी पुलिसकर्मियों को फांसी की सजा मिलनी चाहिए। गौरतलब है कि अक्टूबर, 2006 में राजस्थान पुलिस ने दारा सिंह नामक एक कथित बदमाश को मार डाला था और यह प्रचारित किया था कि वह मुठभेड़ में मारा गया है। इस मामले में पुलिस के कई बड़े अधिकारी भी शामिल थे। राज्य के एक पूर्व मंत्री और भाजपा नेता समेत कुल सोलह आरोपियों में से कई अभी तक फरार हैं। हालांकि ऐसे मामलों में दोषियों को फांसी देने की बात सुप्रीम कोर्ट ने कोई पहली बार नहीं की है। तीन महीने पहले भी इसी तरह के एक मामले में आरोपी पुलिसकर्मियों की जमानत याचिका खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यही सुझाव दिया था। 

वैसे किसी भी मामले में दोषी व्यक्ति को फांसी की सजा दी जानी चाहिए या नहीं, यह लंबे समय से बहस का मुद्दा बना हुआ है। दुनिया में इस समय लगभग एक तिहाई देश ऐसे हैं जिन्होंने अपने यहां मौत की सजा को पूरी तरह खत्म कर दिया है। इसके अलावा लगभग इतने ही देश ऐसे हैं जिन्होंने इस सजा को औपचारिक रूप से तो खत्म नहीं किया है, लेकिन वे इस सजा को अमल में भी नहीं लाते हैं। हमारे देश में भी इस सजा को खत्म करने की मांग जब-तब उठती रहती है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी अदालत का यह सुझाव किसी को भी थोड़ा अटपटा लग सकता है कि फर्जी मुठभेड़ के तहत होने वाली हत्याओं के दोषी पुलिसकर्मियों को फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए। मानवाधिकारवादियों के अलावा कई न्यायविदों का भी मानना रहा है कि मौत की सजा का प्रावधान खत्म होना चाहिए। खुद सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदला है। लेकिन फर्जी मुठभेड़ में किसी के मारे जाने को उसने दुर्लभ में भी दुर्लभतम किस्म का अपराध करार देते हुए इसके दोषियों को मौत की सजा देने की सिफारिश की है। यह सिफारिश करते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और न्यायमूर्ति सीके प्रसाद ने सवाल किया कि पुलिस को लोगों को अपराध से बचाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है लेकिन अगर वही अपराध करने लगे या किसी की जान लेने लगे तो कानून के शासन का क्या होगा?   
जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल उठाया, इत्तफाक से उसी दिन जम्मू में मानसिक रूप से बीमार एक व्यक्ति को आतंकवादी बताकर मार दिए जाने की खबर आई। समझा जाता है कि पुरस्कार और पदोन्नति पाने के चक्कर में एक आतंकवादी को मुठभेड़ में मार गिराने का यह झूठा किस्सा गढ़ा गया। लेकिन पुरस्कार और पदोन्नति के लालच के अलावा सबूत मिटाने के मकसद से भी कई बार फर्जी मुठभेड़ का नाटक रचा जाता है। कुछ वर्ष पहले सोहराबुद्दीन, उसकी बीवी कौसर बी और तुलसीराम प्रजापति की पुलिस द्वारा हत्याएं इसीलिए की गई थीं। इस मामले में गुजरात अदालत के सख्त स्र्ख के चलते गुजरात के कई आला पुलिस अधिकारियों को जेल जाना पड़ा। इसी तरह का मामला कुछ महीनों पहले माओवादी नेता चेरूकुरि राजकुमार उर्फ आजाद और पत्रकार हेमचंद्र पांडेय की आंध्र प्रदेश पुलिस के हाथों हुई मौत का है। इस मामले की जांच कराने में आंध्र प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट की हिदायत के बाद भी आनाकानी करती रही। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में इन दोनों के फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने की पुष्टि हुई थी। इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हमारा गणतंत्र इस तरह अपने बच्चों को नहीं मार सकता।  
दरअसल, समाज में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए नागरिक जीवन में पुलिस की मौजूदगी तो एक अनिवार्य तथ्य के रूप में स्वीकृत है ही, साथ ही उसकी कू्ररता और भ्रष्टाचार भी। पुलिस की इस कू्ररता और भ्रष्टाचार के आगे आम आदमी असहाय है। औपनिवेशिक काल से लेकर आज तक पुलिस की क्रूरता की हजारों कहानियां फैली हुई हैं। देश-विदेश के नागरिक और मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टों तथा समाचार पत्र-पत्रिकाओं में भी पुलिस की क्रूरता के ब्यौरे मिलते हैं। आजादी के बाद भारतीय गणतंत्र में पुलिस की बदली हुई भूमिका अपेक्षित थी लेकिन औपनिवेशिक भूत ने उसका पीछा नहीं छोड़ा तो नहीं छोड़ा। वर्षों पूर्व इलाहाबाद हाई कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश आनंद नारायण मुल्ला की पुलिस के बारे में की गई टिप्पणी आज भी मौजूं है। उन्होंने पुलिस हिरासत में हुई मौत के एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था-'भारतीय पुलिस अपराधियों का सर्वाधिक संगठित गिरोह है।' आज भी फर्जी मुठभेड़ और पुलिस हिरासत में हत्या की घटनाएं देश के विभिन्न इलाकों में होती रहती हैं। ऐसी घटनाएं सीमावर्ती राज्यों में तो बहुतायत में होती हैं, जहां अलगाववादी और उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं। मानवाधिकार आयोग को इस किस्म की शिकायतें देश के विभिन्न राज्यों से लगातार मिलती रही हैं। आयोग में दर्ज शिकायतों के मुताबिक बीते तीन साल में अकेले उत्तर प्रदेश में ही फर्जी मुठभेड़ में एक सौ बीस लोग मारे जा चुके हैं। इन्हीं सारे तथ्यों के प्रकाश में फर्जी मुठभेड़ के दोषी पुलिसकर्मियों को फांसी की सजा देने का सुप्रीम कोर्ट का ताजा सुझाव देश में पुलिस सुधार की आवश्यकता और फर्जी मुठभेड़ की बढ़ती घटनाओं की ओर समूचे व्यवस्था तंत्र का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश है।  
 यह सच है कि अहिंसा का दर्शन भारत-भूमि से ही प्रस्फुटित हुआ है और मौत की सजा को दुनियाभर में खत्म करवाने में जुटे संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल तथा दुनिया के अन्य मानवाधिकार संगठनों के प्रयास भी अहिंसा के उदात्त मूल्य पर आधारित एक आदर्श की स्थापना के ही प्रयास हैं, जो यह मानता है कि मनुष्य जीवन अनमोल है, इसलिए किसी अपराधी की जान लेने के बजाय उसे आत्म-सुधार का मौका देना चाहिए। लेकिन आदर्श और यथार्थ में बड़ा फर्क होता है। हमारे देश का जो मौजूदा यथार्थ है वह आदर्श से कतई से मेल नहीं खाता है। हालांकि मौत की सजा भी एक तरह की बर्बरता ही है। वॉल्टर बेंजामिन ने कहा भी है कि सभ्यता का इतिहास बर्बरता का भी इतिहास है। लेकिन सभ्यता का इतिहास अहिंसक तरीकों से ऐसी  स्थितियां विकसित करने का भी तो है, जिनमें हिंसक विवाद और अपराध जन्म ही न ले सकें। भारत सहित जिन देशों को उनके यहां के हालात मौत की सजा खत्म करने की इजाजत नहीं देते, उन्हें तो अपने यहां अहिंसक तरीकों से ऐसा वातावरण बनाने की ठोस कोशिशें करनी ही चाहिए।

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