Monday, February 6, 2012

भाजपा को फिर राम याद आए


अगर भारतीय जनता पार्टी को एक मुद्दे वाली पार्टी की छवि से छुटकारा दिलाने में उसके नेतृत्व की ही कोई दिलचस्पी नहीं हो तो कोई क्या कर सकता है? पिछले लगभग ढाई दशक से लोकसभा और उत्तर प्रदेश विधानसभा का ऐसा कोई चुनाव नहीं रहा जिसमें भाजपा ने अयोध्या में राम मंदिर बनाने का वादे को अपने घोषणापत्र में जगह न दी हो। इस बार भी आखिरकार उससे रहा नहीं गया और यह जानते हुए भी कि अयोध्या का मस्जिद बनाम मंदिर विवाद अब सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचाराधीन है, उसने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अपना घोषणा पत्र में यह घोषणा कर ही डाली कि पार्टी अयोध्या में राम मंदिर बनाने के रास्ते में जो भी बाधाएं हैं उन्हें दूर कर एक भव्य राम मंदिर का निर्माण करेगी।
एक समय भाजपा की उग्र हिंदूवाद की राजनीति के चैंपियन रहे लालकृष्ण आडवाणी भी चुनाव प्रचार के सिलसिले में अयोध्या यात्रा कर आए हैं। उन्होंने अयोध्या में रामलला के दर्शन करने के बाद चुनाव सभा में कहा, 'अयोध्या में भव्य राम मंदिर बने, यह मेरे जीवन की साध है। जब तक यह नहीं बनेगा, मेरे मन को संतोष नहीं मिलेगा।' आडवाणी ही वह शख्श हैं जिन्होंने कोई दो दशक पूर्व सोमनाथ से अयोध्या तक की अपनी राम रथयात्रा के जरिए देशभर में उन्मादी माहौल बनाकर भाजपा के लिए सत्ता में पहुंचने का रास्ता तैयार किया था। राम मंदिर मुद्दे के सहारे ही भाजपा ने लोकसभा में अपनी सदस्य संख्या दो से बढ़ाकर पहले 89  फिर 110 और बाद में 150 तक पहुंचाई और केंद्र में गठबंधन सरकार बनाई। लेकिन सत्ता में रहते हुए अपने गठबंधन के सहयोगियों के दबाव में भाजपा को अपनी हिंदूवादी राजनीति के अन्य विवादास्पद मुद्दों के साथ ही राम मंदिर का मुद्दा भी ठंडे बस्ते में डालना पड़ा। तभी से यह मुद्दा अपनी रंगत लगातार खोता गया।
इस मुद्दे को देश की राजनीति में बेअसर हुए अब एक दशक से भी ज्यादा का समय हो चुका है और इस दौरान भाजपा दो मर्तबा लोकसभा और इतनी ही दफा उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हार चुकी है। फिर भी 'दिल है कि मानता नहीं' की तर्ज पर वह हर चुनाव के मौके पर इस मुद्दे को झाड़-पोंछकर अपने घोषणा पत्र में सजा लाती है। इस बार भी वह इसी मुद्दे के जरिए उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को रिझाना चाहती है। जबकि सब जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले को अजीबो-गरीब बताते हुए उसके अमल पर रोक लगा रखी है, जिसमें अयोध्या के विवादित भूखंड को तीन हिस्सों में बांटने की बात कही गई थी। हाईकोर्ट के फैसले से असंतुष्ट होकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तीनों ही पक्ष दरअसल उस न्याय की तलाश में हैं जो उन्हें अपने हिसाब से सही लगता है। सुप्रीम कोर्ट के सामने भी साफ है कि सभी पक्षकार मामले का न्याय या शांतिपूर्ण समाधान नहीं, बल्कि अपने न्याय के लिए लड़ने का अधिकार हासिल करना चाहते हैं। इसलिए उसने मामले को एक तकनीकी कानूनी मुद्दा बनाकर पक्षकारों को यह सुविधा दे दी है। अब सभी पक्षकार जब तक चाहें, जिस तरह से चाहें, अदालत में अपनी याचिकाएं लगा सकते हैं।
 दरअसल, सामाजिक दृष्टि से ऐसे विस्फोटक मसलों का समाधान अदालतों के द्वारा हो भी नहीं सकता। इसीलिए यह मामला विभिन्न नीची-ऊंची अदालतों से होता हुआ फिलहाल सुुप्रीम कोर्ट में है, जहां वह कब तक चलेगा, यह कोई नहीं कह सकता, खुद सुप्रीम कोर्ट भी नहीं। यदि फैसला बाबरी मस्जिद के पक्षकारों के खिलाफ गया, जिसकी संभावना कम ही है, तो हो सकता है कि मुस्लिम समुदाय उसे स्वीकार कर ले, जैसा कि उसके नुमाइंदों की ओर से लगातार कहा भी जाता रहा है। लेकिन अगर फैसला राम मंदिर के पक्षकारों के खिलाफ होता है तो संघी कुनबा उसे कतई स्वीकार नहीं करेगा। उसके नेता फिर वही राग अलापेंगे कि यह हमारे लिए धार्मिक आस्था का सवाल है और राम का जन्म कहां हुआ था, यह अदालत से तय नहीं हो सकता। संघ परिवार को यह अच्छी तरह मालूम है कि कानूनी रूप से उनका पक्ष उतना मजबूत नहीं है, जितना बाबरी मस्जिद के पक्षकारों का है। यही वजह है कि संघ परिवार और राजग सरकार ने भी कभी कोशिश नहीं कि इस पूरे मसले का न्यायिक समाधान जल्द से जल्द हो जाए।
अब सुप्रीम कोर्ट का भी जब कभी इस मामले में जो फैसला आएगा, वह सर्वमान्य नहीं होगा और विवाद अपनी जगह कायम रहेगा। इसलिए इस मसले का कोई भी हल अदालत के बाहर दोनों समुदायों के बीच समझौते से ही संभव है। लेकिन दोनों ही पक्षों ने ऐसा करने में अभी तक कोई रूचि नहीं दिखाई है। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, भारतीय जनता पार्टी आदि के नेता अपने बयानों में जरूर यह इच्छा जताते रहते हैं, जिससे यह भ्रम होता है कि संघी कुनबा जल्द से जल्द राम मंदिर बनाना चाहता है, लेकिन दरअसल राम मंदिर बनाने की जल्दी किसी को नहीं है। यह इसी से जाहिर है कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुए लगभग दो दशक हो चुके हैं, फिर भी मंदिर बनाने की कोई मुहिम शुरू नहीं हो पाई है। बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद के कुछ वर्षों तक जरूर मंदिर बनाने के लिए देश भर से ईटें और चंदा जुटाने का कार्यक्रम चलाया गया तथा राम मंदिर के नए-नए मॉडल भी बनाए जाते रहे, लेकिन बाबरी मस्जिद को ढहाने के लिए जो उत्साह दिखाया गया, वह राम मंदिर बनाने के लिए कभी नहीं दिखाया गया। दिखाया भी नहीं जा सकता, क्योंकि जिस तरीके से बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया, उस तरीके से राम मंदिर नहीं बनाया जा सकता।
 अयोध्या में जिस जगह बाबरी मस्जिद थी, वहां मंदिर तो अब तभी बन सकता है जब हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कोई समझौता हो जाए। ऐसा नहीं है कि यह समझौता नहीं हो सकता। हो सकता था और आज भी हो सकता है, यदि यह मामला शुद्घ रूप से धार्मिक होता और विश्व हिंदू परिषद ने इसे उसी स्तर पर उठाया होता। भारत के मुसलमान इतने तंगदिल भी नहीं हैं कि वे अपने हिंदू भाई-बहनों की धार्मिक इच्छा का सम्मान न कर सकें। लेकिन हुआ यह कि जब इस मुद्दे को स्थानीय स्तर से ऊपर लाया गया, तभी से शक्ति प्रदर्शन का मामला बना दिया गया। संघ परिवार की ओर से हमेशा यह जताया गया कि हमें किसी की अनुकंपा से राम मंदिर नहीं चाहिए, वह जमीन तो हमारी ही है और हम उसे अपनी ताकत के बल पर लेकर रहेंगे। संघ परिवार के इसी रवैये ने मुस्लिम कट्टरपंथ के लिए खाद-पानी का काम किया। वैसे देश के आम मुसलमानों को बाबरी मस्जिद से न पहले कोई लेना-देना था और न ही आज कुछ लेना-देना है, लेकिन अयोध्या के सवाल पर संघ परिवार के आक्रामक रवैये ने उनके दिल-दिमाग में यह आशंका जरूर पैदा कर दी है कि अगर आज सद्‌भावना दिखाते हुए उन्होंने अयोध्या की विवादित भूमि पर अपना दावा छोड़ दिया तो कल देश में उनकी दूसरी इबादतगाहों पर भी संघ परिवार इसी तरह अपना दावा जताने लगेगा। उनकी यह आशंका निराधार भी नहीं है, क्योंकि संघ परिवार ने ऐसे मामलों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार कर रखी है और उसका यह नारा 'अयोध्या तो झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है' भी न सिर्फ मुसलमानों को बल्कि देश के हर अमन और भाईचारा पसंद व्यक्ति को डराता है।
 दरअसल, मामले की मौजूदा कानूनी स्थिति और राजनीतिक-सामाजिक हकीकत के मद्देनजर अयोध्या में राम मंदिर बनना तब तक नामुमकिन है जब तक भारत में संवैधानिक या अन्य किसी किस्म का फासीवाद कायम नहीं हो जाता। अगर सामान्य तरीके से यह मंदिर बनाया जा सकता होता तो बाबरी मस्जिद तोड़ने के लिए फासीवादी तरीके अपनाने की और अदालत में झूठा हलफनामा दाखिल करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। अब इसमें किसी को कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि संघी कुनबे का राम मंदिर अभियान उसकी उस व्यापक मानसिकता और मांग पत्र का हिस्सा है, जिसके बाकी हिस्से कभी गोहत्या पर पाबंदी की मांग, कभी धर्मांतरण रोकने के लिए कानून, कभी ईसाई मिशनरियों को देश निकाला देने की मुहिम, कभी गिरजाघरों, पादरियों और ननों पर हमले, कभी धार की भोजशाला हिंदुओं के सुपुर्द करने की मांग, कभी श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने की जिद, कभी धारा 370 को हटाने की मांग, कभी समान नागरिक संहिता और कभी स्कूलों में वंदे मातरम और सरस्वती वंदना का गायन अनिवार्य करने की मांग के रूप में सामने आते हैं। इनमें से कोई एक मुहिम परिस्थितिवश कमजोर पड़ जाती है तो दूसरी को शुरू कर दिया जाता है।
 इस बात को ध्यान में रखने पर ही समझा जा सकता है कि भाजपा जब तक वह केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार का नेतृत्व करती रही, उसने अपने तीन परमप्रिय मुद्दों को भले ही स्थगित रखा हो, लेकिन इन मुद्दों के पीछे जो कथित हिंदूवादी एजेंडा है, उसका परित्याग कभी नहीं किया। अब चूंकि उत्तरप्रदेश विधानसभा होने जा रहे हैं और पार्टी वहां अपनी खोई हुई जमीन फिर से हासिल करना चाहती है। इसलिए भाजपा समेत समूचे संघ परिवार को जनता के इस सवाल का जवाब देने के लिए कुछ तो तैयारी करनी ही होगी कि दो दशक बाद भी अयोध्या में वह राम मंदिर क्यों नहीं बनाया जा सका, जिसके लिए बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी। भाजपा नेतृत्व के लिए इस आरोप का बोझ अपने सिर पर लेकर चलना मुश्किल होगा कि वे अपने आराध्य राम को भूल गए हैं। इसीलिए भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने भी कुछ दिनों पहले अयोध्या से ही अपनी पार्टी के चुनाव अभियान की शुरूआत की थी। उन्होंने वहां रामलला के दर्शन करने के बाद आयोजित रैली में उत्तर प्रदेश में मायावती के रावण राज्य का अंत कर राम राज्य की स्थापना का आह्वान किया था और यह हुंकार भी लगाई थी-'सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर यहीं बनाएंगे।' लेकिन यह मंदिर वह कब और कैसे बनाएंगे, यह कोई नहीं जानता, खुद गडकरी और आडवाणी भी नहीं।
                                             

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