Friday, February 24, 2012

ऐसे तो लड़ चुके आतंकवाद से




राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र (एनसीटीसी) के गठन पर लगभग एक दर्जन राज्यों के मुख्यमंत्रियों के कड़े एतराज के चलते आखिर केंद्र सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े और कहना पड़ा कि जब तक केंद्र और राज्यों के बीच सहमति नहीं बनेगी तब तक उस पर अमल स्थगित रखा जाएगा। दरअसल, यह भारत जैसे देश में ही संभव है कि आतंकवाद जैसी गंभीर समस्या से निपटने के सवाल पर भी राजनीतिक पार्टियां और सरकारें अपने राजनीतिक दांव-पेंच से बाज नहीं आती हैं। एनसीटीसी के गठन को लेकर केंद्र और कुछ राज्य सरकारों के बीच मचा घमासान, इस प्रवृत्ति की ताजा मिसाल है। आतंकवाद और आतंकवादियों को नेस्तनाबूद करने के मकसद से गठित यह संस्था वजूद में आने से पहले ही राज्यों के अधिकारों के नाम पर दलीय और क्षेत्रीय राजनीति का शिकार हो गई। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता और त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार के साथ ही आतंकवाद के मुद्दे पर सख्त दिखने का कोई मौका न गंवाने वाली भारतीय जनता पार्टी और उसके शासन वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी संघवाद की दुहाई देते हुए इसके गठन पर एतराज जताया था। केंद्रीय मंत्री और नेशनल कांफ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला तथा तेलुगु देशम पार्टी के सुप्रीमो चंद्रबाबू नायडू भी एनसीटीसी के गठन से असहमति जताई थी।
 आतंकवाद पर अंकुश लगाने वाली इस एजेंसी को राज्यों के अधिकारों में दखलंदाजी और संविधान के संघीय ढांचे की मर्यादा का उल्लंघन बताया गया। विरोध करने वाले मुख्यमंत्रियों का आरोप है कि केंद्र सरकार ने उनसे सलाह-मशविरा किए बगैर ही एनसीटीसी का गठन कर दिया है और उसे राज्यों में संदिग्ध आतंकवादियों की तलाश में छापा डालने, जांच करने और गिरफ्तार करने के जो अधिकार दिए गए हैं वे राज्यों के संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले हैं, लिहाजा एनसीटीसी के गठन से संबंधित अधिसूचना वापस ली जाए। कमोबेश यही दलील भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए पिछले दिनों बनाए जा रहे लोकपाल कानून के मामले में भी दी गई थी और लोकसभा में पारित होने के बावजूद ममता बनर्जी की पार्टी के घोर विरोध के चलते लोकपाल विधेयक राज्यसभा में पारित नहीं हो सका था। खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश पर भी राजनीतिक असहमति के चलते सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। आशंका है कि लोकपाल विधेयक और खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के मसले जैसा ही हश्र अब इस प्रस्तावित आतंकवाद निरोधक केंद्र का भी हो सकता है। महत्वपूर्ण मसलों पर सरकार के पीछे हटने को विपक्ष भले ही अपनी जीत माने, पर देश-दुनिया में यही संदेश जा रहा है कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व नीतियां बनाने और निर्णय लेने के मामले में जबर्दस्त रूप से दुविधा का शिकार है।
 एक तरफ मुख्य विपक्षी दल भाजपा और तमाम गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने राज्यों की स्वायत्तता और संघवाद की दुहाई देते हुए एनसीटीसी के गठन को संघीय ढांचे पर हमला बताया तो दूसरी तरफ गृह मंत्री पी चिदंबरम ने संविधान के अनुच्छेद 355 का हवाला देते हुए कहा कि देश की आतंरिक सुरक्षा केंद्र और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है। केंद्र सरकार के फैसले का बचाव करते हुए कांग्रेस ने भी एनसीटीसी के गठन पर एतराज उठाने वालों को नसीहत दी कि उन्हें आतंकवाद से लड़ने की सामूहिक जिम्मेदारी में अपनी भूमिका समझनी चाहिए। केंद्र और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ सत्ता में साझेदारी कर रही ममता बनर्जी अगर विरोध जताने वाले मुख्यमंत्रियों में शामिल नहीं होती तो कांग्रेस यह भी कह सकती थी कि आतंकवाद की चुनौती का मुकाबला करने को लेकर राजग या गैर कांग्रेसी दल और उनके मुख्यमंत्री गंभीर नहीं हैं।
केंद्र और कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच जारी इस मोर्चेबंदी से आम आदमी का परेशान होना स्वाभाविक है। उसे संघवाद और संविधान में वर्णित केंद्र और राज्यों के अधिकारों जैसे पेचीदा सवालों से कोई लेना-देना नहीं। वह तो बस यही चाहता है कि जैसे भी हो, आए दिन खून-खराबा मचाने वाले आतंकवाद से देश को निजात मिले। निश्चित ही एनसीटीसी के गठन पर छिड़ा राजनीतिक घमासान देश के आम आदमी को धक्का पहुंचाने वाला है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि एक ओर तो केंद्र सरकार की इस बात के लिए आलोचना की जाती है कि वह आतंकवाद के खिलाफ सख्त कानूनी और सुरक्षात्मक कदम उठाने को लेकर गंभीर नहीं है। ऐसी आलोचना करने में भाजपा सबसे आगे रहती है। लेकिन अब जब केंद्र ने एक बहुुप्रतीक्षित ठोस कदम उठाया है तो उसका विरोध करने में भी भाजपा और उसके मुख्यमंत्री सबसे आगे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि कानून-व्यवस्था मुख्य रूप से राज्यों का विषय है। हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस समय संविधान की रचना की थी उस वक्त आज के आतंकवाद जैसी कोई चुनौती नहीं थी और न ही उस समय ऐसी कल्पना की जा सकती थी। इसलिए उन्होंने कानून-व्यवस्था को राज्य का विषय मानते हुए संविधान में इसी अनुरूप व्यवस्था की थी जो उचित ही थी। लेकिन आज आतंकवाद किसी एक या दो राज्यों के लिए नहीं, बल्कि समूचे राष्ट्र-राज्य के लिए पिछले लगभग दो दशकों से एक गंभीर चुनौती बनकर हमारे सामने है। यह एक ऐसी संगठित आपराधिक परिघटना है जिसके तार कई राज्यों में फैले हुए हैं और सरहदों के पार पड़ोसी मुल्कों में भी। इसलिए इसके मुकाबले के लिए केंद्र और राज्यों की एक समन्वित रणनीति की जरूरत लंबे समय से महसूस की जाती रही है। इस जरूरत को नक्सल समस्या के परिपेक्ष्य में भी महसूस किया जा सकता है जो कि आतंकवाद से भी बड़ी चुनौती बनकर उभर रही है।
अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली आदि दुनिया के कई देशों में राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद निरोधक केंद्र वर्षों से अस्तित्व में हैं और काम कर रहे हैं। उन सभी देशों में राज्यों को जो अधिकार और स्वायत्तता हासिल है वह किसी भी तरह हमारे यहां से कम नहीं है। वहां भी केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें हैं। लेकिन उन देशों में इस मसले पर कभी भी केंद्र और राज्यों के बीच तकरार की नौबत नहीं आई। उन्हीं देशों की तर्ज पर केंद्र सरकार ने 26/11 को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के बाद प्रस्तावित आतंकवाद निरोधक केंद्र के गठन की घोषणा की थी, लेकिन उस पर अमल करने में उसे तीन साल का समय लग गया। सवाल है कि इस मामले में अनावश्यक रूप से इतना विलंब होने के बावजूद इस दौरान केंद्र सरकार ने भी इस बारे में राज्यों से विचार-विमर्श क्यों नहीं किया? जब आतंरिक सुरक्षा के मसले पर केंद्र समय-समय पर राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठकें करता रहता है तो एनसीटीसी के गठन पर उनसे बातचीत करने में क्या हर्ज था? उचित तो यही होता कि इतना महत्वपूर्ण कदम उठाने के बारे में केंद्र सरकार अपने गठबंधन के सदस्य दलों और राज्य सरकारों को भी विश्वास में ले लेती। ऐसा करने से वह इस मामले में अपनी फजीहत से बच सकती थी। यह समझ से परे है कि लोकपाल विधेयक और खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश जैसे महत्वपूर्ण मसलों पर इसी तरह मुंह की खाने के बावजूद यूपीए सरकार और कांग्रेस यह क्यों भूल जाती है कि केंद्र और राज्यों में सत्ता पर उसके एकाधिकार के वे दिन कब के लद गए हैं जब केंद्र कोई कोई फैसला करता था और राज्य सरकारें चुपचाप उसे मान लेती थी।
 जिन राज्य सरकारों और राजनीतिक दलों ने एनसीटीसी के गठन पर हायतौबा मचाई, उसमें राज्यों के अधिकारों की चिंता कम और भविष्य के राजनीतिक समीकरणों की झलक ज्यादा दिखाई दी है। यही वजह है कि आतंकवाद के खिलाफ हमेशा मुखर दिखने वाली भाजपा ने भी पहली बार एनसीटीसी के खिलाफ अपना मुंह खोला। लेकिन ऐसा करते वक्त वह यह तथ्य भूल गई कि एनसीटीसी के गठन का फैसला 2001 में राजग सरकार के समय भी हुआ था और फैसला लेने वाले थे उस सरकार के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी। अब वह राजनीतिक अवसरवाद का परिचय देते हुए दो साल बाद होने वाले लोकसभा के चुनाव के मद्देनजर गैर कांग्रेसी दलों को अपने गठबंधन में शामिल करने का सपना बुनती दिख रही है। उसे लगता है कि एनसीटीसी के गठन पर एतराज जताने वाले नवीन पटनायक, ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू जैसे ताकतवर क्षत्रप गैर कांग्रेसवाद के नाम पर फिर से राजग की छतरी तले आ सकते हैं। लेकिन एक नए राजनीतिक मोर्चे गठन की संभावना तलाशने के जुनून में आतंकवाद जैसे गंभीर मोर्चे पर उसकी इस तरह की राजनीतिक कलाबाजी निश्चित ही अफसोसनाक हैं और आतंकवादियों के हौसले बुलंद करने वाली भी।

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