Tuesday, January 24, 2012

सिर्फ राष्ट्रीय शर्म बताना ही काफी नहीं



लंबे समय से भारत ऐसा देश रहा है, जहां एक ओर तो सम्पन्नता और समृध्दि के द्वीप जगमगा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर घोर बदहाली का महासागर हिलोरे मार रहा है। बीते दो दशकों से यानी नव उदारीकृत आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद से यह फासला और बढ़ा है। एक छोटा तबका आला दर्जे के ऐशो-आराम वाली जीवनशैली के मजे ले रहा है और दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में हमारे देश के धनकुबेर शामिल हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को भरपेट भोजन तक मयस्सर नहीं है। हमारे लगभग आधे बच्चे कुपोषित हैं। 'एक ओर देश में हर साल उचित भंडारण के अभाव में लाखों टन अनाज सड़ जाता है जबकि दूसरी ओर करोड़ों भारतीयों को भूखे पेट सोना पड़ता है।' यह कहते हुए कोई एक साल सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाई थी लेकिन उसके बाद भी हालात में कोई बदलाव नहीं आया है। भंडारण की बदइंतजामी के चलते अनाज के सड़ने और लोगों के भूख से मरने का सिलसिला लगातार जारी है।
कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों के जरिए भारत में कुपोषण की व्यापकता सामने आ चुकी है और अब एक अन्य सर्वेक्षण ने भी इस भयावह हकीकत की तसदीक की है। कई दलों के सांसदों और विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हस्तियों की एक संस्था द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश में कुपोषण की स्थिति को राष्ट्रीय शर्म का विषय करार दिया है। इस सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि पिछले सात वर्षों में बच्चों में व्याप्त कुपोषण में बीस फीसदी की कमी आई है लेकिन अभी भी देश के 42 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। चूंकि बच्चों को आने वाले कल की बुनियाद माना जाता है, इसलिए यह हमारे लिए बेहद चिंता की बात है, क्योंकि हमारे देश के भविष्य की बुनियाद ऐसे बच्चों के रूप में तैयार हो रही है जो कुपोषित हैं, कमजोर हैं और जिनके बीमार होने की आशंका अधिक है। चूंकि यह सर्वेक्षण देश के महज नौ राज्यों के 112 जिलों में 73 हजार परिवारों को आधार बनाकर किया गया है, लिहाजा इसे देश में कुपोषण की मुक्कमिल तस्वीर नहीं माना जा सकता, जो कि और भी भयावह हो सकती है।
कुपोषण का मतलब केवल भोजन का अभाव नहीं बल्कि इस अभाव से पैदा होने वाली विकृतियां भी हैं। इसका मतलब मजबूरी में मिला ऐसा भोजन जो तात्कालिक रूप से भूख के राक्षस को तो पटक देता है लेकिन जिंदगी की गाड़ी सुचारू रूप से चलाने के लिए शरीर को जिन तत्वों की जरूरत होती है, वे इससे गायब रहते हैं। इसलिए 42 फीसदी बच्चों के कुपोषित होने की हकीकत जानकर शर्म आना तो लाजिमी है ही, देश के भविष्य की सोच कर डर भी लगता है। कुपोषण का यह आंकड़ा देश में गरीबी रेखा से नीचे किसी तरह गुजर-बसर कर रही आबादी के आसपास का है जो बता रहा है कि गरीबों की झोपड़ी में कैसे देश का लाचार-बीमार भविष्य पनप रहा है।  
ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2011 में (दुनिया के 81 विकासशील और पिछड़े मुल्कों में) भारत का स्थान 67 वां है, जबकि बांग्लादेश का 68 वां। दुनिया के महज 14 देश ही हमसे पीछे हैं। चीन, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, वियतनाम जैसे एशियाई देशों के अलावा रवांडा और सूडान, जैसे देश भी इस मामले में भारत से बेहतर स्थिति में नजर आते हैं, जबकि भारत की छवि तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था की बनी हुई है। हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने इस बात पर चिंता और हैरानी जताई है कि कई सालों से ऊंची विकास दर हासिल करते रहने के बावजूद ऐसे हालात क्यों बने हुए हैं। दरअसल, ऊंची विकास दर अर्थव्यवस्था की गतिशीलता का पैमाना तो हो सकती है लेकिन यह हाशिए पर जी रहे लोगों की बेहतरी की गारंटी नहीं हो सकती। यही वजह है कि राष्ट्रीय औसत से ज्यादा विकास दर और औद्योगिक रूप से ज्यादा विकसित माने जाने वाले गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में भी कुपोषण की व्यापकता देश के पिछड़े कहे जाने वाले राज्यों जैसी ही है, जिसका खुलासा कुछ दिनों पहले जारी हुई योजना आयोग की मानव विकास रिपोर्ट से हुआ था। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के एक तिहाई लोग और करीब 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।
 प्रधानमंत्री ने कुपोषण की मौजूदा स्थिति को शर्मनाक बताते हुए देश को एक और तल्ख हकीकत से रूबरू कराया है। वह यह कि कुपोषण उन्मूलन के लिए शुरू की गई 'एकीकृत बाल विकास परियोजना' अपेक्षित नतीजे नहीं दे पाई। दुनिया के तमाम गरीब देश कुपोषण की समस्या का सामना कर रहे हैं और संयुक्त राष्ट्र ने इस समस्या के अंत के लिए वर्ष 2015 की डेडलाइन भी तय कर रखी है। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि अपने देश में इस लक्ष्य का हासिल करने में अभी लगभग चौथाई सदी यानी 25 साल से भी ज्यादा का समय लगेगा। तेजी से विकास कर रहे चीन को देख कर हम भले ही ईष्या या कुंठा पाल लें, लेकिन हमें उस देश से सीखना चाहिए कि उसने अपने यहां कुपोषण खत्म करने का काम संयुक्त राष्ट्र की तय समय सीमा से पहले ही कैसे पूरा कर लिया। हम इस मोर्चे पर कितने मुस्तैद हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कुपोषण के खिलाफ अभियान छेड़ने के लिए खुद प्रधानमंत्री की पहल पर लगभग डेढ़ साल पहले एक उच्च स्तरीय समिति का गठन हुआ था लेकिन आज तक उसकी कोई बैठक ही नहीं हुई। कुपोषण के खिलाफ जंग छेड़ने के लिए 'आंगनबाड़ी' जैसी योजना भी बनी है लेकिन वह भी उपेक्षा के दलदल से निकल ही नहीं पा रही है। आंगनबाड़ी केंद्रों में कार्यकर्ताओं की कमी, अस्वच्छ वातावरण, शौचालय और पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव तथा गंदगी में रखी गई भोजन सामग्री जैसे हालात ने उस योजना का सत्यानाश कर रखा है, जो कुपोषण की समस्या का काफी हद तक उन्मूलन कर सकती थी।
कुपोषण एक तरह से धीमे जहर के समान है जो शरीर को जिंदा तो रखता है लेकिन उसे भीतर से खोखला भी बनाता रहता है। इसकी अनदेखी से भविष्य ही प्रभावित नहीं होता है बल्कि वर्तमान को भी बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों को भी कुपोषण रूपी इस दैत्य से उलझना पड़ा था। मैक्सिको, ब्राजील और घाना जैसे देशों ने इस दैत्य का मुस्तैदी से सामना किया तो उन्हें बेहतर नतीजे भी मिले। प्रधानमंत्री द्वारा समस्या को गंभीर और शर्मनाक बताने भर से उसका निदान नहीं हो सकता। विकास के हमारे मौजूदा मॉडल में आर्थिक प्रगति और विकास का लाभ छनकर समाज के निचले तबकों में अपने आप नहीं पहुंचता। इसीलिए खाद्य सुरक्षा कानून और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी मनरेगा जैसी योजनाओं और कार्यक्रमों की जरुरत पड़ती है। लेकिन अनियमितताओं और भ्रष्टाचार से सनी इन योजनाओं के जरिए किसी तरह हम मानवीय अस्तित्व ही बचा पा रहे हैं, भावी पीढ़ी नहीं। इसलिए भावी पीढ़ी को बचाने के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय अभियान की दरकार है जिसमें सरकारों के साथ ही समाज के सक्षम तबकों और कॉरपोरेट जगत को भी उत्साह के साथ आगे आकर शिरकत करनी चाहिए।

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