Tuesday, January 3, 2012

अण्णा आंदोलन के आगे का रास्ता


भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सशक्त लोकपाल बनाने की मांग को लेकर पहले तीन दिन और फिर बारह दिन का अनशन करने वाले अण्णा हजारे ने तीसरी बार न सिर्फ अपना अनशन बीच में ही खत्म कर दिया बल्कि प्रस्तावित जेल भरो आंदोलन का ऐलान भी वापस ले लिया। उनके इस फैसले के पीछे कई वजहें हैं और उसके कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। इस फैसले में उनकी सेहत का खराब होना भी एक मुख्य वजह है। लेकिन इस आंदोलन को बीच में रोकने के पीछे कहीं न कहीं वैसा अपेक्षित जनसमर्थन न मिलना भी एक कारण है, जैसा गत अगस्त में दिल्ली में रामलीला मैदान में मिला था। दरअसल, कोई भी आंदोलन बगैर जनसमर्थन के कामयाब नहीं हो सकता। अण्णा के आंदोलन को इस बार इसी मुश्किल से रूबरू होना पड़ा है और जो फैसला कुछ पहले लिया जा सकता था उसे लेने में थोड़ी देर हो गई। वैसे किसी भी आंदोलन में गलतियां होना स्वाभाविक है और अण्णा हजारे की टीम से भी गलतियां हुई।
संसद सत्र के दौरान अनशन और फिर जेल भरो आंदोलन का ऐलान किसी भी तरह से तार्किक और औचित्यपूर्ण नहीं था। उन्हें संसद में विधेयक पेश होने और उसके नतीजे का इंतजार करना चाहिए था। वैसे संसद की कार्यवाही के दौरान किसी मुद्दे पर अनशन करना या धरना देना कोई नई बात नहीं है। संसद के हर सत्र के दौरान दिल्ली में कई रैलियां और प्रदर्शन होते हैं। सही समय पर अपनी बात रखना, संसद को सही फैसला करने की चेतावनी लोकतंत्र में अनुचित नहीं कहा जा सकता। लेकिन अण्णा हजारे के आंदोलन पर यह बात लागू नहीं होती, क्योंकि संसद अपने पिछले सत्र में उन्हें आश्वासन दे चुकी थी और उसके बाद भी अण्णा और उनके साथी मीडिया के माध्यम से सरकार को लगभग रोजाना ही चेतावनी दे रहे थे। इसलिए उन्हें संसद के फैसले का इंतजार करना चाहिए था। अण्णा समूह द्वारा आजाद मैदान में अनशन की अनुमति के दायर याचिका को खारिज करते हुए बंबई हाईकोर्ट ने भी इसी आशय की टिप्पणी की थी।
दरअसल अण्णा की टीम रामलीला मैदान के आंदोलन जैसी कामयाबी को मुंबई के एमएमआरडीए मैदान में भी दोहराना चाहती थी, लेकिन मुंबई में अण्णा के अनशन के पहले ही दिन जुटी मामूली भीड़ से उसे इस हकीकत का अहसास हो गया कि इतिहास कभी भी अपने को दोहराता नहीं है। हालांकि अगस्त में अण्णा के समर्थन में रामलीला मैदान में जितने लोग जुटे थे उससे कई गुना ज्यादा लोग ऐसे थे, जिन्होंने सड़कों पर उतरे बगैर ही अण्णा को समर्थन दिया था। इस परोक्ष समर्थन का भाव यह था कि अण्णा और उनके साथी जो कह रहे हैं और कर रहे हैं वह बिल्कुल सही है। अण्णा की टीम को अगस्त में मिले प्रत्यक्ष समर्थन में दिसंबर आते-आते जो कमी आई है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि परोक्ष समर्थन में भी कुछ न कुछ कमी तो आई ही होगी। जनसमर्थन में इस कमी का मतलब यह नहीं लगाया जा सकता कि लोगों का अण्णा हजारे की व्यक्तिगत ईमानदारी या उनकी विश्वसनीयता पर भरोसा कम हुआ है। अण्णा की आंदोलनात्मक रणनीति में कोई गलती हो सकती है, राजनेताओं के बारे में उनके असंयमित बयानों पर भी ऐतराज किया जा सकता है लेकिन उनकी सादगी और ईमानदारी निर्विवाद रूप से असंदिग्ध है। मगर यही बात अण्णा की टीम के बाकी सदस्यों के बारे में कोई दावे से नहीं कह  सकता।
 दरअसल अण्णा के आंदोलन में शुरु से कुछ कमजोरियां रहीं हैं। अण्णा के कुछ सहयोगी तो आंदोलन के चलते मीडिया में अपने को मिले महत्व से इतने अधिक बौरा से गए कि वे अपने को अण्णा से बड़ा नहीं तो उनके समकक्ष तो मानने ही लगे। उनकी दबी-छिपी राजनीतिक दलीय प्रतिबध्दता और महत्वाकांक्षाएं भी हिलोरें मारने लगी। उनके और विपक्षी (भाजपा) नेताओं के सरकार और कांग्रेस विरोधी बयानों में कोई फर्क नहीं रहा। इस तरह के उनके दंभी और निहित स्वार्थ भरे रवैये से कई लोगों को यह अहसास होने लगा कि यह आंदोलन महज भ्रष्टाचार या व्यवस्था के विरुद्घ ही नहीं बल्कि एक पार्टी विशेष के खिलाफ भी हो गया है। हिसार लोकसभा उपचुनाव में उनके कांग्रेस के खिलाफ धुआंधार प्रचार ने भी लोगों के इसी अहसास को पुष्ट किया। खुद अण्णा ने भी जाने-अनजाने अपने बयानों से लोगों के इस अहसास को मजबूत ही किया।
अण्णा ने अपना अनशन और जेल भरो आंदोलन वापस लेने की घोषणा करते हुए कहा है कि वे अब विधानसभा चुनाव वाले पांच राज्यों में जाकर लोगों का आह्वान करेंगे कि वे मजबूत लोकपाल विधेयक के विरोधियों को हराएं। उनका यही फैसला उनके आंदोलन का सबसे बड़ा भटकाव है। यह रास्ता आंदोलन को दलीय राजनीति के रास्ते पर ले जाने वाला है। वैसे राजनीति के रास्ते पर जाने में कोई बुराई भी नहीं है, क्योंकि अगर आप किसी राजनीतिक व्यवस्था से आंदोलन के जरिए कुछ करवाना चाहते हैं तो उस व्यवस्था को चुनाव के मैदान में चुनौती देना भी आंदोलन की एक तार्किक परिणति ही है। मगर, सवाल उठता है कि कौन सी ऐसी पार्टी है जो अण्णा की अपेक्षा के अनुरूप मजबूत लोकपाल चाहती है? संसद में लोकपाल विधेयक पर बहस के दौरान जो कुछ हुआ उसे देखकर तो यही जाहिर हुआ कि कोई भी पार्टी नहीं चाहती थी कि लोकपाल विधेयक पारित हो। सभी पार्टियों की भाव-भंगिमा बता रही थी कि वे तो सिर्फ यह चाहती थीं कि विधेयक पारित न हो पाने की तोहमत उन पर न लगे।
अण्णा ने चुनाव वाले राज्यों में यानी राजनीति के मैदान में जाने का फैसला किया है तो बेहतर होगा कि वे अपने उम्मीदवार भी चुनाव में उतारें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो वे जो भी मुहिम चलाएंगे, उसका लाभ कांग्रेस विरोधी राजनीतिक पार्टियों को ही मिलेगा। ऐसा होने पर उनके आंदोलन पर लग रहे इस आरोप की पुष्टि ही होगी कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा द्वारा प्रायोजित आंदोलन है। हालांकि चुनाव के नतीजों को अण्णा की अपील प्रभावित कर पाएगी, इस बारे में भी संदेह की पर्याप्त गुंजाइश है। इस संदेह की पुष्टि पिछले दिनों अण्णा के गृह राज्य महाराष्ट्र में हुए स्थानीय निकाय चुनावों से भी होती है, जिनमें अण्णा के मुखर विरोधी शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने अपनी जीत का परचम फहराया है। दरअसल, चुनाव नतीजों को अपने अनुकूल प्रभावित करने के लिए जिस संगठन कौशल और रणनीतिक दांव-पेंचों की दरकार होती है वे अण्णा की टीम के पास नहीं है। अण्णा के सहयोगियों की समस्या यह है कि वे अपने समर्थन में जुटने वाली भीड़ को ही अपनी संगठन-शक्ति मानते हैं।
अण्णा अपने को गांधीवादी मानते हैं। गांधी की शिक्षा के अनुरूप उन्होंने आंदोलन के दौरान लगातार इस बात पर जोर दिया है कि हिंसा न हो। यह अच्छी बात है लेकिन उन्हें गांधी से कुछ और भी सीखना चाहिए। गांधी ने जब भी किसी मुद्दे को उठाया, उसमें सांकेतिक विजय मिलने के साथ ही एक नए मुद्दे को हाथ में लिया। कभी भी किसी आंदोलन को उसकी अंतिम परिणति तक नहीं घसीटा। अण्णा के आंदोलन का अभी तक का सफर कामयाब रहा है। देश का हर व्यक्ति यह मान चुका है कि लोकपाल नाम की एक संस्था देश में होनी चाहिए। यह कोई कम बड़ी कामयाबी नहीं है। लोकपाल विधेयक लोकसभा में जैसे-तैसे पारित होने के बाद राज्यसभा में सरकार व उसके सहयोगी और विपक्षी दलों की बाजीगरी के चलते भले ही पारित न हो सका हो मगर उसके पारित होने की संभावनाएं अभी भी खत्म नहीं हुई है। अब वह संसद के बजट सत्र में पारित हो या बाद में किसी और सत्र में लेकिन उसका पारित होकर कानून बनना तो तय है। भले ही वह अण्णा हजारे के आंदोलन की अपेक्षाओं के पूरी तरह अनुरूप न हो, लेकिन जिस रूप में भी पारित होकर कानून की शक्ल अख्तियार करेगा, उससे कुछ जड़ता तो टूटेगी ही और उसका श्रेय अण्णा के आंदोलन से पैदा हुई देशव्यापी जनचेतना और सरकार तथा राजनीतिक दलों पर बने जनदबाव को ही जाएगा। इसलिए बेहतर तो यही होगा कि अण्णा चुनाव मैदान में इस या उस पार्टी का विरोध करने के बजाय अपने आंदोलन के स्वरूप को व्यवस्था विरोधी ही रखते हुए उसके लिए नई जमीन की तलाश करें। यही गांधी का रास्ता है।

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