Wednesday, September 28, 2011

भारत में सोनार बांग्ला तलाशती तसलीमा


बांग्लादेश में इस वक्त शेख हसीना के नेतृत्व में एक लोकतांत्रिक और अपेक्षाकृत उदारवादी सरकार होने के बावजूद डेढ़ दशक से ज्यादा समय से निर्वासित जीवन जी रही तसलीमा नसरीन को नहीं लगता कि अपने वतन यानी बांग्लादेश लौट पाने की उनकी तमन्ना कभी पूरी हो सकेगी। अब उनकी ख्वाहिश कोलकाता में बसने की है, जिसे वह अपना दूसरा घर मानती हैं। फिलहाल भारत सरकार ने उन्हें अस्थायी तौर पर दिल्ली में रहने की इजाजत दे रखी है। ज्यादा उचित तो यह होता कि भारत सरकार तसलीमा के वीजा की अवधि को टुकड़ों-टुकड़ों में बढ़ाने के बजाय थोड़ी और हिम्मत दिखाते हुए उन्हें स्थायी नागरिकता प्रदान करने या उन्हें अपने यहां राजनीतिक शरण देने का फैसला करती, जिसके लिए कि उन्होंने कई वर्षों से आवेदन कर रखा है। यह तो तय है कि बांग्लादेश में शेख हसीना की जम्हूरी हुकूमत होते हुए भी वहां जिस तरह का माहौल है, तसलीमा के लिए अपने वतन लौटना काफी मुश्किलों भरा है। वहां उनकी सभी पुस्तकें प्रतिबंधित हैं और कई मुकदमे उनका इंतजार कर रहे हैं। हालांकि तसलीमा में इतनी क्षमता है कि वे इन मुकदमों का न्यायिक सामना कर सकें, लेकिन इसमें संदेह की पूरी गुंजाइश है कि मुकदमों की कार्यवाही शुद्ध न्यायिक आधार चल सकेगी। आखिर एक कट्टरपंथी समाज में अदालतें भी तो हवा का रूख भांपकर ही काम करती हैं। इससे भी ज्यादा तकलीफदेह आशंका यह है कि बांग्लादेश में तसलीमा का जीवन सुरक्षित रहेगा या नहीं। उनके कटे हुए सिर पर काफी बड़ी राशियों के इनाम घोषित हैं और इस्लाम के पंडे उन्हें संगसार करने पर आमादा हैं।
 तसलीमा को जब बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था, तब भी भारत सरकार ने कोई पहल नहीं की थी, अन्यथा वे तभी भारत आ जाती। उस वक्त उन्हें बांग्लादेश से निकलकर यूरोप में पनाह लेनी पड़ी थी। वहां के अनेक देशों ने उन्हें हाथों हाथ लिया था। तसलीमा को भी वहां मुक्त समाज में रहना भाया होगा। स्त्री-पुरुष समानता के तरह-तरह के रंग भी उन्हें यूरोप की धरती पर दिखाई दिए होंगे। चूंकि सामान्यतः एक लेखक या कवि की दिली ख्वाहिश अंततः अपने समाज में ही जीने की होती है, इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं था कि तसलीमा को जल्द ही अपना सुंदर, लेकिन निर्वासित जीवन एक बोझ की तरह लगने लगा। अपने मादरे वतन से अपनी जुदाई पर उन्होंने कई सुंदर और मार्मिक कविताएं लिखीं और यूरोप छोड़कर भारत में आ बसने का फैसला किया। भारत सरकार ने झिझक के साथ ही सही, अंततः उन्हें वीजा दिया और वे भारत आ सकीं।
1994 में बांग्लादेश से निर्वासित होकर तसलीमा 2004 तक यूरोप में रहीं और फिर भारत आने के बाद तीन साल उन्होंने कोलकाता बिताए। वे जब तक कोलकाता में रहीं, धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की आजादी की बहुत बड़ी पैरोकार मानी जाने वाली पश्चिम बंगाल की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार ने कभी भी सहज रूप से उनकी उपस्थिति को स्वीकार नहीं किया। जब पश्चिम बंगाल के मजहबी कट्टरपंथियों ने उनके खिलाफ फतवा जारी किया तब भी वाममोर्चा सरकार ने उन कट्टरपंथियों के खिलाफ सख्ती से पेश आने के बजाय तसलीमा पर दबाव बनाया कि वे कोलकाता छोड़ दें। तसलीमा कोलकाता छोड़कर दिल्ली आ गईं। अब चूंकि पश्चिम बंगाल का राजनीतिक परिदृश्य बदला हुआ है और वाम मोर्चा सत्ता से बाहर हो चुका है, तो तसलीमा को फिर उम्मीद बंधी है कि उन्हें कोलकाता लौटने की इजाजत मिल जाएगी।
वर्ष 2004 से अब तक टुकड़ों-टुकड़ों में तसलीमा के वीसा की अवधि बढ़ाई जाती रही है। अफसोस की बात यह है कि उन्हें राजनीतिक शरण देने का मुद्दा तो कायदे से उठ ही नहीं पाया है। सभी राजनीतिक दलों ने इस मामले में अघोषित आमसहमति से शर्मनाक चुप्पी साध रखी है। हां, 2004 से लेकर अब तक जब-जब तसलीमा के वीसा की अवधि अस्थाई तौर पर बढ़ाई गई तब-तब तक भारत सरकार की ओर से यह जरूर कहा गया है कि तसलीमा को भारत की परंपरा और धार्मिक भावनाओं के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए। इस मासूम सी लगने वाली हिदायत का निहितार्थ यह है कि सरकार में बैठे लोग चाहते है कि तसलीमा को भारत में रहते हुए बांग्लादेशी समाज के मुल्ला मौलवियों की रुढ़िवादी विचारधारा और सांप्रदायिक कारगुजारियों के खिलाफ अपना मुंह बंद रखना चाहिए, ताकि भारत के कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवी नाराज न हो। तसलीमा को स्थायी नागरिकता या राजनीतिक शरण देने के सवाल पर शायद यह कूटनीतिक संकोच भी आड़े आता होगा कि इससे बांग्लादेश से हमारे द्विपक्षीय रिश्ते खराब होंगे।
सवाल उठता है कि क्या एक लेखिका के लिए इतनी बड़ी राजनयिक जोखिम उठाई जानी चाहिए? जी हां, जरूर उठाई जानी चाहिए। माना कि तसलीमा के लेखन का साहित्यिक मूल्य बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? हर देश काल में कुछ ऐसा तूफानी लेखन होता है जो साहित्य के पैमाने पर बहुत ज्यादा ऊंचे दर्जे का भले ही न हो, पर तात्कालिक तौर पर गहरी हलचल मचाता है। भारतीय, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी जैसे समाजों में ऐसा लेखन सामाजिक बदलाव का असरदार औजार बन सकता है। इसलिए तसलीमा नसरीन को भारत में स्थायी रूप से बसने की अनुमति दी जानी चाहिए। तसलीमा भी इस आशय की मंशा एक से अधिक बार जाहिर कर चुकी है।
भारत सरकार का यह फर्ज बनता है कि वह तसलीमा को आश्वस्त करे कि भारत उनका घर है, वे जब तक चाहें, यहां रह सकती हैं और चाहे तो भारत की नागरिकता भी प्राप्त कर सकती है। भारत ने अपनी आजादी के तुरंत बाद लगभग छह दशक पहले चीन की नाराजगी मोल लेते हुए दलाई लामा और उनके हजारों अनुयायियों को राजनीतिक शरण दी थी, जो आज भी भारत में यहां-वहां रह रहे हैं। हालांकि स्टालिन की बेटी स्वेतलाना के मामले में हमारे तत्कालीन हुक्मरान सोवियत संघ (रूस) से डर गए थे। उस समय का कलंक अभी तक हमारे माथे पर लगा हुआ है। तसलीमा को भारत में शरण देकर उस कलंक को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।
यहां यह भी याद रखा जाना चाहिए कि ईरान के मजहबी नेता अयातुल्लाह खुमैनी के फरमान की परवाह न करते हुए ब्रिटेन ने किस तरह सलमान रुश्दी का साथ दिया था। यह अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करने या उसे संरक्षण देने की अद्वितीय मिसाल थी। एशिया महाद्वीप में यह भूमिका भारत भी निभा सकता है। हमारा देश 'वादे वादे जायते तत्वबोधः' का है। यहां तो वेदों को भी चुनौती दी गई है और ईश्वर को भी नकारा गया है। तसलीमा के रहने के लिए भारत से बेहतर जगह और हो भी क्या सकती है। पचास के दशक में समाजवादी चिंतक डॉ राममनोहर लोहिया ने विश्व नागरिकता की अपनी अवधारणा पेश करते हुए कहा था कि  हमारी एक भारत माता है तो एक धरती माता भी है। इसी आधार पर तसलीमा के लिए एक बांग्ला मां है तो एक धरती मां भी होनी चाहिए। और फिर महज 64 वर्ष पहले तक तो भारत माता और बांग्ला माता एक ही थीं। नालायक बेटों की नासमझी ने भले ही मां को बांट दिया हो, पर लायक बेटे तो समझदारी दिखाते हुए उसे फिर से जोड़ सकते हैं। दरअसल, तसलीमा के रहने के लिए भारत से ज्यादा उपयुक्त जगह कोई हो भी नहीं सकती। वह यहां एक ऐसे समाज में रह सकेगी जो उनके संघर्ष को आदर की दृष्टि से देखता है और जहां वे बांग्ला बोल-सुन सकेगी। मछली आखिर पानी में ही तो रह सकती है। उसे पानी में स्थायी रूप से रहने की इजाजत क्यों नहीं मिलनी चाहिए?

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