Monday, September 5, 2011

उनका असली मकसद कुछ और था



स बात से शायद ही कोई इनकार करेगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बुजुर्ग समाजकर्मी अण्णा हजारे के नेतृत्व में चले अभियान ने देश के सार्वजनिक जीवन में अभूतपूर्व हलचल पैदा की है। उनके 'अनशनास्त्र' ने देश के हर खास-ओ-आम को भारतीय समाज में व्याप्त इस गंभीर बीमारी के बारे में शिद्दत से सोचने पर मजबूर किया है। लेकिन अण्णा और उनके सहयोगियों यह दावा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता कि यह अभियान, जिसे कि वे एक व्यापक आंदोलन कह रहे हैं, विशुध्द रूप से भ्रष्टाचार के खिलाफ था एक अराजनीतिक या तथाकथित सिविल सोसायटी का लोकतांत्रिक आंदोलन था और उसमें शिरकत करने के लिए जो भीड़ उमड़ी थी वह स्वतः स्फूर्त थी। 
जो लोग भावुकतावश इस अभियान की तुलना 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' और 1974 में हुए जयप्रकाश नारायण के 'संपूर्ण क्रांति' आंदोलन से कर रहे थे या कर रहे हैं, उन्हें यह जरूर याद रखना चाहिए कि 1974 के आंदोलन में जो भी राजनीतिक और गैर राजनीतिक जमातें शरीक थीं, वे घोषित रूप से मैदान में थीं और 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और वामपंथी जमातों ने अपने आपको घोषित रूप से न सिर्फ अलग रखा था, बल्कि उस आंदोलन का सक्रिय रूप से विरोध किया था। कहने का आशय यह कि उन दोनों विराट और ऐतिहासिक आंदोलनों में कहीं कोई लुकाछिपी नहीं थी, जैसी कि अण्णा के इस अभियान के दौरान देखने को मिली। 
अण्णा हजारे के नेतृत्व में चले इस अभियान में उमड़ी भीड़ से प्रभावित और मोहित लोगों को दो दशक पूर्व भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की राम रथयात्रा और आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान दिल्ली और उत्तर भारत में उमड़े हुजूम को भी याद करना चाहिए। वैसे भीड़ तो उस दिन अयोध्या में भी कम नहीं थी, जिस दिन बाबरी मस्जिद का ध्वंस किया गया था। अगर 100-125 करोड़ लोगों के देश में अगर कुछ हजार लोगों की भीड़ जुट जाना ही किसी अभियान के लोकतांत्रिक होने का प्रमाण है तो फिर हमें ऊपर उल्लेखित घटनाओं को भी लोकतांत्रिक अभियानों की श्रेणी में रखना होगा। सवाल पूछा जा सकता है कि क्या अण्णा के समर्थन में जुटी तमाम ताकतें ऐसी समान कसौटी अपनाने को तैयार है? यह सवाल भाजपा समेत संघ परिवार के तमाम मोर्चा संगठनों से नहीं है, जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की आड़ में अपने राजनीतिक लक्ष्य साधने की सुनियोजित रणनीति पर काम कर रहे हैं। यह सवाल तो उन जनांदोलनों से जुड़े नेताओं व बुध्दिजीवियों, नव-वामपंथियों और समाजवादियोंसे है, जो अण्णा के अभियान में जुटी तथाकथित स्वतः स्फूर्त भीड़ पर मुग्ध होकर 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' की तर्ज पर थिरक रहे थे। दिल्ली की आबादी एक करोड़ से भी ज्यादा है, जबकि इस पूरे अभियान के दौरान रामलीला मैदान में किसी भी दिन 50 हजार से ज्यादा की भीड़ नहीं जुटी। जो लोग रामलीला मैदान की भीड़ और देश के कुछ बड़े शहरों में हुए कुछ हजार लोगों के प्रदर्शनों को अगर जनमत या लोकतांत्रिक अभियान का पैमाना मानते हैं तो उन्हें यह याद दिलाना भी लाजिमी होगा कि जब मई 1998 में पोकरण में हुए परमाणु परीक्षण के खिलाफ कोलकाता की सड़कों पर लगभग चार लाख लोगों ने प्रदर्शन किया था तथा देश के अन्य छोटे-बड़े कई शहरों में भी इस तरह के प्रदर्शन हुए थे। तब किसी ने भी नहीं कहा था कि देश का जनमत परमाणु हथियार विकसित करने के खिलाफ है।
 अण्णा के इस आंदोलन के दौरान कौतुहल पैदा करने वाला एक मुद्दा यह भी था कि दिल्ली के रामलीला मैदान और देश के अन्य शहरों में प्रदर्शन के लिए जुटते रहे लोगों के लिए टीशट्‌र्स, टोपियों और झंडों की थोकबंद आवक के स्रोत और प्रायोजकों कौन थे। इस बारे में पत्रकारों के पूछने पर पारदर्शिता की हिमायती टीम अण्णा का मासूमियत भरा जवाब होता था कि इतने बड़े जनांदोलन में लोग अपने-अपने तरीके से मदद कर रहे हैं। अण्णा के सहयोगियों की जो भी सफाई रही हो, पर टीशट्‌र्स, टोपियों और झंडों की बड़े पैमाने की आपूर्ति और वितरण जिस सुनियोजित तरीके हो रहा था, वह उसके प्रायोजन की सात्विकता पर सवाल खड़े करता है। इसके अलावा यह भी कम बड़ी विडंबना नहीं थी कि कुछ कारपोरेट घरानों द्वारा प्रायोजित अण्णा हजारे का नाम लिखी टीशट्‌र्स और टोपियां पहन तथा हाथ में तिरंगा थामे दिल्ली की बसों और मेट्रों में आम यात्रियों और खासकर महिलाओं से बेहूदगी करते हुए लफंगों के जो समूह और बाइक और कारों पर सवार होकर सड़कों पर उधम मचाते हुए बड़े घरों की जो बिगड़ैल औलादें रामलीला मैदान में जुटती रहीं, उन्हें ही अण्णा की टीम बड़े गर्व और मुदित भाव से अपनी ताकत बताती रही। बहरहाल, तमाम विसंगतियों के बावजूद अण्णा के अभियान के सामाजिक और प्रकारांतर से राजनीतिक प्रभावों को नकारा नहीं जा सकता।
  यह सच है कि भ्रष्टाचार भारतीय समाज की कोई हाल के वर्षों में पैदा हुई समस्या नहीं है, बल्कि आजादी के बाद से ही यह प्रवृत्ति भारतीय समाज में धीमे जहर की तरह घुलता गया है। आज यह चरम पर है और केंद्र की मौजूदा सरकार के दौर में इसने नए 'कीर्तिमान' कायम किए हैं। इसी वजह से इस सरकार के खिलाफ देश में गुस्से का माहौल बना गया है और अण्णा के आंदोलन ने यह गुस्सा नफरत में तब्दील हो गया है। लेकिन चिंताजनक और अफसोसनाक पहलु यह है कि इस नफरत को सिर्फ कांग्रेस और उसके नेतृत्ववाली सरकार के प्रति ही सीमित न रखकर इसे सरकार, संविधान और संसदीय लोकतंत्र की अवधारणा के खिलाफ नफरत के रूप में तब्दील करने की खतरनाक कोशिश की गई। 
अण्णा के इस अभियान के बारे पहले दिन से ही यह कहा जाता रहा है कि इस आंदोलन को संघ और भाजपा का परोक्ष समर्थन हासिल है। हालांकि किसी भी लोक महत्व के मसले को लेकर होने वाले जनांदोलन में कौन किस को समर्थन दे रहा है और कौन किस का समर्थन ले रहा है, इसमें किसी को भी आपत्ति नहीं होना चाहिए। लेकिन सवाल उठता है कि समर्थन के ऐसे लेनदेन को लेकर परदेदारी भी क्यों होना चाहिए? इस तरह की परदेदारी के पीछे भाजपा की मजबूरी तो समझी जा सकती है। उसकी मजबूरी यह है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वह चाहे भी कर्नाटक, उत्तराखंड, झारखंड और पंजाब में अपनी और अपने सहयोगी दलों की सरकारों दागदार रिकार्ड के चलते कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर सकती। इसीलिए उसने पहले योग गुरू बाबा रामदेव और बाद में अण्णा हजारे की पालकी का कहार बनने में ही अपनी भलाई समझी। उसके समक्ष मौजूद विश्वसनीयता के इस संकट के कारण ही संभवतः अण्णा और उनके सहयोगी अपने अभियान को लेकर संघ व भाजपा से अपनी दूरी प्रदर्शित करने का पाखंड करते रहे। दूसरी ओर भाजपा नेतृत्व भी 'मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू' की शैली में इसी पाखंड प्रहसन को दोहराता रहा। अण्णा से अपनी दूरी प्रदर्शित करने के लिए ही भाजपा अण्णा हजारे के जनलोकपाल पर अपना नजरिया साफ न करते हुए गोलमोल बातें करती रही और हर मौके पर गेंद को सरकार के पाले में धकेलते हुए यही कहती रही कि अपना नजरिया वह संसद में लोकपाल विधेयक पेश होने पर जाहिर करेगी। लेकिन दोनों ही पक्ष अपनी निकटता या आपसी समझदारी को ज्यादा देर तक छिपा नहीं सके। जैसे ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल पर लोकसभा ने एक स्वर में अण्णा से अपना अनशन खत्म करने की अपील की और प्रधानमंत्री ने जनलोकपाल विधेयक पर संसद में बहस कराने का आश्वासन दिया, भाजपा ने भी अपना पैंतरा बदलने में देरी नहीं लगाई। उसने कांग्रेस और केंद्र सरकार के मुकाबले राजनीतिक बढ़त हासिल करने के मकसद से तत्काल अण्णा के सहयोगियों के साथ औपचारिक बैठक की और जनलोकपाल की वकालत करते हुए उसके मसौदे पर आधारित एक सशक्त लोकपाल कानून पारित करने की मांग और अण्णा के आंदोलन को पूर्ण समर्थन देने की घोषणा भी कर डाली।
 अण्णा के सहयोगियों और भाजपा-संघ की इस मिलीजुली कुश्ती को लेकर अगर किसी को कोई भ्रम हो तो वह 16 अगस्त को अण्णा की गिरफ्तारी के बाद लोकसभा में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दिए बयान पर हुई चर्चा में भाग लेते हुए भाजपा नेता सुषमा स्वराज के दिए हुए उस भाषण का अवलोकन कर सकता है जिसमें उन्होंने कहा है, 'अण्णा हजारे के आंदोलन में आरएसएस की भागीदारी एक बहस का मुद्दा क्यों है? मैं नहीं समझ पाती हूं कि जब संघ किसी आंदोलन को समर्थन देने का फैसला करता है तो गृह मंत्री क्या हो जाता है? वे इतना परेशान क्यों हो जाते हैं? मैं प्रधानमंत्री से जानना चाहती हूं कि जब कश्मीर के अलगाववादी आकर देशद्रोही भाषण देते हैं तो पुलिस क्यों कदम नहीं उठाती है? आप उनके मानवाधिकारों तो रक्षा करते हैं, लेकिन आरएसएस समर्थक कोई भगवा वस्त्रधारी साधू या कोई गांधीवादी दिल्ली में विरोध प्रदर्शन करता है तो आप उस पर डंडे बरसाने लगते हैं।'
सुषमा स्वराज के इस बयान को पढ़ने के बाद किसी को इस बारे में कोई संशय नहीं होना चाहिए कि अण्णा के समर्थन में जुटती रही भीड़ में किन लोगों की भागीदारी होती थी। अगर एक बार संगठित तंत्र के जरिए जन गोलबंदी का आधार तैयार कर दिया जाए और मीडिया व बाजार कोई मुद्दा क्लिक कर जाए  तो उस मुद्दे से लगाव महसूस करने वाले या उस मुद्दे पर खुद को त्रस्त महसूस करने वाले लोगों का बहुतायत में सड़कों पर आ जाना कोई असामान्य या अभूतपूर्व घटना नहीं है। बहुत सामान्य सी बात है और हर कोई जानता है कि ऐसी गोलबंदी और उससे होने वाली उथल-पुथल का फायदा हमेशा वे ताकतें उठाती हैं जिनके हाथ में संगठन के सूत्र होते हैं।
दरअसल, भ्रष्टाचार एक व्यापक समस्या है। इसके गहरे व्यवस्थागत, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारण हैं। इस समय चूंकि केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार है, जिसके चलते कई बड़े-बड़े घोटाले हुए हैं, जिनमें सरकार के मंत्री और कांग्रेस के नेता लिप्त पाए गए हैं, इसलिए जनाक्रोश के निशाने पर उसका होना स्वाभाविक है। लेकिन किसी भी परिपक्व व्यक्ति या संगठन को ऐसे जनाक्रोश से अपने को नत्थी करते हुए अपना होश इतना भी नहीं खो देना चाहिए कि उसकी निगाहों से अपनी गतिविधियों के दूरगामी नतीजे ही ओझल हो जाए। भाजपा और उसके सहोदर संगठन अगर इस जनाक्रोश का फायदा उठा कर कांग्रेस को राजनीतिक रूप से कमजोर या नष्ट करना चाहते हैं तो उनके मकसद को समझा जा सकता है। इस मकसद को साधने में अगर संवैधानिक और संसदीय व्यवस्था की स्थापित प्रक्रियाएं और परंपराएं भी शिकार बन कर नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं तो यह उनकी चिंता का विषय नहीं है। क्योंकि ये ताकतें सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में जिस निरंकुशता की स्वाभाविक रूप से नुमाइंदगी करती हैं, उसका लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था से सीधा अंतर्विरोध है और यह तथ्य कोई पहली बार नहीं, बल्कि पहले भी कई मौकों पर उजागर हुआ है।
 बहरहाल, अण्णा का इस आंदोलन ने अन्य बातों के अलावा भारतीय समाज में पिछले दो दशक में आए बदलावों को भी प्रतिबिंबित किया है। पहले जो आंदोलन होते थे वे सही अर्थों में जन-संगठन चलाते थे, जिनके कार्यकर्ता कंधे पर झोला टांगे, चने-मुरमुरे खाकर व्यवस्था से टकराते थे। अब जन-संगठनों का स्थान तथाकथित सिविल सोसायटी ने ले लिया है। उसे अब वैसे समर्पित कार्यकर्ताओं की जरूरत नहीं है। उनका काम इंटरनेट, टि्‌वटर, फेसबुक और एसएमएस की मदद से एनजीओ कर रहे हैं। अण्णा के इस अभियान का एक अफसोसनाक पहलु यह भी है कि इसमें जुटी भीड़ ने अराजक उत्सवधर्मिता और आंदोलन के बीच फर्क करने वाली रेखा को मिटा दिया। उनके अभियान में शरीक लोगों के हाथों में तिरंगा, होठों पर वंदे मातरम्‌ और विचारों में राजनीति, संसदीय लोकतंत्र और संविधान के प्रति एक अगंभीर और अतार्किक किस्म की हिकारत महसूस की जा सकती थी। इतना ही नहीं, इस हिकारत पर सवाल उठाने वालों को कांग्रेस और सरकार का एजेंट तथा भ्रष्टाचार का हिमायती करार देने में भी कोई कोताही नहीं बरती गई। यह स्थिति हमारे लोकतंत्र के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है।

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