Monday, October 3, 2011

एक अच्छा सुझाव उर्फ शिगूफा!


बीते दिनों केंद्र सरकार के समक्ष उत्पन्न राजनीतिक संकट का केंद्र बने और 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में अपनी कथित भूमिका को लेकर विपक्ष के निशाने पर आए केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम की ख्याति लोक-लुभावन बजट पेश करने वाले वित्त मंत्री के रूप में रही है। अलग-अलग अवधि में, अलग-अलग सरकारों के दौरान वित्त मंत्रालय में रहते हुए उन्होंने स्वप्निल बजट पेश करने वाले वित्त मंत्री के रूप में ऐसी छवि बनाई है कि हर तबका उन्हें अपना हितैषी मानता रहा है। अलबत्ता व्यावहारिक तौर पर उनके बनाए बजटों ने आम आदमी की आर्थिक दुश्वारियां ही बढ़ाई हैं, बेरोजगारों की तादाद में इजाफा ही किया है और देश में अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को भी और ज्यादा गहरा किया है।
चिदंबरम इस समय भले ही गृह मंत्रालय का कामकाज देख रहे हों, लेकिन उनकी पहली पसंद वित्त मंत्रालय ही रहा है। फिलहाल व्यावहारिक तौर पर जरूर वे नॉर्थ ब्लाक के बाएं छोर पर बैठते हैं लेकिन उनका दिल-दिमाग नॉर्थ ब्लाक के दाहिने छोर पर स्थित वित्त मंत्रालय में चलने वाली गतिविधियों पर ही लगा रहता है। यही वजह है कि वे आर्थिक मसलों पर अपनी राय जाहिर करने का कोई मौका नहीं गंवाते हैं। फिलहाल चिदंबरम ने अमीर लोगों पर ज्यादा कर लगाने का सुझाव दिया है। उन्होंने यह सुझाव अखिल भारतीय प्रबंधन संघ (आइमा) के सालाना जलसे में दिया है। उनका यह सुझाव चौंकाने वाला है, क्योंकि करों का मामला वित्त मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आता है और बेतहाशा बढ़ती महंगाई के कारण सरकार और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पहले से ही विपक्ष के निशाने पर हैं और जनता में बेहद असंतोष है।
चिदंबरम के मुताबिक बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र के अनुसार देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.4 फीसदी से बढ़कर अगले वित्त वर्ष में 8.9 फीसदी हो जाएगी, मगर इसके साथ ही खर्च और कर्ज भी बढ़ जाएगा। खर्च और आमदनी के अंतर को पाटने के लिए खर्च को कम करना होगा और आमदनी बढ़ाने के नए उपाय खोजने होंगे। इसी सिलसिले में उन्होंने अमीरों पर ज्यादा कर लगाने का सुझाव दिया है। वैसे चिदंबरम का यह सुझाव कोई अनोखा नहीं है। अमेरिका सहित कई यूरोपीय देश भी अपने यहां आर्थिक मंदी से निबटने के लिए अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाने का इरादा जाहिर कर चुके हैं।
फ्रांस में सबसे पहले यह सुझाव पिछले दिनों लिलियन बेटनकोर्ट नामक एक महिला उद्यमी ने और अमेरिका में वारेन बफेट ने दिया। लिलियन को यूरोप की सबसे धनी महिला माना जाता है और वारेन बफेट भी दुनिया के चुनिंदा बड़े अमीरों में शुमार किए जाते हैं। कुछ दिनों पहले बफेट ने न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख लिखकर राष्ट्रपति बराक ओबामा को सलाह दी कि वे अमेरिका को मौजूदा आर्थिक संकट से उबारने और सरकार के खाली खजाने को भरने के लिए सुपर रिच यानी बड़े अमीरों से ज्यादा टैक्स वसूल करें। लिलियन ने भी आर्थिक संकट से जूझ रहे यूरोपीय देशों को ऐसा ही करने को कहा। उनके इस सुझाव से यूरोपीय देशों के अमीरों ने भी सहमति जताई है और वे भी अपनी सरकारों से कह रहे हैं कि कृपया हम पर ज्यादा टैक्स लगाओ। अमेरिका तथा यूरोपीय देशों में आमतौर पर यह व्यवस्था है कि जो व्यक्ति जितना अधिक कर चुकाता है, उसे सरकार उसी अनुपात में दूसरी कई तरह की सुविधाएं भी देती है। इसीलिए इन देशों के अमीर अपने ऊपर ज्यादा टैक्स लगाने का आग्रह कर रहे हैं।
अमेरिका और यूरोप में तो अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाने की बात मंदी की आहट के चलते अब उठी है। हमारे देश में तो इस तरह सुझाव बहुत पहले साठ के दशक में ही पेश किया जा चुका है। उस समय आर्थिक उदारीकरण का तो कहीं अता-पता ही नहीं था और देश ने मिश्रित अर्थव्यवस्था अपना रखी थी, जिसे उस समय की सरकार समाजवादी अर्थव्यवस्था के रूप में प्रचारित करती थी। उस दौर में समाजवादी विचारक डॉ राममनोहर लोहिया ने लोकसभा में 'तीन आने बनाम पंद्रह आने' वाले अपने बहुचर्चित भाषण में खर्च की सीमा तय करने के साथ ही अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाने का सुझाव दिया था।उनका कहना था कि अमीरी के पर्वत को काट कर ही गरीबी की खाई को पाटा जा सकता है और सामाजिक विषमता को भी मिटाया जा सकता है।
चिदंबरम के बारे में यह तो नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने अमीरों पर ज्यादा कर लगाने का सुझाव लोहिया से प्रभावित होकर दिया होगा। क्योंकि चिदंबरम की राजनीति जिस वातावरण में परवान चढ़ी है और उनके जो राजनीतिक सरोकार रहे हैं उनको देखते हुए कोई नहीं कह सकता कि वे लोहिया से प्रभावित हुए होंगे या उन्होंने लोहिया को पढ़ा होगा। जाहिर है उन्हें इस सुझाव की प्रेरणा बराक ओबामा, वॉरेन बफेट या लिलियन बेटनकोर्ट से से ही मिली होगी। यह भी तय है कि ओबामा, बफेट या लिलियन ने भी इस तरह का विचार लोहिया को पढ़कर या उनसे प्रभावित होकर नहीं दिया है। ऐसा हो भी नहीं सकता, क्योंकि लोहिया ने यह सुझाव देश और दुनिया में व्याप्त आर्थिक-सामाजिक गैर बराबरी को दूर करने के मकसद से दिया था। जबकि ओबामा, बफेट और लिलियन यह सुझाव सरकारों के खाली होते खजाने को भरने के लिए दे रहे हैं। चिदंबरम की चिंता के केंद्र में अमीरी-गरीबी के बीच की गहरी होती खाई नहीं है। वे भी अमीरों पर ज्यादा कर लगाने की पैरवी सरकारी खजाने को भरने के लिए कर रहे हैं।
बहरहाल, चिदंबरम का यह सुझाव इसलिए भी चौंकाता है कि वे समाजवादी अर्थव्यवस्था के नहीं बल्कि उदारीकरण के ही पैरोकार माने जाते हैं और वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने ही करों की दरें कम कर धनी वर्ग को राहत पहुंचाई थी। अब चूंकि खजाने की चाबी उनके पास नहीं हैं, यानी वे वित्त मंत्री नहीं हैं और उनके पास गृह मंत्री के नाते देश की चौकीदारी का जिम्मा है, इसलिए शक होता है कि अमीरों पर ज्यादा कर लगाने का उनका सुझाव कोई शिगूफा तो नहीं है! अपने इस सुझाव को लेकर वे कितने गंभीर हैं यह तो पता नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि यह सुझाव उदारीकरण से कतई मेल नहीं खाता है। इसलिए लगता नहीं है कि उनके इस सुझाव को देश में उदारीकरण के प्रवर्तक और परम उपासक माने जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की धुन पर नृत्य करने वाले योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलुवालिया जैसे उनके सलाहकार परवान चढ़ने देंगे।
देश में इस समय आयकर चुकाने वालों की संख्या चार फीसदी से भी कम है। यानी लगभग सवा अरब की आबादी वाले देश में पांच करोड़ से भी कम लोग आयकर चुकाते हैं। जबकि सरकार आए दिन देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश करते हुए दावे करती है कि देश तेजी से आर्थिक विकास कर रहा है। सरकार जब यह दावा करती है तो उसका आशय देश के बड़े शहरों में खुलते शॉपिंग मॉल, सड़कों पर चमचमाती कारों की संख्या में इजाफे, उपभोक्ता वस्तओं बढ़ती खपत और शेयर बाजार के बढ़ते सूचकांक से होता है। सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्यूफेक्चरर्स द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में प्रतिदिन लगभग पांच हजार कारें शो रूम से निकलकर सड़कों पर आ रही हैं। वर्ष 2009 में 14 लाख 30 हजार कारों की बिक्री हुई थीं। इस आंकड़े में वर्ष 2010 में सीधे 31 फीसदी का इजाफा हुआ यानी इस वर्ष लगभग 18 लाख 70 हजार कारें शो रूम से निकलकर सड़कों पर दौड़ने लगीं। जाहिर है कि देश में आयकर के दायरे में आने वालों की तादाद पांच करोड़ लोगों से ज्यादा है, जबकि आयकर पांच करोड़ से भी कम लोग चुकाते हैं। यानी ब़ड़े पैमाने पर आयकर की चोरी होती है। ऐसे में सरकार अगर अपने टैक्स वसूलने वाले तंत्र को ही चुस्त-दुस्र्स्त कर ले तो उसके राजस्व में काफी बढ़ोतरी हो सकती है।
 राजस्व बढ़ाने का एक तरीका यह भी है कि सरकार लोगों के खर्च की सीमा तय करे और सीमा से अधिक किए जाने वाले खर्च पर कर का निर्धारण करे। सरकार अगर चिदंबरम के सुझाव को मानकर वास्तव में अमीरों पर करों बोझ बढ़ाती है तो ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसा करने के लिए वह किन लोगों को अमीर मानेगी। सरकार के सबसे बड़े मार्गदर्शक माने जाने वाले योजना आयोग ने गरीबी की परिभाषा तो तय कर दी है। उसके मुताबिक शहरों में 32 स्र्पए और गांवों में 26 स्र्पए रोज में जीवन-यापन करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं माना जाएगा। गरीबी मापने के इस हास्यास्पद पैमाने का व्यापक स्तर पर विरोध हो रहा है। इसी तरह जब सरकार अमीरों पर टैक्स की दरें बढ़ाते वक्त अमीरी का जो पैमाना बनाएगी, वह भी निश्चित ही विवादों से परे नहीं होगा। बहरहाल, सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि महंगाई और भ्रष्टाचार के कारण देश के गरीब और मध्यम वर्ग नाराजगी की नाराजगी झेल रही सरकार क्या देश के खाए-अघाए यानी सम्पन्न तबके को भी नाराज करने वाला कदम उठाने का साहस जुटा सकती है?



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