Saturday, May 7, 2011

ऐसे में कैसे बचेगी पुस्तक संस्कृति ?



हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी पिछले दिनों विश्व पुस्तक दिवस आया और खामोशी के साथ चला गया। इस मौके पर सरकार से तो किसी को कोई उम्मीद थी ही नहीं कि वह देश और समाज में हो रहे पुस्तक संस्कृति के ह्रास को थामने के लिए कुछ करेगी। वैसे भी सरकार इन दिनों जिस तरह से घपले-घोटालों के झमेलों में फंसी हुई है, उसके चलते उसके पास कहां इतनी फुरसत कि वह पुस्तक संस्कृति के बारे में कुछ सोचे और करे। तो सरकार को तो कुछ नहीं करना था, सो उसने नहीं किया, मीडिया के भी काफी बड़े हिस्से ने इस मौके को अनदेखा कर दिया या यूं कहे कि भुला दिया। कुछेक अखबारों ने जरूर विश्व पुस्तक दिवस के मौके पर पुस्तकों से संबंधित कुछ विशेष सामग्री अपने पाठकों को परोसी, जिसमें प्रकाशकों ने पुस्तक के प्रति लोगों के घटते स्र्झाान पर अपना शाश्वत विलाप किया और बड़ी चतुराई से यह बताने की कोशिश की कि तमाम प्रतिकूल स्थितियों के बावजूद वे किस तरह पुस्तक प्रकाशन के अपने उपक्रम को जिंदा रखकर देश और समाज की सेवा कर रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि पुस्तकों को आम लोगों की पहुंच से दूर करने का काम इसी प्रकाशक वर्ग ने सत्ताधीशों यानी राजनेताओं और नौकरशाहों के साथ मिलकर किया है। इन्हीं लोगों के कारण तो अच्छी पुस्तकें  प्रकाशित हो रही हैं और जो हो भी रही हैं तो वे इतनी महंगी हैं कि उन्हें खरीद पाना सामान्य पाठक के लिए सहज नहीं है। ऐसी पुस्तकें भारी मात्रा में छपकर या तो सरकारी महकमों में धूल खा रही है या चूहों और दीमकों का भोजन बन रही हैं या फिर पढ़ाई-लिखाई से विमुख अमीरों के घरों में ड्राइंगरूमों की शोभा बढ़ा रही हैं।
हमारे देश के मंत्रीगण, सांसद, विधायक और नौकरशाह जब भी विदेशों का, खासकर यूरोप के देशों का दौरा करके लौटते हैं तो वे वहां की सड़कों, पुलों, पार्कों, लोक परिवहन के साधनों, रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों आदि और भी कई चीजों से काफी प्रभावित हुए दिखते हैं और चाहते हैं कि अपने देश-प्रदेश में ऐसी ही चीजें उपलब्ध होनी चाहिए। कई मंत्री और अफसर तो किसी खास परियोजना या तकनीक का अध्ययन करने के नाम पर ही विदेश यात्रा करते हैं और फिर वहां से लौटकर अपने यहां भी वैसी ही परियोजना शुरू करवाने में जुट जाते हैं। इस तरह सरकारी खजाने का काफी बड़ा भाग विदेशी परियोजनाओं की फूहड़ नकल करने पर फूंक दिया जाता है। इस नकल-प्रवृत्ति की झलक पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में सम्पन्न 19 वें कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन के दौरान और उससे पूर्व आयोजन की तैयारी के सिलसिले में दिल्ली को सजाने-संवारने के नाम पर भी देखने को मिल चुकी है। हमारे ये मंत्री या नौकरशाह जब भी विदेश यात्राओं पर जाते हैं तो वे वहां की शहरी चकाचौंध से ही इतने अभिभूत हो जाते हैं कि उनके मन में कभी यह ख्याल ही नहीं आता कि हम जिस देश की यात्रा पर आए हैं, जरा वहां के गांवों का दौरा कर ग्राम्य जीवन का जायजा भी ले लें और अपने देश के गांवों को भी वैसा ही बनाने का प्रयास करें। गांवों की बात तो छोड़िए वे वहां की किताब की दुकानों और कला संस्कृति केंद्रों की ओर भी रूख नहीं करते हैं यह जानने के लिए कि वहां कैसी किताबें छपती हैं, कैसी किताबें लोग पढ़ना पसंद करते हैं या वहां की सरकारों और लोगों ने अपनी कला और संस्कृति को किस तरह सहेज कर रखा है और उसे विकसित किया है।
यह सब करने के पीछे एक बड़ी वजह यही नजर आती है कि हमारे ज्यादातर मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और नौकरशाहों की आमतौर पर किताबें पढ़ने में कोई रूचि ही नहीं होती। और फिर जिस देश की सरकारें राजनीतिक नफे-नुकसान का गणित लगाकर किन्हीं खास किताबों को प्रतिबंधित कर देती हों, असुविधाजनक लगने वाले लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को सुरक्षा देने या उन्हें भारत में बसने की इजाजत देने में हीला-हवाला करती हों (मिसाल के तौर पर याद कीजिए सलमान रश्दी, तसलीमा नसरीन और मकबूल फिदा हुसैन को), ऐसी सरकारों से और उनके मंत्रियों, सांसदों और नौकरशाहों यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे ऐसा कुछ करेंगे जिससे कि देश में पुस्तक संस्कृति काविकास हो, अच्छी पुस्तकों का प्रकाशन हो, लेखकों को ईमानदारी से रॉयल्टी मिले, लोगों में अच्छी किताबें पढ़ने की आदत विकसित हो, घर-घर में किताबों की पहुंच हो और हर कॉलोनी या मोहल्ले में सार्वजनिक पुस्तकालय-वाचनालय हो। ऐसे कामों में मंत्रियों, सांसदों-विधायकों और नौकरशाहों की रूचि होने की एक वजह यह भी है कि इस तरह के काम इन लोगों को अपने लिए 'अनुत्पादक' लगते हैं।
वैसे पुस्तक संस्कृति के विकास को लेकर अपनी प्रतिबद्घता जाहिर करने के लिए सरकार ने समय-समय पर कुछ कदम जस्र्र उठाए हैं, जैसे स्तरीय पुस्तकों के प्रकाशन और वितरण के लिए नेशनल बुक ट्रस्ट और प्रकाशन विभाग की स्थापना की गई। लेकिन इन दोनों संस्थानों ने जितनी किताबें छापी हैं उनमें ज्यादातर सरकारी किस्म की नीरस और उबाऊ किताबें हैं। पुस्तकों और तथाकथित पुस्तकालय आंदोलन को प्रोत्साहित करने के नाम पर सरकारों ने निजी प्रकाशकों से पुस्तकें  खरीदने का चलन भी शुरू किया। लेकिन विभिन्न सरकारी महकमों द्वारा पुस्तकों की खरीद का यह अनुष्ठान भी जल्द ही अपने लक्ष्य से भटककर एक बड़े गोरखधंधे में तब्दील हो गया। इस गोरखधंधे में राजनेताओं और नौकरशाहों ने तो चांदी काटी ही, प्रकाशक भी तुरत-फुरत  मालामाल हो गए। सरकारी पैसे की इस लूट-खसौट में पुस्तक प्रकाशन के स्तर का तो सत्यानाश होना ही था, सो हुआ भी। चूंकि प्रकाशकों का मकसद ही जल्द से जल्द और कम पूंजी लगाकर ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना हो गया, लिहाजा एक ओर जहां उन्होंने पुस्तकों की रॉयल्टी के मामले में लेखकों का शोषण किया, वहीं पुस्तकों के दाम अनाप-शनाप बढ़ा दिए। महंगी पुस्तकें पाठक खरीद पाएंगे या नहीं, इसकी उन्होंने कभी चिंता ही नहीं पाली, क्योंकि उन्हें तो अपनी पुस्तकें पाठकों को नहीं, सरकारी महकमों को ही बेचनी थीं।
पुस्तकों की सरकारी खरीद के धंधे ने प्रकाशकों को बेईमान और मुनाफाखोर ही नहीं, चापलूस और चाटुकार भी बना दिया। हालांकि यह बात सारे प्रकाशकों पर लागू नहीं होती है। ऐसे प्रकाशक भी हैं जो इस प्रवृत्ति से मुक्त हैं, लेकिन उनकी संख्या नगण्य है। अपनी छापी पुस्तकों की सरकारी खरीद आसानी से और भारी मात्रा में हो जाए, इसके लिए चापलूस और मौकापरस्त प्रकाशक सत्ताधारी दल की विचारधारा से जुड़े लेखकों-साहित्यकारों की दोयम दर्जे की रचनाओं को प्रकाशित करने में भी संकोच नहीं करते। चाटुकारिता की हद तो यह है कि ऐसे प्रकाशकों को उन सत्ताधारी नेताओं के नाम से भी पुस्तकें छापने में कोई संकोच नहीं होता, जिनका हकीकत में लिखने-पढ़ने से बहुत ज्यादा वास्ता नहीं होता, लेकिन इन प्रकाशकों की मदद से उनका नाम भी लेखकों की सूची में शामिल हो जाता है। ऐसे नेताओं के लिए पुस्तकें तैयार करने वाले लेखकों की भी हमारे यहां कोई कमी नहीं है।
पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय में आई तमाम विकृतियों के मद्देनजर सरकार ने प्रकाशकों के लिए दिशानिर्देश तैयार करने के लिए 1967 में राष्ट्रीय पुस्तक विकास बोर्ड का और फिर 1983 में राष्ट्रीय पुस्तक विकास परिषद का गठन किया। समय-समय पर इन निकायों का पुनर्गठन भी होता रहा, लेकिन इन दोनों ही निकायों ने ऐसा कुछ ठोस किया जिसका उल्लेख किया जा सके। राष्ट्रीय पुस्तक विकास परिषद में नए सिरे से जान फूंकने के मकसद से सरकार ने 2008 में इसका पुनर्गठन कर इसे नया नाम दिया-राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन परिषद। इस संस्था ने 2010 में राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन नीति तैयार की। इस नीति के मसौद में भी ऐसा कुछ नहीं जिससे कि यह लगे कि पुस्तक संस्कृति को बचाए रखने और उसके विकास के लिए सरकार वाकई संजीदा सोच रखती है। जैसे हर साल बजट पेश करते हुए हमारे वित्त मंत्री गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी और भ्रष्टाचार महंगाई पर चिंता तो जताते हैं और इन समस्याओं के निदान के उपाय करने का दावा भी करते है, लेकिन होता कुछ नहीं है। ठीक उसी तरह राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन नीति के मसौदे में भी लोगों की पुस्तकों के प्रति घटती रूचि पर चिंता जताते हुए कहा गया है कि हमें पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिए, पुस्तकें ज्ञान का स्रोत हैं, देश में पुस्तकालयों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए, बच्चों और महिलाओं में किताबें पढ़ने की आदत विकसित की जाए, कागज को सस्ता करने की कोशिश की जाए ताकि, विकलांगों के लिए विशेष पुस्तकें छापी जाए, लेखकों को उचित रॉयल्टी मिले, पुस्तक प्रकाशन को उद्योग का दर्जा दिया जाए आदि-आदि। इन सारी सिफारिशों पर अमल कैसे होगा और कौन करवाएगा इसका मसौदे में कोई जिक्र नहीं हैं। जाहिर है कि इस तरह कि हवाई बातों से पुस्तक संस्कृति को कतई बढ़ावा नहीं मिलने वाला है। हां, इन हवाई बातों पर अमल के नाम पर सरकारी पैसे से जो कर्मकांड किए जाएंगे उनसे नौकरशाहों की जेबें जरूर गरम हो जाएगी।


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