Monday, May 16, 2011

मंदिर वहीं बनाएंगे, लेकिन कैसे?



एक फिल्मी गाने की तर्ज पर कहें तो 'यह तो होना ही था।' लगभग दो दशक तक देश की राजनीति को गहरे तक प्रभावित करते रहे अयोध्या के बहुचर्चित राम जन्मभूमि मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर पिछले साल 30 सितंबर को जब इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय लखनऊ खंडपीठ का फैसला आया था तो कानून के कई जानकारों ने उसे पंचायती फैसला बताते हुए उसकी आलोचना की थी। उनका मानना था कि यह फैसला कानून की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। अब देश की सबसे बड़ी अदालत के अंतरिम फैसले ने भी उनकी इस मान्यता की पुष्टि कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को अजीबो-गरीब बताते हुए उसके अमल पर रोक लगा दी है। 

सुप्रीम कोर्ट ने हैरत जताई है कि जब किसी पक्ष ने विवादित भूमि के बंटवारे की फरियाद ही नहीं की तो हाईकोर्ट ने कैसे विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला सुना दिया। जाहिर कि हाईकोर्ट का फैसला कानूनी पहलुओं और दस्तावेजी सबूतों पर आधारित नहीं था। वह एक पंचायती किस्म का फैसला था, जिसमें आस्था को आधार बनाया गया था और सभी संबंधित पक्षों को संतुष्ट करने की कोशिश की गई थी। लेकिन तीनों ही पक्ष उससे संतुष्ट नहीं हुए और वे अपनी अपील लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। ये तीनों पक्ष उस न्याय की तलाश में हैं जो उन्हें अपने हिसाब से सही लगता है। जब तक वह नहीं होगा तब तक उनकी न्याय की लड़ाई खत्म होने वाली नहीं है। 

सुप्रीम कोर्ट के सामने यह साफ है कि पक्षकार न्याय या शांतिपूर्ण समाधान नहीं, बल्कि अपने न्याय के लिए लड़ने का अधिकार हासिल करना चाहते हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने मामले को एक तकनीकी कानूनी मुद्दा बनाकर पक्षकारों को यह सुविधा दे दी है। अब सभी पक्षकार जब तक चाहें, जिस तरह से चाहें, अदालत में अपनी याचिकाएं लगा सकते हैं-एक पीठ के फैसले के बाद उससे बड़ी पीठ के सामने, फिर उससे भी बड़ी और फिर पूर्ण पीठ के सामने। इस सबके बाद भी जो फैसला आएगा, कौन कह सकता है कि वह सभी को मान्य होगा?

 
दरअसल, सामाजिक दृष्टि से ऐसे विस्फोटक मसलों का समाधान न्यायालयों के द्वारा हो भी नहीं सकता। इसीलिए यह मामला विभिन्न अदालतों से होता हुआ अब सुुप्रीम कोर्ट में आया है जहां कब तक चलेगा, यह कोई नहीं कह सकता, खुद अदालत भी नहीं।  यदि फैसला बाबरी मस्जिद के पक्षकारों के खिलाफ गया, जिसकी संभावना कम ही है, तो हो सकता है कि मुस्लिम समुदाय उसे स्वीकार कर ले, जैसा कि उसके नुमाइंदों की ओर से कहा भी जाता रहा है। लेकिन अगर फैसला राम मंदिर के पक्षकारों के खिलाफ होता है तो संघी कुनबा उसे कतई स्वीकार नहीं करेगा। उसके नेता फिर वही राग अलापेंगे कि यह हमारे लिए धार्मिक आस्था का सवाल है और राम का जन्म कहां हुआ था, यह अदालत से तय नहीं हो सकता। संघ परिवार को यह अच्छी तरह मालूम है कि कानूनी रूप से उनका पक्ष उतना मजबूत नहीं है, जितना बाबरी मस्जिद के पक्षकारों का है। यही वजह है कि संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में छह साल तक केंद्र में चली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन राजग की सरकार ने भी कभी कोशिश नहीं कि इस पूरे मसले का न्यायिक समाधान जल्द से जल्द हो जाए। 

अब सर्वोच्च न्यायालय का भी जब कभी इस मामले में जो फैसला आएगा, वह सर्वमान्य नहीं होगा और विवाद अपनी जगह कायम रहेगा। इसलिए इस मसले का कोई भी हल अदालत के बाहर दोनों समुदायों के बीच समझौते से ही संभव है। लेकिन दोनों ही पक्षों ने ऐसा करने में अभी तक कोई रूचि नहीं दिखाई है। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, भारतीय जनता पार्टी आदि अपने बयानों में जरूर यह इच्छा जताते रहते हैं। इससे यह भ्रम होता है कि संघी कुनबा जल्द से जल्द राम मंदिर बनाना चाहता है, लेकिन दरअसल राम मंदिर बनाने की जल्दी किसी को नहीं है। यह इसी से जाहिर है कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुए लगभग दो दशक हो चुके हैं, फिर भी मंदिर बनाने की कोई मुहिम शुरू नहीं हो पाई है। बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद के कुछ वर्षों तक जरूर मंदिर बनाने के लिए देश भर से ईटें और चंदा जुटाने का कार्यक्रम चलाया गया तथा राम मंदिर के नए-नए मॉडल भी बनाए जाते रहे, लेकिन बाबरी मस्जिद को ढहाने के लिए जो उत्साह दिखाया गया, वह राम मंदिर बनाने के लिए कभी नहीं दिखाया गया। दिखाया भी नहीं जा सकता, क्योंकि जिस तरीके से बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया, उस तरीके से राम मंदिर नहीं बनाया जा सकता। मंदिर तो अब वहां तभी बन सकता है जब हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कोई समझौता हो जाए। ऐसा नहीं है कि यह समझौता नहीं हो सकता। हो सकता था और आज भी हो सकता है, यदि यह मामला शुद्घ रूप से धार्मिक होता और विश्व हिंदू परिषद ने इसे उसी स्तर पर उठाया होता। भारत के मुसलमान इतने तंगदिल भी नहीं हैं कि वे अपने हिंदू भाई-बहनों की धार्मिक इच्छा का सम्मान न कर सकें। लेकिन हुआ यह कि जब इस मुद्दे को स्थानीय स्तर से ऊपर लाया गया, तभी से शक्ति प्रदर्शन का मामला बना दिया गया। हमेशा यह जताया गया कि हमें किसी की अनुकंपा से राम मंदिर नहीं चाहिए, वह जमीन तो हमारी ही है और हम उसे अपनी ताकत के बल पर लेकर रहेंगे और वहां मंदिर बनाएंगे। संघ परिवार के इसी रवैये ने मुस्लिम कट्टरपंथ के लिए खाद-पानी का काम किया। वैसे देश के आम मुसलमानों को बाबरी मस्जिद से न पहले कोई लेना-देना था और न ही आज कुछ लेना-देना है, लेकिन अयोध्या के सवाल पर संघ परिवार के आक्रामक रवैये ने उनके दिल-दिमाग में यह आशंका जरूर पैदा कर दी है कि अगर आज सद्‌भावना दिखाते हुए उन्होंने अयोध्या की विवादित भूमि पर अपना दावा छोड़ दिया तो कल देश में उनकी दूसरी इबादतगाहों पर भी संघ परिवार इसी तरह अपना दावा जताने लगेगा। उनकी यह आशंका निराधार भी नहीं है, क्योंकि संघ परिवार ने ऐसे मामलों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार कर रखी है और उसका यह नारा 'अयोध्या तो झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है' भी न सिर्फ मुसलमानों को बल्कि देश के हर अमन और भाईचारा पसंद व्यक्ति को डराता है।

 दरअसल, मामले की मौजूदा कानूनी स्थिति और राजनीतिक-सामाजिक हकीकत के मद्देनजर अयोध्या में राम मंदिर का बनना तब तक नामुमकिन है, जब तक भारत में संवैधानिक या अन्य किसी किस्म का फासीवाद कायम नहीं हो जाता। अगर सामान्य तरीके से यह मंदिर बनाया जा सकता होता तो बाबरी मस्जिद तोड़ने के लिए फासीवादी तरीके अपनाने की और अदालत में झूठा हलफनामा दाखिल करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। अब इसमें किसी को कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि संघी कुनबे का राम मंदिर अभियान उसकी उस व्यापक मानसिकता और मांग पत्र का हिस्सा है, जिसके बाकी हिस्से कभी गोहत्या पर पाबंदी की मांग, कभी धर्मांतरण रोकने के लिए कानून, कभी ईसाई मिशनरियों को देश निकाला देने की मुहिम, कभी गिरजाघरों, पादरियों और ननों पर हमले, कभी भोजशाला हिंदुओं के सुपुर्द करने की मांग, कभी श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने की जिद, कभी धारा 370 को हटाने की मांग, कभी समान नागरिक संहिता और कभी स्कूलों में वंदे मातरम और सरस्वती वंदना का गायन अनिवार्य करने की मांग के रूप में सामने आते हैं। इनमें से कोई एक मुहिम परिस्थितिवश कमजोर पड़ जाती है तो दूसरी को शुरू कर दिया जाता है। इस बात को ध्यान में रखने पर ही समझा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी ने, जब तक वह केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार का नेतृत्व करती रही, अपने तीन प्रसिद्घ मुद्दों को भले ही स्थगित रखा हो, लेकिन इन मुद्दों के पीछे जो कथित हिंदूवादी एजेंडा है, उसका परित्याग कभी नहीं किया। अब चूंकि उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव सिर पर हैं। इसलिए संघ परिवार को जनता के इस सवाल का जवाब देने के लिए कुछ तो तैयारी करनी ही होगी कि दो दशक बाद भी अयोध्या में वह राम मंदिर क्यों नहीं बनाया जा सका, जिसके लिए बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी। भाजपा नेतृत्व के लिए इस आरोप का बोझ अपने सिर पर लेकर चलना मुश्किल होगा कि वे अपने आराध्य राम को भूल गए हैं। इसीलिए भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी अपने संगी साथियों के साथ दो हफ्ते पहले ही रामलला के दर्शन के बहाने अयोध्या जाकर एक रैली कर यह हुंकार भर आए हैं-'सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे।' लेकिन यह मंदिर वह कब और कैसे बनाएंगे, इस सवाल का है कोई जवाब उनके पास? शायद नहीं।

1 comment:

संदीप पांडेय said...

आपका कहना सही है सर, अयोध्या विवाद का हल अदालत कभी नहीं निकाल सकती। अगर वह इस मामले में वाकई न्याय करती है तो फिर वहां जाहिर तौर पर मस्जिद ही बनेगी। क्योंकि भगवान राम वहां जन्मे या नहीं इसका कोई सबूत नहीं है लेकिन चार सौ साल से वहां मस्जिद होना तो जगजाहिर है। अच्छी बात यह है कि जनता अब भाजपा के मंदिर राग को समझ चुकी है। बहरहाल चुनावी राजनीति की बात छोड़ भी दें तो इस समस्या का कोई न कोई हल निकलना ही जरूरी है वरना देश का संसाधन व उर्जा यूं ही बरबाद होते रहेंगे।