Tuesday, March 22, 2011

दलाई लामा नाम है एक मिसाल का



एक बार सत्ता हासिल हो जाने के ताउम्र उस पर काबिज रहने की प्रवृत्ति पश्चिमी देशों को छोड़कर दुनिया भर में देखी जा सकती है, यहां तक कि साम्यवादी कहे जाने वाले देशों में भी। अरब जगत के देश भी इसका अपवाद नहीं हैं बल्कि वहां तो इसकी अति हो जाने के कारण इन दिनों जन-विद्रोह की आंधियां चल रही हैं। भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तो यह सोचा ही नहीं जा सकता कि यहां सत्ता में रहते कोई नेता राजनीति को अलविदा कह दे। हां, ज्योति बसु जरूर इस सत्ता पिपासु प्रवृत्ति के अपवाद रहे, जिन्होंने लगभग ढाई दशक तक पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री रहने के बाद न सिर्फ सत्ता छोड़ दी थी बल्कि राजनीति से भी लगभग संन्यास ले लिया था। अब तिब्बतियों के सर्वोच्च धार्मिक और राजनीतिक सत्ता-पुस्र्ष दलाई लामा ने तिब्बत की निर्वासित सरकार का प्रमुख पद त्यागने का ऐलान कर ऐसी ही दुर्लभ मिसाल पेश की है। दलाई लामा का यह फैसला दुनिया भर के और खासकर हमारे देश के राजनेताओं के लिए भी एक संदेश या सबक की तरह है कि राजनीति के अलावा भी जीवन में करने को काफी कुछ है।
चीन को छोड़कर शेष विश्व के लिए तिब्बत और दलाई लामा हमेशा एक-दूसरे के पूरक या यों कहें कि पर्याय माने जाते रहे हैं। ऐसे में निर्वासित तिब्बत सरकार के प्रमुख पद से निवृत्त होने का दलाई लामा का ऐलान न सिर्फ पूरी दुनिया के लिए चौंकाने वाला है बल्कि लाखों तिब्बतियों और उनके अहिंसक मुक्ति संग्राम के लिए भी एक तरह से सदमे की तरह है और यह सवाल उठना लाजिमी है कि अब तिब्बतियों की सांस्कृतिक आजादी के आंदोलन का क्या होगा और कौन उन्हें नेतृत्व देगा? यह भी कि वे तिब्बतियों के सर्वस्वीकार्य नेता और एकमात्र आस्था-स्तंभ हैं, फिर भी उन्होंने राजनीतिक जिम्मेदारियों से मुक्त होने का फैसला आखिर क्यों किया? संभव है कि उन्होंने यह कदम अपनी बढ़ती उम्र के मद्देनजर भी उठाया हो और वे चाहते हों कि उनके जीवनकाल में ही नया नेतृत्व उन्हीं की तरह स्थापित और सर्वस्वीकार्य हो जाए, ताकि बाद में नेतृत्व के सवाल पर तिब्बतियों के बीच कोई विवाद खड़ा न हो।
तिब्बतियों के सर्वोच्च आध्यात्मिक नेता और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित दलाई लामा वैसे तो अनौपचारिक तौर पर पहले भी राजनीति से अवकाश ग्रहण करने की इच्छा जताते रहे हैं और चीनी नेतृत्व उनके ऐसा करने को महज ढोंग करार देता रहा है। हाल ही में चीनी सरकार ने तिब्बतियों के इस प्रथम पुस्र्ष को 'साधु के वेश में भेड़िया' कहा था। लेकिन दलाई लामा ने 1959 में हुए तिब्बती विद्रोह और अपने निर्वासन की 52 वीं वर्षगांठ पर अपनी निवृत्ति का ऐलान कर अपने चीनी आलोचकों को शांतिपूर्ण ढंग से माकूल जवाब दे दिया है।
दलाई लामा ने अपने फैसले का ऐलान करते हुए कहा है- '1960 के दशक से ही मैंने इस बात पर जोर दिया है कि तिब्बतियों को एक ऐसे नेता की जरूरत है, जिसे तिब्बती समुदाय ने स्वतंत्र रूप से चुना हो और जिसे मैं अपनी सत्ता सौंप सकूं। अब हम स्पष्ट रूप से वक्त की उस दहलीज पर पहुंच गए हैं जहां इस सोच को अमली जामा पहनाना जरूरी हो गया है।' उन्होंने परम्परा तोड़ते हुए अपने उत्तराधिकारी का चुनाव लोकतांत्रिक ढंग से कराने की घोषणा की है। भारत सरकार ने जहां उनके इस कदम पर बेहद सतर्क प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा है कि भारत दलाई लामा को एक आध्यात्मिक नेता ही मानता है और इस नाते वे देश के सम्मानीय अतिथि बने रहेंगे। वहीं चीन ने उनकी इस घोषणा को भी धोखा करार दिया है। अपनी इस सार्वजनिक प्रतिक्रिया के बावजूद चीनी नेतृत्व दलाई लामा के इस फैसले से राहत ही महसूस करेगा। दलाई लामा का मूल नाम तेनजिन ग्यात्सो है। उन्हें उनके पूर्ववर्ती तेरह दलाई लामाओं का अवतार माना जाता है। तिब्बती बौद्घ पदाधिकारियों के एक दल ने जब उनके अवतार होने का ऐलान किया था तब उनकी उम्र दो साल की थी और चार साल का होने से पहले ही उन्हें विधिवत दलाई लामा के पद पर आसीन करा दिया गया था।
 चीन ने 1951 में तिब्बत पर कब्जा किया था, जिसे भारत सरकार ने तो बाद में मान्यता दे दी थी लेकिन समाजवादी विचारक राममनोहर लोहिया ने उसे 'शिशु हत्या' करार दिया था। इससे पूर्व 1950 में दलाई लामा जब तिब्बत के 'राज्य प्रमुख' बने तब उनकी उम्र महज 15 साल की थी। अपने लोगों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए दलाई लामा 1954 में चीन के तत्कालीन सर्वोच्च नेता माओ त्से तुंग के साथ चर्चा करने के लिए पेईचिंग गए थे, जो उस समय पीकिंग कहलाता था। वह बातचीत विफल रही थी। मार्च 1959 में चीनी सेना के दमन चक्र से बचने के लिए दलाई लामा ने अपने हजारों अनुयायियों के साथ भारत में शरण ली और तब से ही वे भारत में निर्वासित जीवन जी रही अपनी भटकती कौम की सांस्कृतिक आजादी के लिए शांतिपूर्ण ढंग से लगातार संघर्षरत हैं। हालांकि दलाई लामा ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मानकर तिब्बतियों की राजनीतिक आजादी की मांग तो काफी पहले ही छोड़ दी है, लिहाजा उनके द्वारा अब तिब्बत आंदोलन के राजनीतिक पक्ष से खुद को अलग कर लेने का फैसला एक तार्किक कदम ही है। दलाई लामा ने पिछले पांच दशकों में अपने गरिमामय आध्यात्मिक व्यक्तित्व के जरिए समूचे विश्व का ध्यान तिब्बतियों के अहिंसक संघर्ष की ओर आकर्षित किया है। उनके ही प्रयासों से संयुक्त राष्ट्र महासभा ने तीन-तीन बार तिब्बती लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए प्रस्ताव पारित किए। अब उनके राजनीतिक भूमिका त्यागने से तिब्बती समुदाय को एक प्रतिष्ठित और विश्वसनीय अंतर्राष्ट्रीय चेहरे से वंचित होना पड़ेगा। हो सकता है कि इस वजह से चीनी नेतृत्व से उसकी सौदेबाजी की क्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़े। लेकिन उनके इस फैसले में कुछ सकारात्मक संभावनाएं भी छिपी हुई हैं।
 चीन का प्रचार तंत्र सुनियोजित ढंग से इस झूठ को स्थापित करने में लगा रहता है कि दलाई लामा और उनके समर्थक 1959 के पहले की 'धार्मिक तानाशाही' की वापसी चाहते हैं, लेकिन जगजाहिर हकीकत यह है कि तिब्बती समुदाय ने अपने आस्था-केंद्र दलाई लामा की सरपरस्ती में लगभग पांच दशक से जारी अपनी सांस्कृतिक आजादी के शांतिपूर्ण संघर्ष में न तो कभी हिंसा का सहारा लिया है और न ही किसी तरह की धर्मांधता का परिचय दिया है जो कि दुनिया की अन्य धार्मिक तानाशाहियां अनिवार्य रूप से अपनाती हैं। फिर भी लगता है कि दलाई लामा ने चीनी नेतृत्व के दुष्प्रचार की काट के लिए ही अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी लोकतांत्रिक तरीके से चुने जाने का ऐलान किया है। इस तरह जहां लोकतंत्र नहीं था, वहां लोकतंत्र लाकर उन्होंने एक अत्यंत परम्पराजीवी समाज में आधुनिकता का बीजारोपण कर दिया है। दुनियाभर में फैले तिब्बतियों के वोटों से निर्वाचित नए नेतृत्व की अनदेखी करना चीन के सत्ता-प्रतिष्ठान के लिए भी आसान नहीं होगा, क्योंकि पूरी दुनिया निर्वाचन प्रक्रिया की चश्मदीद गवाह होगी और अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का चीनी नेतृत्व पर दबाव रहेगा कि वह तिब्बतियों के निर्वाचित नेतृत्व से बात करे और वर्षों से चली आ रही समस्या का कोई सम्मानजनक हल निकाले। उम्मीद की जानी चाहिए कि चीनी सत्ता-प्रतिष्ठान अरब जगत में बह रही बगावत की हवा का दबाव भी महसूस करते हुए स्वायत्तता की तिब्बती आकांक्षा का सम्मान कर दुनिया भर में यहां-वहां भटकती तिब्बती कौम को उसकी मातृभूमि पर लौटने का मौका देगा, जिसके कुछ हिस्से पर उसने अभी चीनियों के हान समुदाय को बसा रखा है और कुछ हिस्से को अपने परमाणु कचरे के निपटान का मैदान।

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