Wednesday, September 28, 2011

भारत में सोनार बांग्ला तलाशती तसलीमा


बांग्लादेश में इस वक्त शेख हसीना के नेतृत्व में एक लोकतांत्रिक और अपेक्षाकृत उदारवादी सरकार होने के बावजूद डेढ़ दशक से ज्यादा समय से निर्वासित जीवन जी रही तसलीमा नसरीन को नहीं लगता कि अपने वतन यानी बांग्लादेश लौट पाने की उनकी तमन्ना कभी पूरी हो सकेगी। अब उनकी ख्वाहिश कोलकाता में बसने की है, जिसे वह अपना दूसरा घर मानती हैं। फिलहाल भारत सरकार ने उन्हें अस्थायी तौर पर दिल्ली में रहने की इजाजत दे रखी है। ज्यादा उचित तो यह होता कि भारत सरकार तसलीमा के वीजा की अवधि को टुकड़ों-टुकड़ों में बढ़ाने के बजाय थोड़ी और हिम्मत दिखाते हुए उन्हें स्थायी नागरिकता प्रदान करने या उन्हें अपने यहां राजनीतिक शरण देने का फैसला करती, जिसके लिए कि उन्होंने कई वर्षों से आवेदन कर रखा है। यह तो तय है कि बांग्लादेश में शेख हसीना की जम्हूरी हुकूमत होते हुए भी वहां जिस तरह का माहौल है, तसलीमा के लिए अपने वतन लौटना काफी मुश्किलों भरा है। वहां उनकी सभी पुस्तकें प्रतिबंधित हैं और कई मुकदमे उनका इंतजार कर रहे हैं। हालांकि तसलीमा में इतनी क्षमता है कि वे इन मुकदमों का न्यायिक सामना कर सकें, लेकिन इसमें संदेह की पूरी गुंजाइश है कि मुकदमों की कार्यवाही शुद्ध न्यायिक आधार चल सकेगी। आखिर एक कट्टरपंथी समाज में अदालतें भी तो हवा का रूख भांपकर ही काम करती हैं। इससे भी ज्यादा तकलीफदेह आशंका यह है कि बांग्लादेश में तसलीमा का जीवन सुरक्षित रहेगा या नहीं। उनके कटे हुए सिर पर काफी बड़ी राशियों के इनाम घोषित हैं और इस्लाम के पंडे उन्हें संगसार करने पर आमादा हैं।
 तसलीमा को जब बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था, तब भी भारत सरकार ने कोई पहल नहीं की थी, अन्यथा वे तभी भारत आ जाती। उस वक्त उन्हें बांग्लादेश से निकलकर यूरोप में पनाह लेनी पड़ी थी। वहां के अनेक देशों ने उन्हें हाथों हाथ लिया था। तसलीमा को भी वहां मुक्त समाज में रहना भाया होगा। स्त्री-पुरुष समानता के तरह-तरह के रंग भी उन्हें यूरोप की धरती पर दिखाई दिए होंगे। चूंकि सामान्यतः एक लेखक या कवि की दिली ख्वाहिश अंततः अपने समाज में ही जीने की होती है, इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं था कि तसलीमा को जल्द ही अपना सुंदर, लेकिन निर्वासित जीवन एक बोझ की तरह लगने लगा। अपने मादरे वतन से अपनी जुदाई पर उन्होंने कई सुंदर और मार्मिक कविताएं लिखीं और यूरोप छोड़कर भारत में आ बसने का फैसला किया। भारत सरकार ने झिझक के साथ ही सही, अंततः उन्हें वीजा दिया और वे भारत आ सकीं।
1994 में बांग्लादेश से निर्वासित होकर तसलीमा 2004 तक यूरोप में रहीं और फिर भारत आने के बाद तीन साल उन्होंने कोलकाता बिताए। वे जब तक कोलकाता में रहीं, धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की आजादी की बहुत बड़ी पैरोकार मानी जाने वाली पश्चिम बंगाल की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार ने कभी भी सहज रूप से उनकी उपस्थिति को स्वीकार नहीं किया। जब पश्चिम बंगाल के मजहबी कट्टरपंथियों ने उनके खिलाफ फतवा जारी किया तब भी वाममोर्चा सरकार ने उन कट्टरपंथियों के खिलाफ सख्ती से पेश आने के बजाय तसलीमा पर दबाव बनाया कि वे कोलकाता छोड़ दें। तसलीमा कोलकाता छोड़कर दिल्ली आ गईं। अब चूंकि पश्चिम बंगाल का राजनीतिक परिदृश्य बदला हुआ है और वाम मोर्चा सत्ता से बाहर हो चुका है, तो तसलीमा को फिर उम्मीद बंधी है कि उन्हें कोलकाता लौटने की इजाजत मिल जाएगी।
वर्ष 2004 से अब तक टुकड़ों-टुकड़ों में तसलीमा के वीसा की अवधि बढ़ाई जाती रही है। अफसोस की बात यह है कि उन्हें राजनीतिक शरण देने का मुद्दा तो कायदे से उठ ही नहीं पाया है। सभी राजनीतिक दलों ने इस मामले में अघोषित आमसहमति से शर्मनाक चुप्पी साध रखी है। हां, 2004 से लेकर अब तक जब-जब तसलीमा के वीसा की अवधि अस्थाई तौर पर बढ़ाई गई तब-तब तक भारत सरकार की ओर से यह जरूर कहा गया है कि तसलीमा को भारत की परंपरा और धार्मिक भावनाओं के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए। इस मासूम सी लगने वाली हिदायत का निहितार्थ यह है कि सरकार में बैठे लोग चाहते है कि तसलीमा को भारत में रहते हुए बांग्लादेशी समाज के मुल्ला मौलवियों की रुढ़िवादी विचारधारा और सांप्रदायिक कारगुजारियों के खिलाफ अपना मुंह बंद रखना चाहिए, ताकि भारत के कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवी नाराज न हो। तसलीमा को स्थायी नागरिकता या राजनीतिक शरण देने के सवाल पर शायद यह कूटनीतिक संकोच भी आड़े आता होगा कि इससे बांग्लादेश से हमारे द्विपक्षीय रिश्ते खराब होंगे।
सवाल उठता है कि क्या एक लेखिका के लिए इतनी बड़ी राजनयिक जोखिम उठाई जानी चाहिए? जी हां, जरूर उठाई जानी चाहिए। माना कि तसलीमा के लेखन का साहित्यिक मूल्य बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? हर देश काल में कुछ ऐसा तूफानी लेखन होता है जो साहित्य के पैमाने पर बहुत ज्यादा ऊंचे दर्जे का भले ही न हो, पर तात्कालिक तौर पर गहरी हलचल मचाता है। भारतीय, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी जैसे समाजों में ऐसा लेखन सामाजिक बदलाव का असरदार औजार बन सकता है। इसलिए तसलीमा नसरीन को भारत में स्थायी रूप से बसने की अनुमति दी जानी चाहिए। तसलीमा भी इस आशय की मंशा एक से अधिक बार जाहिर कर चुकी है।
भारत सरकार का यह फर्ज बनता है कि वह तसलीमा को आश्वस्त करे कि भारत उनका घर है, वे जब तक चाहें, यहां रह सकती हैं और चाहे तो भारत की नागरिकता भी प्राप्त कर सकती है। भारत ने अपनी आजादी के तुरंत बाद लगभग छह दशक पहले चीन की नाराजगी मोल लेते हुए दलाई लामा और उनके हजारों अनुयायियों को राजनीतिक शरण दी थी, जो आज भी भारत में यहां-वहां रह रहे हैं। हालांकि स्टालिन की बेटी स्वेतलाना के मामले में हमारे तत्कालीन हुक्मरान सोवियत संघ (रूस) से डर गए थे। उस समय का कलंक अभी तक हमारे माथे पर लगा हुआ है। तसलीमा को भारत में शरण देकर उस कलंक को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।
यहां यह भी याद रखा जाना चाहिए कि ईरान के मजहबी नेता अयातुल्लाह खुमैनी के फरमान की परवाह न करते हुए ब्रिटेन ने किस तरह सलमान रुश्दी का साथ दिया था। यह अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करने या उसे संरक्षण देने की अद्वितीय मिसाल थी। एशिया महाद्वीप में यह भूमिका भारत भी निभा सकता है। हमारा देश 'वादे वादे जायते तत्वबोधः' का है। यहां तो वेदों को भी चुनौती दी गई है और ईश्वर को भी नकारा गया है। तसलीमा के रहने के लिए भारत से बेहतर जगह और हो भी क्या सकती है। पचास के दशक में समाजवादी चिंतक डॉ राममनोहर लोहिया ने विश्व नागरिकता की अपनी अवधारणा पेश करते हुए कहा था कि  हमारी एक भारत माता है तो एक धरती माता भी है। इसी आधार पर तसलीमा के लिए एक बांग्ला मां है तो एक धरती मां भी होनी चाहिए। और फिर महज 64 वर्ष पहले तक तो भारत माता और बांग्ला माता एक ही थीं। नालायक बेटों की नासमझी ने भले ही मां को बांट दिया हो, पर लायक बेटे तो समझदारी दिखाते हुए उसे फिर से जोड़ सकते हैं। दरअसल, तसलीमा के रहने के लिए भारत से ज्यादा उपयुक्त जगह कोई हो भी नहीं सकती। वह यहां एक ऐसे समाज में रह सकेगी जो उनके संघर्ष को आदर की दृष्टि से देखता है और जहां वे बांग्ला बोल-सुन सकेगी। मछली आखिर पानी में ही तो रह सकती है। उसे पानी में स्थायी रूप से रहने की इजाजत क्यों नहीं मिलनी चाहिए?

हीनताबोध पैदा करते विज्ञापन

भारतीय समाज में सुंदर देहयष्टि और त्वचा के गोरेपन को लेकर तमाम तरह के पूर्वाग्रह सदियों से अपनी जड़ें जमाए हुए हैं। इसी के चलते अपने को गौरवर्ण और छरहरा बनाने-दिखाने की ललक भी कोई नई बात नहीं है। शरीर के सांवलेपन को दूर कर उसे गोरा बनाने के लिए तरह-तरह के लेप और उबटनों का उपयोग भी हमारे यहां प्राचीनकाल से होता आया है। लेकिन कोई दो दशक पहले शुरू हुई बाजारवादी अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण की विनाशकारी आंधी ने इस सहज प्रवृत्ति को एक तरह से पागलपन में तब्दील कर दिया है। 
माना जाता है कि बाजार में होने वाली प्रतियोगिता उपभोक्ता और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए फायदेमंद होती है। लेकिन इस प्रतियोगिता में कई तरह का विकृतियां भी दिखाई देती हैं। अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने और मुनाफा कमाने के फेर में बहुत से विज्ञापनों, खासकर सौंदर्य प्रसाधनों और शरीर को आकर्षक बनाने वाले उत्पादों के विज्ञापनों में भ्रामक दावे किए जाते हैं। कथित तौर पर गोरा बनाने वाली क्रीम और मोटापा घटाने की दवाइयों के टीवी चैनलों पर आने वाले विज्ञापनों ने किशोर और युवा मन की संवेदनाओं का शोषण करते हुए उनके मानस पटल पर देह की बनावट और चमड़ी के रंग पर रचा सौंदर्य का यह पैमाना गहराई से अंकित कर दिया है कि गोरे रंग और छरहरी काया के बगैर न तो मनचाहा हमसफर मिल सकता है और न ही रोजगार।  
चमड़ी के गोरे रंग पर आधारित पश्चिम की इस रंगभेदी सौंदर्य दृष्टि से उपजा हीनताबोध और कुंठा कितनी खतरनाक होती है, इसकी सबसे बड़ी मिसाल रहे हैं मशहूर पॉप गायक माइकल जैक्सन। जिस समय पश्चिमी समाज में रंगभेद के खिलाफ जारी संघर्ष अपने निर्णायक दौर में था, गौरांग 'महाप्रभुओं' के यूरोपीय देशों सहित पूरी दुनिया में इस श्यामवर्णी लोकप्रिय कलाकार की पॉप गायकी का जादू छाया हुआ था। बेपनाह दौलत और शोहरत हासिल करने के बाद अपनी त्वचा को काले रंग से छुटकारा दिलाने की कुंठा जनित ललक में जैक्सन ने अपने शरीर की प्लास्टिक सर्जरी कराई थी। इस सर्जरी से वह गोरा तो हो गया था, लेकिन सर्जरी और दवाओं के दुष्प्रभावों के चलते उसे कई तरह की बीमारियों ने अपना शिकार बना लिया था, जो आखिरकार उसकी मौत का कारण बन गईं। जैक्सन की बहन जेनिथ जैक्सन तो आज भी अपने काले रंग के बावजूद पॉप गायकी के क्षेत्र में धूम मचाए हुए है। इसी सिलसिले में चर्चित मॉडल नाओमी कैंपबेल का जिक्र  भी किया जा सकता है जो अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के दम पर आज ग्लैमर की दुनिया में सुपर मॉडल के तौर पर जानी जाती है। उसकी इस उपलब्धि में उसकी त्वचा का काला रंग कहीं से आड़े नहीं आया। व्यक्ति की कामयाबी में चमड़ी के गोरे रंग की कोई भूमिका नहीं होती, इस तथ्य को जोरदार तरीक से साबित करने वालों में बराक ओबामा का नाम भी शुमार किया जा सकता है, जो आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश कि राष्ट्रप्रमुख हैं।  
बहरहाल, हमारे यहां प्रचार माध्यमों और सार्वजनिक स्थानों पर ऐसे विज्ञापन आम हैं जिनमें मोटापा घटाने, गोरा बनाने, सौंदर्य निखारने, कद बढ़ाने आदि के दावे तथा वस्तुओं पर भारी छूट, एक के साथ एक मुफ्त और आकर्षक उपहारों के वादे किए जाते हैं। अनुमानतः हमारे देश में आज गोरा बनाने वाली क्रीम और अन्य उत्पादों का बाजार करीब दो हजार करोड़ रूपए का है। इसी के साथ मोटापा घटाने वाली दवाओं का बाजार भी तेजी से कुलांचे भरता हुआ लगातार बढ़ता जा रहा है। जबकि हकीकत यह है कि इस तरह की क्रीमों और दवाओं से चमड़ी का रंग बदलना और मोटापा कम होना तो दूर, उलटे इन चीजों के इस्तेमाल से दूसरी बीमारियां जन्म ले लेती हैं। लेकिन मुनाफा कमाने की होड़ में शामिल इन कंपनियों और इनके विज्ञापन प्रसारित करने वाले प्रचार माध्यमों पर इन बातों का कोई असर नहीं होता है। इन उत्पादों को लोकप्रिय बनाने के लिए फिल्म, टीवी और खेल जगत के सितारों से इनके विज्ञापन  कराए जाते हैं।  
विडंबना यह है कि सांवले और मोटे लोगों में हीनता-बोध पैदा कर उनकी नैसर्गिक योग्यता पर नकारात्मक असर डालने वाले इन विज्ञापनों में किए गए दावों की असलियत जांचने के लिए हमारे यहां न तो कोई कसौटी है और न ही ऐसे भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगाने के लिए कोई असरदार तंत्र। ऐसे विज्ञापनों पर रोक लगाने की मांग किसी राजनीतिक दल के एजेंडा में भी आज तक जगह नहीं पा सकी है। अलबत्ता मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की महिला शाखा जरूर इस बात को उठाती रही है, लेकिन उसकी पहल नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित हुई है। संतोष की बात है कि देर से ही सही, प्रधानमंत्री कार्यालय की नजर गोरा बनाने वाली क्रीम और मोटापा घटाने वाली दवाओं के फरेबी विज्ञापनों की ओर गई है। उसने ऐसे विज्ञापनों के सामाजिक दुष्प्रभावों को गंभीरता से लेते हुए इन पर नियंत्रण की प्रणाली तुरंत स्थापित करने के निर्देश दिए हैं। प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव टीकेए नायर ने इस सिलसिले में उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के अधिकारियों के साथ बैठक कर उनसे कहा है कि उनके विभाग को ऐसी नियामक प्रणाली विकसित करनी चाहिए जिससे लोगों को भ्रमित करने वाले ऐसे विज्ञापनों के प्रसार पर रोक लगे। विभाग को एक महीने के भीतर इस बारे में दिशा-निर्देशों का मसौदा तैयार करने को कहा गया है। बताया गया है कि नियामक प्रणाली को जल्द से जल्द अमल में लाया जाएगा, क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय इस मुद्दे को लेकर बहुत गंभीर है। प्रस्तावित दिशा-निर्देशों में वे सब विज्ञापन आएंगे, जो गोरा बनाने, मोटापा दूर करने और इसी तरह के अन्य झांसे लोगों को देते हैं।  
सरकार ने जो पहल की है वह अपनी जगह है। उसकी सफलता की कामना करनी चाहिए, लेकिन यह सामाजिक जिम्मेदारी से जुड़ा मामला भी है। आखिर चमड़ी के रंग और शरीर के आकार-प्रकार पर आधारित खूबसूरती और कामयाबी का यह विकृत पैमाना स्वस्थ समाज के निर्माण में कैसे सहायक हो सकता है? इस तरह के पैमाने रचने वाली मानसिकता के खिलाफ व्यापक स्तर पर मुखर सामाजिक आंदोलन भी समय की मांग है। इस सिलसिले में पिछले दिनों मिस यूनिवर्स चुनी गई अंगोला की लीला लोपेज की मिसाल सामने रखी जा सकती है, जिसने देह और रंग के कठघरे में कैद सुंदरता के पैमाने को करारा झटका दिया है। उसने मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता के दौरान पूछे गए एक सवाल के जवाब में बेबाकी से कहा कि अगर मुमकिन हो तो भी वह अपने रंग-रूप में कोई बदलाव करना नहीं चाहेंगी और वैसी ही दिखना पसंद करेंगी, जैसा कुदरत ने उसे बनाया है। उसने यह भी कहा कि वह अपने स्वाभाविक रंग-रूप से संतुष्ट और खुश है तथा खुद को ऐसी स्त्री के रूप में देखना चाहती है जो भीतर से सुंदर हो। प्रश्न पूछने वाले विशेषज्ञों को लाजवाब कर देने वाला लीला लोपेज का यह जवाब आज की दुनिया में सौंदर्य के प्रचलित मानदंडों के बारे में नई तरह से सोचने का और खूबसूरती निखारने वाले भ्रामक विज्ञापनों से बचने आग्रह करता है। 

Tuesday, September 20, 2011

नरेंद्र मोदी की सद्भावना के मायने


'यह नैतिकता क्या चीज होती है?" अपने 'सद्भावना मिशन" के तहत तीन दिन के उपवास पर बैठे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह प्रतिप्रश्न एक टीवी चैनल के संवाददाता के उस प्रश्न के जवाब में किया था, जिसमें उनसे पूछा गया था कि क्या वे गुजरात में 2002 में हुई सांप्रदायिक हिंसा की नैतिक जिम्मेदारी लेने को तैयार है? प्रश्न पूरा होते ही मोदी ने अपना उक्त प्रतिप्रश्न दागा था। इसी के साथ उन्होंने कहा- 'जब मेरे खिलाफ गुजरात के किसी पुलिस थाने में कोई एफआईआर तक दर्ज नहीं है तो मैं किस बात की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करूं।" जिस राज्य में सांप्रदायिक हिंसा में एक वर्ग विशेष के दो हजार से ज्यादा निर्दोष लोगों की मौत हो गई हो, उसके बारे में उक्त दंभपूर्ण और गैरजिम्मेदाराना उद्गार व्यक्त करने वाला उस राज्य का मुखिया किस तरह का सद्भाव कायम करना चाहता है, यह आसानी से समझा जा सकता है। वैसे भी मोदी को उनके समर्थक और प्रशंसक 'विकास का अग्रदूत" और 'प्रबंध पुरूष" मानते हैं और खुद मोदी भी अपने बारे में ऐसा ही दावा करते दिखते हैं, इसलिए उनसे नैतिक होने की अपेक्षा करना बेमतलब है। क्योंकि हमारे देश में विकास और प्रबंध का जो शास्त्र चलन में है, उसमें नैतिकता के लिए कोई जगह है ही कहां? शायद इसीलिए मोदी कहते हैं कि 'यह नैतिकता क्या होती है?" सवाल उठता है कि नरेंद्र मोदी को अपने दस साल के शासन में पहली बार इस समय ही गुजरात में सद्भाव का वातावरण बनाने की जरूरत क्यों महसूस हुई? सन् 2002 में गुजरात में हुए भीषण सांप्रदायिक जनसंहार से जुड़े एक मामले में मोदी की भूमिका की जांच संबंधी रिपोर्ट पर एसआईटी की रिपोर्ट पर 12 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोई फैसला देने से इनकार करने और मामले की सुनवाई मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत को करने का आदेश दिए जाने पर तीन दिन की चुप्पी के बाद मोदी ने अचानक घोषणा की कि वे राज्य में सद्भावना का वातावरण बनाने के लिए तीन दिन का उपवास करेंगे। अपने 61 वें जन्मदिन (17 सितंबर) से उन्होंने तीन दिन का उपवास किया।
अहमदाबाद स्थित गुजरात विश्वविद्यालय के भव्य और वातानुकूलित कन्वेंशन हॉल में उपवास पर बैठने से पहले भारतीय जनता पार्टी के तमाम बड़े नेताओं तथा राज्य के विभिन्न् वर्गों के आए हुए और लाए हुए लगभग पांच हजार लोगों के समक्ष मोदी के 45 मिनट के भाषण में दंभोक्तियां और आत्म-मुग्धता तो भरपूर थी, लेकिन जिस सद्भावना के लिए वे उपवास कर रहे थे, उसके लिए आवश्यक विनम्रता बिल्कुल नहीं थी। निर्गुण और निराकार विकास के मंत्रोच्चार से युक्त भाषण में कोई नई बात थी तो वह यह कि उन्होंने मुसलमानों को लेकर कोई कटुतापूर्ण या फूहड़ताभरी टिप्पणी नहीं की, जो कि वे अक्सर अपने प्रशंसकों को गुदगुदाने और हंसाने के लिए करते रहते हैं। कुल मिलाकर उनके पूरे भाषण का लब्वोलुआब यह रहा कि अब वे अपनी छवि बदलने के लिए छटपटा रहे हैं और अपनी पार्टी को नेतृत्व देने और राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका निभाने को आतुर हैं। यानी दस साल से गुजरात में राज कर रहे मोदी के सामने अगले वर्ष होने वाले गुजरात विधानसभा के चुनाव तो हैं ही, उनकी नजरें उसके बाद 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर भी हैं। मतलब यह कि अब वे अपनी स्वीकार्यता बढ़ाकर अपने को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश करना चाहते हैं। यही वजह है कि 'सद्भावना मिशन" के नाम से सरकारी खर्च पर आयोजित इस मेगा शो में शामिल होने के लिए उन्होंने अपनी पार्टी के आला नेताओं के साथ ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के घटक दलों के नेताओं और भाजपा व राजग शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी दावत दी, जिसे जनता दल (यू) के अध्यक्ष और राजग के संयोजक शरद यादव तथा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अलावा सबने कुबूल किया। इस मौके पर लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, अस्र्ण जेटली आदि भाजपा के तमाम नेताओं ने मोदी पर अपने शब्दाडंबर के चंवर डुलाते हुए उनकी महत्वाकांक्षा को सहलाने में कोई कोताई नहीं की।
अगर वाकई सद्भावना का वातावरण बनाना ही मोदी का मकसद होता तो उनके लिए उपवास करने का माकूल मौका तब था जब गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस पर 27 फरवरी, 2002 को हुए हमला हुआ था, जिसमें अयोध्या से लौट रहे उनसठ लोग आग में जल कर मर गए थे। अगर उन्होंने उस वक्त उपवास किया होता तो गुजरात सांप्रदायिक हिंसा की उस आग में झुलसने से बच जाता और दो हजार से ज्यादा बेगुनाह मुसलमानों का कत्लेआम न हुआ होता। लेकिन मोदी उस समय सद्भावना की नहीं बल्कि सांप्रदायिक नफरत की आग को हवा देने वाली सिर्फ बातें ही नहीं, काम भी कर रहे थे। उस समय उन्होंने पुलिस प्रशासन से कहा था- 'हिंदुओं के आक्रोश को रोको मत, उसे प्रकट हो जाने दो।" राज्य के खुफिया विभाग के अधिकारियों के मना करने के बावजूद उन्होंने जली हुई लाशों को गोधरा से अहमदाबाद लाने से नहीं रोका। लाशों का जुलूस निकाला गया और साथ ही शहर के मुस्लिम बहुल इलाकों को उन्मादी दंगाइयों के हवाले कर दिया गया। उस वक्त हुए खूनखराबे से व्यथित  होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था- 'नरेंद्र मोदी को अपना राजधर्म निभाना चाहिए।" लेकिन वाजपेयी की इस नसीहत का मोदी पर कोई असर नहीं हुआ और महात्मा गांधी का गुजरात सांप्रदायिकता हिंसा की आग में धू-धू कर जलता रहा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कोख से जन्मे भाजपा समेत तमाम संगठन और नरेंद्र मोदी की चाटुकारिता कर अपना उल्लू सीधा करने वाले पुलिस अधिकारी मोदी को 'हिंदू ह्रदय सम्राट" के रूप में महिमा मंडित करने में जुट गए। उस समय मोदी की सरकार में गृह मंत्री रहे हरेन पंड्या ने नागरिक अधिकार संगठनों द्वारा नियुक्त जांच आयोग के सामने कुबूल किया था कि सरकार ने जान-बूझकर मुसलमानों पर हुए हिंसक हमलों को रोकने के कोई प्रयास नहीं किए। कुछ समय बाद ही मौका आया मोदी के विधानसभा का उपचुनाव लड़ने का। मोदी एलिस ब्रिज विधानसभा सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे, जिसका प्रतिनिधत्व उस समय हरेन पंड्या कर रहे थे। मोदी चाहते थे कि पंड्या वह सीट उनके लिए खाली कर दे, लेकिन  पंड्या ने ऐसा करने से इनकार कर दिया था। मोदी को मणिनगर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ना पड़ा, जो उनकी ही सरकार के एक अन्य मंत्री वजुभाई बाला ने इस्तीफा देकर खाली की थी। कुछ ही दिनों बाद हरेन पंड्या की कुछ लोगों ने गोली मारकर हत्या कर दी। उनकी लाश को देखने मोदी उस समय के केंद्रीय गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के साथ अस्पताल पहुंचे तो आक्रोश से भरे पंड्या समर्थकों ने उनके खिलाफ काफी नारेबाजी की थी। उस समय भी मोदी को उपवास करने की जरूरत महसूस नहीं हुई।
फिर दिसंबर, 2002 के विधानसभा चुनाव के दौरान भी सद्भावना और भाईचारे की बात करने के बजाय मोदी ने 'पाकिस्तान प्रेरित मुस्लिम आतंकवाद" पर हिंदुओं को उत्तेजित करने और भड़काने वाले भाषण दिए। इन भाषणों में अपनी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ को तराजू के एक ही पलड़े पर रखते हुए मोदी ने ऐसा माहौल रच दिया था मानो विधानसभा का चुनाव नहीं बल्कि भारत और पाकिस्तान के बीच युध्द हो रहा हो। पूरे राज्य में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बल पर मोदी भारी बहुमत से भाजपा को जिताकर अपनी सत्ता बरकरार रखने में कामयाब तो हो गए पर उन्होंने गुजरात में सांप्रदायिक तनाव बढ़ाकर बचे-खुचे सद्भाव का भी नामोनिशान मिटा दिया।
सद्भावना कायम करने के लिए उपवास पर बैठे नरेंद्र मोदी ने तीनों दिन अपने भाषणों में बार-बार अपने आपको छह करोड़ गुजरातियों के मसीहा के रूप में पेश किया और कहते  रहे कि गुजरात के हर नागरिक का दुख-सुख उनका अपना दुख-सुख है। लेकिन इस दौरान उन्होंने उस समय भी कोई सद्भावना या सौजन्य नहीं दिखाया जब उनके सहयोगी रहे हरेन पंड्या की विधवा जागृति पंड्या ने अपने पति के हत्यारों का पता लगाने और उन्हें सजा दिलाने की गुहार लेकर उनसे उपवास स्थल पर मिलने की कोशिश की। मोदी की पुलिस ने जागृति पंड्या को उपवास स्थल से एक किलोमीटर पहले ही रोक दिया और मोदी से नहीं मिलने दिया। पंड्या की पत्नी ने इस मौके पर मोदी को शुभकामना देने के लिए अहमदाबाद पहुंचे लालकृष्ण आडवाणी से भी मिलने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने भी उनसे मिलने से इनकार कर दिया और कहा कि वे मिलना चाहती हैं तो दिल्ली आकर मिले। इतना ही नहीं मोदी के उपवास के दिन अहमदाबाद पहुंची सुषमा स्वराज ने भी मोदी का तो काफी गुणगान किया और उन्हें एक आदर्श मुख्यमंत्री निरूपित किया लेकिन पंड्या की पत्नी से मिलकर उनकी आहत भावनाओं पर अपनी हमदर्दी का मरहम लगाना उचित नहीं समझा। यह थी मोदी और उनकी पार्टी के नेताओं की छद्म सद्भावना की एक और बानगी।
सुप्रीम कोर्ट ने 2002 की भीषण सांप्रदायिक हिंसा को लेकर मोदी पर लगे आरोपों की सुनवाई मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट को करने का जो आदेश दिया है उसे समूची भाजपा और संघ परिवार मोदी की जीत बता रहा है। खुद मोदी भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की व्याख्या इस तरह कर रहे हैं मानो उन्हें बरी कर दिया गया हो। सुप्रीम कोर्ट के फैसले की यह मनमानी व्याख्या जनता को गुमराह करने वाली तो है ही, इससे भी ज्यादा यह मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत पर दबाव बनाने का आपराधिक प्रयास है। प्रकारांतर से वे यह भी जता रहे हैं कि निचली अदालत तो उनकी जेब में है और वहां से वही फैसला होगा, जैसा वे चाहेंगे। जाहिर है कि ऐसा करके वे एक तरह से न्याय व्यवस्था की सरासर खिल्ली उड़ा रहे हैं। 
मोदी ने अपने उपवास करने की घोषणा गुजरात की जनता के नाम एक खुले पत्र में की, जो देशभर के अखबारों में गुजरात सरकार के विज्ञापन के रूप में प्रकाशित हुआ। इस पत्र में उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अब तक चल रहे सभी विवादों का अंत कर दिया और उन लोगों को झूठा साबित कर दिया, जो गुजरात की छह करोड़ जनता को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं। इस पत्र में मोदी ने अपने ऊपर लगे आरोपों को इस रूप में पेश किया मानो ये आरोप उन पर नहीं, गुजरात की जनता पर हों। मोदी के इस पत्र की भाषा से आपातकाल में दिए गए उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरूआ के उस बहुचर्चित बयान की बू आती है, जिसमें बरूआ ने चाटुकारिता का खतरनाक स्तर पार करते हुए कहा था- 'इंदिरा ही भारत है और भारत ही इंदिरा है।" अब मोदी भी अपने को गुजरात का पर्याय बता रहे हैं। यह विडंबना ही है कि जो गुजरात एक दशक पहले तक गांधी के लिए जाना जाता था, उसे अब परोक्ष-अपरोक्ष रूप से नरेंद्र मोदी का गुजरात बताने की भौंडी कोशिशें की जा रही हैं।
 






Monday, September 5, 2011

उनका असली मकसद कुछ और था



स बात से शायद ही कोई इनकार करेगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बुजुर्ग समाजकर्मी अण्णा हजारे के नेतृत्व में चले अभियान ने देश के सार्वजनिक जीवन में अभूतपूर्व हलचल पैदा की है। उनके 'अनशनास्त्र' ने देश के हर खास-ओ-आम को भारतीय समाज में व्याप्त इस गंभीर बीमारी के बारे में शिद्दत से सोचने पर मजबूर किया है। लेकिन अण्णा और उनके सहयोगियों यह दावा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता कि यह अभियान, जिसे कि वे एक व्यापक आंदोलन कह रहे हैं, विशुध्द रूप से भ्रष्टाचार के खिलाफ था एक अराजनीतिक या तथाकथित सिविल सोसायटी का लोकतांत्रिक आंदोलन था और उसमें शिरकत करने के लिए जो भीड़ उमड़ी थी वह स्वतः स्फूर्त थी। 
जो लोग भावुकतावश इस अभियान की तुलना 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' और 1974 में हुए जयप्रकाश नारायण के 'संपूर्ण क्रांति' आंदोलन से कर रहे थे या कर रहे हैं, उन्हें यह जरूर याद रखना चाहिए कि 1974 के आंदोलन में जो भी राजनीतिक और गैर राजनीतिक जमातें शरीक थीं, वे घोषित रूप से मैदान में थीं और 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और वामपंथी जमातों ने अपने आपको घोषित रूप से न सिर्फ अलग रखा था, बल्कि उस आंदोलन का सक्रिय रूप से विरोध किया था। कहने का आशय यह कि उन दोनों विराट और ऐतिहासिक आंदोलनों में कहीं कोई लुकाछिपी नहीं थी, जैसी कि अण्णा के इस अभियान के दौरान देखने को मिली। 
अण्णा हजारे के नेतृत्व में चले इस अभियान में उमड़ी भीड़ से प्रभावित और मोहित लोगों को दो दशक पूर्व भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की राम रथयात्रा और आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान दिल्ली और उत्तर भारत में उमड़े हुजूम को भी याद करना चाहिए। वैसे भीड़ तो उस दिन अयोध्या में भी कम नहीं थी, जिस दिन बाबरी मस्जिद का ध्वंस किया गया था। अगर 100-125 करोड़ लोगों के देश में अगर कुछ हजार लोगों की भीड़ जुट जाना ही किसी अभियान के लोकतांत्रिक होने का प्रमाण है तो फिर हमें ऊपर उल्लेखित घटनाओं को भी लोकतांत्रिक अभियानों की श्रेणी में रखना होगा। सवाल पूछा जा सकता है कि क्या अण्णा के समर्थन में जुटी तमाम ताकतें ऐसी समान कसौटी अपनाने को तैयार है? यह सवाल भाजपा समेत संघ परिवार के तमाम मोर्चा संगठनों से नहीं है, जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की आड़ में अपने राजनीतिक लक्ष्य साधने की सुनियोजित रणनीति पर काम कर रहे हैं। यह सवाल तो उन जनांदोलनों से जुड़े नेताओं व बुध्दिजीवियों, नव-वामपंथियों और समाजवादियोंसे है, जो अण्णा के अभियान में जुटी तथाकथित स्वतः स्फूर्त भीड़ पर मुग्ध होकर 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' की तर्ज पर थिरक रहे थे। दिल्ली की आबादी एक करोड़ से भी ज्यादा है, जबकि इस पूरे अभियान के दौरान रामलीला मैदान में किसी भी दिन 50 हजार से ज्यादा की भीड़ नहीं जुटी। जो लोग रामलीला मैदान की भीड़ और देश के कुछ बड़े शहरों में हुए कुछ हजार लोगों के प्रदर्शनों को अगर जनमत या लोकतांत्रिक अभियान का पैमाना मानते हैं तो उन्हें यह याद दिलाना भी लाजिमी होगा कि जब मई 1998 में पोकरण में हुए परमाणु परीक्षण के खिलाफ कोलकाता की सड़कों पर लगभग चार लाख लोगों ने प्रदर्शन किया था तथा देश के अन्य छोटे-बड़े कई शहरों में भी इस तरह के प्रदर्शन हुए थे। तब किसी ने भी नहीं कहा था कि देश का जनमत परमाणु हथियार विकसित करने के खिलाफ है।
 अण्णा के इस आंदोलन के दौरान कौतुहल पैदा करने वाला एक मुद्दा यह भी था कि दिल्ली के रामलीला मैदान और देश के अन्य शहरों में प्रदर्शन के लिए जुटते रहे लोगों के लिए टीशट्‌र्स, टोपियों और झंडों की थोकबंद आवक के स्रोत और प्रायोजकों कौन थे। इस बारे में पत्रकारों के पूछने पर पारदर्शिता की हिमायती टीम अण्णा का मासूमियत भरा जवाब होता था कि इतने बड़े जनांदोलन में लोग अपने-अपने तरीके से मदद कर रहे हैं। अण्णा के सहयोगियों की जो भी सफाई रही हो, पर टीशट्‌र्स, टोपियों और झंडों की बड़े पैमाने की आपूर्ति और वितरण जिस सुनियोजित तरीके हो रहा था, वह उसके प्रायोजन की सात्विकता पर सवाल खड़े करता है। इसके अलावा यह भी कम बड़ी विडंबना नहीं थी कि कुछ कारपोरेट घरानों द्वारा प्रायोजित अण्णा हजारे का नाम लिखी टीशट्‌र्स और टोपियां पहन तथा हाथ में तिरंगा थामे दिल्ली की बसों और मेट्रों में आम यात्रियों और खासकर महिलाओं से बेहूदगी करते हुए लफंगों के जो समूह और बाइक और कारों पर सवार होकर सड़कों पर उधम मचाते हुए बड़े घरों की जो बिगड़ैल औलादें रामलीला मैदान में जुटती रहीं, उन्हें ही अण्णा की टीम बड़े गर्व और मुदित भाव से अपनी ताकत बताती रही। बहरहाल, तमाम विसंगतियों के बावजूद अण्णा के अभियान के सामाजिक और प्रकारांतर से राजनीतिक प्रभावों को नकारा नहीं जा सकता।
  यह सच है कि भ्रष्टाचार भारतीय समाज की कोई हाल के वर्षों में पैदा हुई समस्या नहीं है, बल्कि आजादी के बाद से ही यह प्रवृत्ति भारतीय समाज में धीमे जहर की तरह घुलता गया है। आज यह चरम पर है और केंद्र की मौजूदा सरकार के दौर में इसने नए 'कीर्तिमान' कायम किए हैं। इसी वजह से इस सरकार के खिलाफ देश में गुस्से का माहौल बना गया है और अण्णा के आंदोलन ने यह गुस्सा नफरत में तब्दील हो गया है। लेकिन चिंताजनक और अफसोसनाक पहलु यह है कि इस नफरत को सिर्फ कांग्रेस और उसके नेतृत्ववाली सरकार के प्रति ही सीमित न रखकर इसे सरकार, संविधान और संसदीय लोकतंत्र की अवधारणा के खिलाफ नफरत के रूप में तब्दील करने की खतरनाक कोशिश की गई। 
अण्णा के इस अभियान के बारे पहले दिन से ही यह कहा जाता रहा है कि इस आंदोलन को संघ और भाजपा का परोक्ष समर्थन हासिल है। हालांकि किसी भी लोक महत्व के मसले को लेकर होने वाले जनांदोलन में कौन किस को समर्थन दे रहा है और कौन किस का समर्थन ले रहा है, इसमें किसी को भी आपत्ति नहीं होना चाहिए। लेकिन सवाल उठता है कि समर्थन के ऐसे लेनदेन को लेकर परदेदारी भी क्यों होना चाहिए? इस तरह की परदेदारी के पीछे भाजपा की मजबूरी तो समझी जा सकती है। उसकी मजबूरी यह है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वह चाहे भी कर्नाटक, उत्तराखंड, झारखंड और पंजाब में अपनी और अपने सहयोगी दलों की सरकारों दागदार रिकार्ड के चलते कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर सकती। इसीलिए उसने पहले योग गुरू बाबा रामदेव और बाद में अण्णा हजारे की पालकी का कहार बनने में ही अपनी भलाई समझी। उसके समक्ष मौजूद विश्वसनीयता के इस संकट के कारण ही संभवतः अण्णा और उनके सहयोगी अपने अभियान को लेकर संघ व भाजपा से अपनी दूरी प्रदर्शित करने का पाखंड करते रहे। दूसरी ओर भाजपा नेतृत्व भी 'मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू' की शैली में इसी पाखंड प्रहसन को दोहराता रहा। अण्णा से अपनी दूरी प्रदर्शित करने के लिए ही भाजपा अण्णा हजारे के जनलोकपाल पर अपना नजरिया साफ न करते हुए गोलमोल बातें करती रही और हर मौके पर गेंद को सरकार के पाले में धकेलते हुए यही कहती रही कि अपना नजरिया वह संसद में लोकपाल विधेयक पेश होने पर जाहिर करेगी। लेकिन दोनों ही पक्ष अपनी निकटता या आपसी समझदारी को ज्यादा देर तक छिपा नहीं सके। जैसे ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल पर लोकसभा ने एक स्वर में अण्णा से अपना अनशन खत्म करने की अपील की और प्रधानमंत्री ने जनलोकपाल विधेयक पर संसद में बहस कराने का आश्वासन दिया, भाजपा ने भी अपना पैंतरा बदलने में देरी नहीं लगाई। उसने कांग्रेस और केंद्र सरकार के मुकाबले राजनीतिक बढ़त हासिल करने के मकसद से तत्काल अण्णा के सहयोगियों के साथ औपचारिक बैठक की और जनलोकपाल की वकालत करते हुए उसके मसौदे पर आधारित एक सशक्त लोकपाल कानून पारित करने की मांग और अण्णा के आंदोलन को पूर्ण समर्थन देने की घोषणा भी कर डाली।
 अण्णा के सहयोगियों और भाजपा-संघ की इस मिलीजुली कुश्ती को लेकर अगर किसी को कोई भ्रम हो तो वह 16 अगस्त को अण्णा की गिरफ्तारी के बाद लोकसभा में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दिए बयान पर हुई चर्चा में भाग लेते हुए भाजपा नेता सुषमा स्वराज के दिए हुए उस भाषण का अवलोकन कर सकता है जिसमें उन्होंने कहा है, 'अण्णा हजारे के आंदोलन में आरएसएस की भागीदारी एक बहस का मुद्दा क्यों है? मैं नहीं समझ पाती हूं कि जब संघ किसी आंदोलन को समर्थन देने का फैसला करता है तो गृह मंत्री क्या हो जाता है? वे इतना परेशान क्यों हो जाते हैं? मैं प्रधानमंत्री से जानना चाहती हूं कि जब कश्मीर के अलगाववादी आकर देशद्रोही भाषण देते हैं तो पुलिस क्यों कदम नहीं उठाती है? आप उनके मानवाधिकारों तो रक्षा करते हैं, लेकिन आरएसएस समर्थक कोई भगवा वस्त्रधारी साधू या कोई गांधीवादी दिल्ली में विरोध प्रदर्शन करता है तो आप उस पर डंडे बरसाने लगते हैं।'
सुषमा स्वराज के इस बयान को पढ़ने के बाद किसी को इस बारे में कोई संशय नहीं होना चाहिए कि अण्णा के समर्थन में जुटती रही भीड़ में किन लोगों की भागीदारी होती थी। अगर एक बार संगठित तंत्र के जरिए जन गोलबंदी का आधार तैयार कर दिया जाए और मीडिया व बाजार कोई मुद्दा क्लिक कर जाए  तो उस मुद्दे से लगाव महसूस करने वाले या उस मुद्दे पर खुद को त्रस्त महसूस करने वाले लोगों का बहुतायत में सड़कों पर आ जाना कोई असामान्य या अभूतपूर्व घटना नहीं है। बहुत सामान्य सी बात है और हर कोई जानता है कि ऐसी गोलबंदी और उससे होने वाली उथल-पुथल का फायदा हमेशा वे ताकतें उठाती हैं जिनके हाथ में संगठन के सूत्र होते हैं।
दरअसल, भ्रष्टाचार एक व्यापक समस्या है। इसके गहरे व्यवस्थागत, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारण हैं। इस समय चूंकि केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार है, जिसके चलते कई बड़े-बड़े घोटाले हुए हैं, जिनमें सरकार के मंत्री और कांग्रेस के नेता लिप्त पाए गए हैं, इसलिए जनाक्रोश के निशाने पर उसका होना स्वाभाविक है। लेकिन किसी भी परिपक्व व्यक्ति या संगठन को ऐसे जनाक्रोश से अपने को नत्थी करते हुए अपना होश इतना भी नहीं खो देना चाहिए कि उसकी निगाहों से अपनी गतिविधियों के दूरगामी नतीजे ही ओझल हो जाए। भाजपा और उसके सहोदर संगठन अगर इस जनाक्रोश का फायदा उठा कर कांग्रेस को राजनीतिक रूप से कमजोर या नष्ट करना चाहते हैं तो उनके मकसद को समझा जा सकता है। इस मकसद को साधने में अगर संवैधानिक और संसदीय व्यवस्था की स्थापित प्रक्रियाएं और परंपराएं भी शिकार बन कर नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं तो यह उनकी चिंता का विषय नहीं है। क्योंकि ये ताकतें सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में जिस निरंकुशता की स्वाभाविक रूप से नुमाइंदगी करती हैं, उसका लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था से सीधा अंतर्विरोध है और यह तथ्य कोई पहली बार नहीं, बल्कि पहले भी कई मौकों पर उजागर हुआ है।
 बहरहाल, अण्णा का इस आंदोलन ने अन्य बातों के अलावा भारतीय समाज में पिछले दो दशक में आए बदलावों को भी प्रतिबिंबित किया है। पहले जो आंदोलन होते थे वे सही अर्थों में जन-संगठन चलाते थे, जिनके कार्यकर्ता कंधे पर झोला टांगे, चने-मुरमुरे खाकर व्यवस्था से टकराते थे। अब जन-संगठनों का स्थान तथाकथित सिविल सोसायटी ने ले लिया है। उसे अब वैसे समर्पित कार्यकर्ताओं की जरूरत नहीं है। उनका काम इंटरनेट, टि्‌वटर, फेसबुक और एसएमएस की मदद से एनजीओ कर रहे हैं। अण्णा के इस अभियान का एक अफसोसनाक पहलु यह भी है कि इसमें जुटी भीड़ ने अराजक उत्सवधर्मिता और आंदोलन के बीच फर्क करने वाली रेखा को मिटा दिया। उनके अभियान में शरीक लोगों के हाथों में तिरंगा, होठों पर वंदे मातरम्‌ और विचारों में राजनीति, संसदीय लोकतंत्र और संविधान के प्रति एक अगंभीर और अतार्किक किस्म की हिकारत महसूस की जा सकती थी। इतना ही नहीं, इस हिकारत पर सवाल उठाने वालों को कांग्रेस और सरकार का एजेंट तथा भ्रष्टाचार का हिमायती करार देने में भी कोई कोताही नहीं बरती गई। यह स्थिति हमारे लोकतंत्र के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है।