Tuesday, September 25, 2012

नग्न बाजारवाद का बेशर्म परीक्षण



इन दिनों अर्थ व्यवस्था से जुड़ी सबसे बड़ी और सबसे बुरी खबर यह है कि आम आदमी को महंगाई से राहत मिलती नहीं दिख रही है। अनाज, दाल-दलहन, फल, सब्जी, दूध इत्यादि आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं और फिलहाल अंदेशा यही है कि ये कीमतें आगे और भी बढ़ेंगी। ऐसे में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों की इस मार को महंगाई कहना उचित या पर्याप्त नहीं है। यह साफ तौर पर बाजार द्बारा जनता के साथ की जा रही लूट-खसोट है। ऐसा नहीं है कि महंगाई का कहर कोई पहली बार टूटा हो। महंगाई पहले भी होती रही है, जरूरी चीजों के दाम पहले भी अचानक बढ़ते रहे हैं, लेकिन थोड़े समय बाद फिर नीचे आए हैं। लेकिन इस समय तो मानों बाजार में आग लगी हुई है। वस्तुओं की लागत और उनके बाजार भाव में कोई संगति नहीं रह गई। इस मामले में आम आदमी तो असहाय है ही, सरकार भी खुद को लाचार और असहाय पा रही है। उसकी तमाम कोशिशों का कोई असर होना तो दूर, उलटे सरकारी नीतियों से महंगाई बढ़ती जा रही है। यही नहीं, खुद सरकार भी आए दिन पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़ाकर और अपनी इस करनी को देश के आर्थिक विकास के लिए जरूरी बताकर आम आदमी के जले पर नमक छिड़कने का काम कर रही है। कीमतों इस दोहरी मार ने आम आदमी के भोजन के इंतजाम को इकहरा कर दिया है।
अब यह याद करने या गिनने की कवायद बेमतलब है कि सरकार की ओर से कितनी बार यह वादा किया गया है कि महंगाई पर शीघ्र ही काबू पा लिया जाएगा। खुद प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को भी यह गिनती पता नहीं होगी कि उन्होंने इस आशय के बयान कितनी बार दिए। सरकार की ओर से कीमतों में उछाल के जो भी स्पष्टीकरण दिए गए हैं, वे भरोसा करने लायक नहीं हैं। मानसून कमजोर रहा या पर्याप्त बारिश नहीं हुई, ये ऐसे कारण नहीं हैं कि इनका असर सभी चीजों पर एक साथ पड़े। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि कीमतें इतनी ज्यादा होने के बावजूद बाजार में किसी भी आवश्यक वस्तु का अकाल-अभाव दिखाई नहीं पड़ता। जब आपूर्ति कम होती है तो बाजार में चीजें दिखाई नहीं पड़ती और उनकी कालाबाजारी शुरू हो जाती है। अभी तो जमाखोरी हो रही है और ही कालाबाजारी। हो रही है तो सिर्फ बेहिसाब-बेलगाम मुनाफाखोरी। ऐसा महसूस होता है मानो सरकार या कहें कि सरकारों ने अपने आपको आम जनता से काट लिया है। यह हमारे लोकतंत्र का बिल्कुल नया चेहरा है- घोर जननिरपेक्ष और शुद्ध बाजारवादी चेहरा।
इस नई शक्ल वाले लोकतंत्र में ज्यादातर विपक्षी दलों का चाल, चेहरा और चरित्र भी सरकार से भिन्न नहीं है। कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के अब तक के लगभग आठ वर्ष के शासनकाल में कोई बारह मर्तबा संसद में महंगाई के सवाल पर बहस हुई है। अंतिम बार बहस पिछले वर्ष अगस्त महीने में मानसून सत्र के दौरान हुई थी। उस बहस में विपक्ष ने और खासतौर पर प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने महंगाई की चक्की में पिस रही जनता की बदहाली और बेबसी का खूब बखान किया था। सत्तापक्ष की ओर से भी आम आदमी की दुश्वारियों को लेकर खूब घड़ियाली आंसू बहाए गए था। मगर इसी के साथ उसने महंगाई के मामले में कुछ भी करने से हाथ खड़े करते हुए कह दिया था कि उसके पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं जिससे कि वह महंगाई को एक झटके में खत्म कर दे। इसी के साथ यह सिद्धांत भी पेश किया गया था कि महंगाई बढ़ने से ऊंची विकास दर का कोई ताल्लुक नहीं है और अगर हो भी तो महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए ऊंची विकास दर को कुर्बान नहीं किया जा सकता। मुख्य विपक्षी दल ने वित्त मंत्री की ओर से महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए कोई ठोस कदम उठाए जाने का आश्वासन मिलने पर निराशा तो जताई थी, लेकिन ऊंची विकास दर को प्राथमिकता देने के सिद्धांत को बिना किसी आपत्ति के स्वीकार कर लिया था। यह बहस लोकसभा की नियम संख्या-184 के तहत हुई थी। इस नियम के तहत होने वाली बहस का समापन मतदान से होता है। लेकिन सत्तापक्ष और आधिकारिक विपक्ष यानी भारतीय जनता पाटी्र की आपसी समझदारी के चलते मतदान के बजाय महंगाई पर चिंता जताने वाला एक प्रस्ताव लाया गया जो लोकसभा ने सर्वसम्मति से तो नहीं मगर भारी बहुमत से जरूर पारित कर दिया। इस प्रस्ताव पर वामपंथी दलों ने संशोधन पेश किया था जिसमें महंगाई पर काबू पाने में नाकामी के लिए सरकार की आलोचना का प्रस्ताव था। इस संशोधन के खिलाफ सत्तापक्ष और भाजपा ने एकजूट होकर मतदान किया था। यह एक घटना ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि महंगाई के सवाल पर सत्तापक्ष और मुख्य विपक्षी दल की संवेदनाएं कितनी बोगस है।
कुछ साल पहले तक जब किसी चीज के दाम असामान्य रूप से बढ़ते थ्ो तो सरकार हस्तक्षोप करती थी। यह अलग बात है कि इस हस्तक्षप का असर कुछ खास नहीं होता था, क्योंकि उस मूल्यवृद्धि की वजह वाकई उस चीज की दुर्लभता होती थी। अब तो सरकार बिल्कुल बेफिक्र है- महंगाई का कहर झेल रही जनता को लेकर भी और जनता को लूट रही बाजार की ताकतों को लेकर भी। उसने बाजार को आजादी दे दी है कि तुम जो चाहो करो, हम तुम्हारे आड़े नहीं आएंगे। सरकारें आमतौर पर महंगाई बढ़ने पर उसके लिए जिम्मेदार बाजार के बड़े खिलाड़ियों को डराने या निरुत्साहित करने के लिए सख्त कदम भले ही उठाए पर सख्त बयान तो देती ही हैं। लेकिन अब तो कभी हमारे देश के कृषि मंत्री का बयान आता है कि कीमतें अभी और बढ़ सकती हैं तो कभी योजना आयोग के उपाध्यक्ष फरमाते हैं कि महंगाई अभी कुछ दिन और बनी रहेगी। उनके इस तरह के मूर्खता या मक्कारी भरे बयान मुनाफाखोरों को लूट की खुली छूट देते हैं। अगर इस महंगाई का कुछ हिस्सा उत्पादकों तक पहुंच रहा होता और अनाज सब्जियां उगाने वाले छोटे किसान मालामाल हो रहे होते, तब भी कोई बात थी। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। इस अस्वाभाविक महंगाई का लाभ तो बिचौलिये और मुनाफाखोर बड़े व्यापारी उठा रहे हैं। अगर सरकार को जनता की तकलीफों का जरा भी अहसास हो या उससे हमदर्दी हो तो वह अपने खुफिया तंत्र से यह पता लगा सकती है कि कीमतों में उछाल आने की प्रक्रिया कहां से शुरू हो रही है और इसका फायदा किस-किसको मिल रहा है। यह पता लगाने में हफ्ते-दस दिन से ज्यादा का समय नहीं लगता। लेकिन कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी की ऐसी कोई व्याख्या या वजह उपलब्ध नहीं है जो समझ में सके। ऐसा लगता है कि मानो किसी रहस्यमयी शक्ति ने बाजार को अपनी जकड़न में ले लिया है, जिसके आगे आम जनता ही नहीं, सरकार और प्रशासन तंत्र भी असहाय और लाचार है।
महंगाई पर लगाम लगाने के मकसद से पिछले दो साल के दौरान रिजर्व बैंक एक दर्जन से भी ज्यादा बार रेपो और रिवर्स रेपो दरों में बढ़ोतरी कर चुका है। ऐसा करते वक्त सरकार की ओर से हर बार देश को दिलासा दी गई कि महंगाई जल्द ही काबू में जाएगी। लेकिन 'ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता ही गयाकी तर्ज पर महंगाई तो काबू में नहीं आई, उलटे घर और वाहन खरीदने के लिए कर्ज और महंगा हो गया। जाहिर है कि जन सरोकारी व्यवस्था की लगाम सरकार के हाथों से छूट चुकी है, जिसके कारण महंगाई का घोड़ा बेकाबू हो सरपट दौड़े जा रहा है। सब कुछ बाजार के हवाले है और बाजार की अपने ग्राहक या जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है। यह नग्न बाजारवाद है, जिसका बेशर्म परीक्षण किया जा रहा है। सवाल उठता है कि अगर सब कुछ बाजार को ही तय करना है तोे फिर सरकार के होने का क्या मतलब है? हम जिस समाज में रह रहे हैं, उस पर क्या लोकतंत्र का कोई नियम लागू होता है?
सरकार अगर चाहे तो वह इस समय बढ़ते दामों पर काबू पाने के लिए दो तरह से हस्तक्ष्ोप कर सकती है। पहला तो यह कि अगर बाजार के साथ छेड़छाड़ नहीं करना है तो सरकार खुद ही गेहंू, चावल, दलहन, चीनी आदि वस्तुएं भारी मात्रा में बाजार में उतार कर कीमतों को नीचे लाए। ऐसा करने से उसे कोई रोक नहीं सकता, बशर्ते उसमें ऐसा करने की मजबूत इच्छाशक्ति हो। हस्तक्ष्ोप का दूसरा तरीका यह है कि बाजार पर योजनाबद्ध तरीके से अंकुश लगाया जाए। इसके लिए उत्पादन लागत के आधार पर चीजों के दाम तय कर ऐसी सख्त प्रशासनिक व्यवस्था की जाए कि चीजें उसी दाम पर बिके जो सरकार ने तय किए हैं। जब सरकार कृषि उपज के समर्थन मूल्य निर्धारित कर सकती है तो वह बाजार में बिकने वाली वस्तुओं की अधिकतम कीमतें क्यों नहीं तय कर सकती? मीडिया की सर्व व्यापकता और सक्रियता के दौर में निर्धारित कीमतों पर चीजें बिकवाना कोई मुश्किल काम नहीं है। ऐसा करने का नकारात्मक नतीजा यह हो सकता है कि कुछ दिनों के लिए आवश्यक वस्तुएं बाजार से गायब ही हो जाएं। बाजार बनाम सरकार का असली मोर्चा यही होगा। इस मोर्चे पर सरकार को बिचौलियों, जमाखोरों और Sेबाजों के खिलाफ सख्ती से पेश आना होगा, क्योंकि चीजों का बनावटी अभाव पैदा कर उनके दामों में मनमानी बढ़ोतरी यही लोग करते हैं। प्रशासन में अगर थोड़ी भी हिम्मत और संकल्पशक्ति हो तो वह बाजार को निरंकुश होने से रोक सकता है। ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि सरकार अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाएगी लेकिन कुछ हद तक तो कामयाब होगी।
कीमतों का स्वभाव होता है कि एक बार चढ़ने के बाद वे बहुत नीचे नहीं आतीं। इस बार भी ऐसा ही होने का अंदेशा है। जब कीमतों में बढ़ोतरी रुपी सुनामी की लहरें थम जाएगी, तब सामान्य स्थिति में भी हम दोगुनी कीमतों पर आटा, दाल, चावल, चीनी आदि खरीद रहे होंगे। इसलिए अभी अगर सरकार की ओर से कारगर हस्तक्षेप नहीं हुआ तो आने वाले समय पर इस महंगाई की काली छाया पड़ना तय है। यह हस्तक्षेप अकेले केंद्र सरकार नहीं कर सकती, इसमें राज्य सरकारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। खासतौर पर जमाखोरों, मुनाफाखोरों और कालाबाजारियों पर लगाम कसने के मामले में कमान राज्य सरकारों के हाथ में होती है। इसलिए राज्य सरकारें महंगाई बढ़ने का ठीकरा केंद्र सरकार के सिर पर फोड़ कर अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती। सरकारों को यह याद रखना चाहिए कि हद से ज्यादा बढ़ी महंगाई कभी-कभी सरकारों को भी मार जाती है।

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