Monday, November 28, 2011

आडवाणी का सफर, सपना और हकीकत


लालकृष्ण आडवाणी की लगभग दो दशक पहले की सोमनाथ से अयोध्या तक की राम रथयात्रा और अभी-अभी सम्पन्न्न हुई जयप्रकाश नारायण के जन्मस्थान सिताबदियारा से दिल्ली तक की जनचेतना रथयात्रा में क्या फर्क और नाफर्क हो सकता है? वैसे इन दोनों यात्राओं के बीच आडवाणी ने इसी तरह की पांच और यात्राएं भी की हैं। उनकी इन सभी यात्राओं का मकसद मोटे तौर राजनीतिक ही रहा है लेकिन सोमनाथ और सिताबदियारा से शुरू की गई यात्राएं कई मायनों में बाकी यात्राओं से भिन्न और ज्यादा महत्वपूर्ण रहीं। राम रथयात्रा के जरिए जहां आडवाणी ने अपने उग्र हिंदुत्ववादी तेवरों से भारतीय राजनीति का ही नहीं बल्कि भारतीय समाज का भी साम्प्रदायिक आधार पर धु्रवीकरण कर दिया था। इसी ध्रुवीकरण के दम पर वे राजनीति के हाशिए पर पड़ी भाजपा को कांग्रेस की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी और सत्ता की दावेदार पार्टी बनाने में कामयाब रहे थे। वहीं सिताबदियारा से शुरू की गई यात्रा उन्होंने भाजपा की राजनीति में अपने को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए की और इसमें भी वे काफी हद तक कामयाब रहे।
समकालीन भारतीय राजनीति के जाने-माने रथयात्री और भाजपा के 'लौह पुरूष' ने अपनी इस चालीस दिन की रथयात्रा के दौरान भौगोलिक रूप से देश का काफी बड़ा दायरा तय किया है। इस दौरान वे देश के लगभग दो दर्जन राज्यों में गए। अपनी इस सातवीं देशव्यापी रथयात्रा के दौरान जनसमर्थन जुटाने में किस हद तक कामयाब रहे, इसको लेकर अलग-अलग आकलन और दावे हो सकते हैं लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा में अपनी उस सर्वोच्चता को साबित करने में वे काफी हद तक कामयाब रहे हैं, जिस पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परोक्ष रूप से सवाल खड़े करते हुए उन्हें हाशिए पर डालने में जुटा हुआ था और नरेंद्र मोदी जैसे ताकतवर क्षत्रप उन्हें प्रकारांतर से चुनौती दे रहे थे। आडवाणी ने अपनी इस यात्रा के जरिए जहां भाजपा में अपनी सर्वोच्चता साबित की, वहीं  दिल्ली में उनकी यात्रा के समापन के मौके पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक दलों के नेताओं की मौजूदगी से भाजपा के दूसरे तमाम नेताओं और संघ नेतृत्व को भी साफ-साफ संकेत मिल गया कि अटलबिहारी वाजपेयी के राजनीतिक परिदृश्य से अलग हो जाने के बाद आडवाणी ही ऐसे नेता हैं जिनकी राजग में व्यापक स्वीकार्यता है। इस मामले में आडवाणी को भरोसे की असली खुराक तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की ओर से मिली। उन्होंने आडवाणी की दिल्ली रैली में अपने प्रतिनिधि को भेजकर निकट भविष्य में राजग में शामिल होने की संभावनाएं जगाईं।
 संसद के मानसून सत्र के आखिरी दिन जब आडवाणी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देशव्यापी रथयात्रा निकालने का ऐलान किया था तो भाजपा के बाहर ही नहीं भाजपा के अंदर भी दबे स्वरों में यह अटकलें लगाई जाने लगी थीं कि रथयात्रा के जरिए उनकी असल मंशा खुद को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करने की है। कम से कम संघ नेतृत्व ने तो उनकी घोषणा को इसी रूप में ही लिया। संघ नेतृत्व आडवाणी के रथयात्रा के फैसले से सहमत नहीं था। उसने इस मामले में आडवाणी को अपनी ओर से 'अनापत्ति प्रमाण पत्र' तब ही दिया जब आडवाणी ने खुद नागपुर में उसके समक्ष हाजिर होकर अपनी इस यात्रा को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से जोड़कर न देखने की गुहार लगाई और आश्वस्त किया कि उनका मकसद रथयात्रा के जरिए सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को घेरना है।
लोकसभा चुनाव में अभी ढाई साल बाकी हैं लेकिन पिछले कुछ समय से भाजपा में शीर्ष स्तर पर पार्टी की ओर से आगामी चुनाव में प्रधानमंत्री पद की  उम्मीदवारी को लेकर नाहक ही एक संघर्ष छिड़ा हुआ था, जो कुछ हद तक अभी भी जारी है। आडवाणी की बढ़ती उम्र को उनकी अयोग्यता मानते हुए यह भी मान लिया गया था कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार अपेक्षाकृत कोई युवा ही संभालेगा। इस विवाद को तब और हवा मिली जब तमाम संभावित उम्मीदवारों के बीच शीतयुध्द की खबरें आने लगीं। लेकिन आडवाणी की यात्रा ने तात्कालिक तौर पर इस विवाद को काफी हद तक ठंडा कर दिया। हालांकि आडवाणी ने यह कभी नहीं  कहा, यहां तक कि नागपुर में संघ नेतृत्व के दरबार में हाजिरी लगाने के बाद भी नहीं कहा कि वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल नहीं हैं। अलबत्ता पार्टी की ओर से जरूर कहा जाने लगा कि समय आने पर इस बारे में तय किया जाएगा। यह भी कहा जाने लगा कि पार्टी में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए कई काबिल नेता हैं। लेकिन जैसे-जैसे आडवाणी का जनचेतना रथ आगे बढ़ता गया, पार्टी का सुर बदलता गया। पार्टी के सभी दिग्गज नेताओं द्वारा आडवाणी के नाम का इस तरह कीर्तन किया जाने लगा मानो इस सवाल का जवाब दिया जा रहा हो कि पार्टी की ओर प्रधानमंत्री पर का उम्मीदवार कौन है। आडवाणी की तारीफ में कशीदे पढ़े जाने का यह सिलसिला रामलीला मैदान पर उनकी यात्रा के समापन तक जारी रहा।
 भाजपा ने 2009 का लोकसभा चुनाव आडवाणी को ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर लड़ा था लेकिन पार्टी को पहले से भी कम सीटें मिली थीं और उसे विपक्ष में बैठना पड़ा। इसके बाद संघ नेतृत्व ने साफ तौर पर आडवाणी को कहा कि वे दूसरी पंक्ति के नेताओं को नेतृत्व संभालने दें और खुद वरिष्ठ राजनेता के तौर पर पार्टी का सिर्फ मार्गदर्शन करें। संघ के हस्तक्षेप से ही नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बनाए गए तथा सुषमा स्वराज को लोकसभा तथा अस्र्ण जेटली को राज्यसभा में पार्टी का नेतृत्व सौंपा गया। लेकिन संघ चाहते हुए भी पूरी तरह आडवाणी को किनारे नहीं कर पाया। उनके लिए संसदीय दल के अध्यक्ष का नया पद सृजित किया गया। अब भी संघ की तमाम असहमतियों के बावजूद आडवाणी ने अपनी जनचेतना यात्रा के जरिए एक बार फिर जता दिया है कि अभी वे चूके नहीं हैं और नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं। अपनी जनचेतना यात्रा को भी धुरंधर रथयात्री ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यों ही केंद्रित नहीं किया। घोटालों के घटाटोप से घिरी यूपीए सरकार को अण्णा हजारे के आंदोलन के असर से लड़खड़ाते देख आडवाणी को लगा कि यही माकूल मौका है जनाक्रोश को भुनाने और अपने को राजनीति के केंद्र में फिर से स्थापित करने का। पूरी रथयात्रा के दौरान आडवाणी ने अपनी कट्टरपंथी और उग्र हिंदूवादी नेता की छवि से छुटकारा पाने की गरज से उन तमाम मुद्दों से भी परहेज किया जिन्हें वे वर्षों तक हर मौके पर शिद्दत से उठाते रहे हैं। यात्रा के दौरान उनके भाषणों से राम मंदिर, धारा 370 और कथित मुस्लिम तुष्टिकरण जैसे तमाम मुद्दे सिरे से नदारद रहे। उन्होंने अपना पूरा फोकस भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे पर ही रखा।
 लेकिन इस सबके बावजूद चालीस दिन तक देशभर में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मनमोहन सिंह की सरकार को कोसते रहे आडवाणी इस मसले पर अपनी पार्टी का कोई ठोस कार्यक्रम देश के सामने पेश नहीं कर पाए। बेशक व्यक्तिगत रूप से आडवाणी की छवि बेदाग कही जा सकती है लेकिन एक पार्टी और गठबंधन के नेता के तौर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी प्रतिबध्दता पर कई सवाल खड़े होते हैं। यह सवाल कोई और नहीं, उनकी ही पार्टी के शासन वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों की कारगुजारियां कर रही हैं। कर्नाटक और उत्तराखंड में उनके मुख्यमंत्रियों को अपनी भ्रष्ट कारगुजारियों के कारण ही सत्ता से बाहर होना पड़ा है। इसके अलावा अन्य भाजपा शासित राज्यों से आ रही नित-नए घोटालों की खबरों पर भी आडवाणी को क्या अपना रवैया स्पष्ट नहीं करना चाहिए और यह भी बताना चाहिए कि विदेशों में जमा जिस काले धन की मांग वे जोर-शोर से कर रहे हैं उस काले धन को वापस लाने के लिए राजग सरकार ने क्या कदम उठाए थे, जिसमें वे स्वयं उपप्रधानमंत्री थे?


Friday, November 18, 2011

यही तो वक्त है सूरज तेरे निकलने का


मालदीव में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (सार्क) की सत्रहवीं शिखर बैठक के मौके पर भारतीय प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के बीच हुई सौहार्दपूर्ण बातचीत से एक बार फिर दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलती दिखाई दे रही है। हालांकि हाल ही में पाकिस्तान द्वारा भारत को औपचारिक रूप से मोस्ट फेवर्ड नेशन (एमएफएन) यानी कारोबार के क्षेत्र में तरजीही देश का दर्जा दे देने के बाद वहां से इस मामले में जो विरोधाभासी बयान आए थे उनसे एक बार तो लगा था कि पाकिस्तान रिश्तों को सुधारने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ने के बाद दो कदम पीछे हट गया है। लेकिन दो-तीन दिन तक बनी रही अनिश्चय की स्थिति के बाद आखिरकार प्रधानमंत्री गिलानी और उनके विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता तेहमीना जंजुआ ने ही साफ किया कि उनका देश भारत को कारोबारी वरीयता देने के लिए प्रतिबध्द है और इससे पीछे हटने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने यह भी कहा कि यह फैसला सेना को विश्वास में लेकर किया गया है तथा वाणिज्य मंत्रालय को इस सिलसिले में औपचारिकताएं पूरी करने के निर्देश दे दिए गए हैं। इन बयानों से जाहिर है कि पाकिस्तान को इस बारे में औपचारिक फैसला करने में भले ही कुछ वक्त और लगे लेकिन उसकी प्रक्रिया शुरू हो गई है।
 दरअसल, भारत को कारोबारी दृष्टि से तरजीही देश का दर्जा देने के बारे में पाकिस्तानी हुकूमत की ओर से जो विरोधाभासी बयान आए थे उसके पीछे उसकी घरेलू मजबूरियां ही खास तौर पर जिम्मेदार हैं जिन्हें आसानी से समझा जा सकता है। यह सही है कि पाकिस्तान के लेखकों, फनकारों और अन्य बुध्दिजीवियों के साथ ही आम अवाम भी चाहता है कि दोनों मुल्कों के बीच दोस्ताना रिश्ते हों। वहां सरकार भी अवाम के द्वारा ही चुनी हुई है लेकिन उस सरकार को एक ओर जहां सेना और जमात-ए-इस्लामी जैसे कई अंध राष्ट्रवादी गुटों के दबाव में काम करना पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर उसके ही पोषित और संरक्षित आतंकवादी गुट पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में ध्वस्त करने में जुटे हुए हैं। इन सारी ताकतों का भारत-विरोध जगजाहिर है और वे कभी नहीं चाहेंगी कि दोनों देशों के बीच दोस्ताना रिश्ते कायम हों
कोई तीन महीन पहले अपनी पहली भारत यात्रा पर आते वक्त पाकिस्तान की युवा विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार ने फरमाया था कि उनका मुल्क इतिहास से सबक जरूर लेगा लेकिन उसकी गुलामी नहीं करेगा। उस वक्त अनेक आलोचकों ने उनके इस बयान को एक अनुभवहीन राजनेता की अति उत्साह में आकर की गई टिप्पणी माना था। लेकिन उनकी उस यात्रा के बाद दोनों देशों के बीच कई ऐसे मौके आए हैं जब पाकिस्तान ने अपने संजीदा और सकारात्मक रवैये से यही संकेत देने की कोशिश की है कि वह अपने सिर से इतिहास का बोझ उतारकर भारत के साथ अपने रिश्तों का एक नया अध्याय शुरू करना चाहता है। अभी कुछ दिनों पहले ही उसने अपनी सीमा में भटक कर पहुंचे भारतीय सेना के एक हेलीकॉप्टर और उस पर सवार चार सैन्य अधिकारियों को चंद घंटों के अंदर रिहा कर ऐसी ही सदाशयता का परिचय दिया था। इससे पहले भारत ने भी पाकिस्तान को सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य बनने में मदद की थी और पाकिस्तान ने तुर्की के अफगान सम्मेलन में भारत के प्रवेश का समर्थन किया था। और, अब उसने भारत के 15 साल पहले के 'इजहार' पर 'इकरार' करने की पहल करते हुए व्यापारिक रिश्तों को बढ़ावा देने के लिए भारत को 'मोस्ट फेवर्ड नेशन'  का दर्जा देने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। 
 भारत ने तो पाकिस्तान को यह दर्जा 1996 में ही दे दिया था लेकिन तब पाकिस्तान कई कारणों से ठिठक गया था और 15 साल तक ठिठका रहा। इसके पीछे कई कारण थे। एक तो भारत के प्रति उस समय की पाकिस्तानी हुकूमत के अपने अपने पूर्वाग्रह थे और इसके अलावा वहां के कट्टरपंथी मजहबी और राजनीतिक समूहों का अंध भारत विरोधी रवैया भी था। वैसे दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्तों की बुनियाद पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के समय ही रख दी गई थी लेकिन उनकी मौत के बाद उनके उत्तराधिकारियों ने आमतौर पर भारत विरोधी नजरिया ही अपनाया, जिसके कारण दोनों देशों के व्यापारिक रिश्ते कभी सही ढंग से आकार नहीं ले सके।
दरअसल, पाकिस्तान के सत्ता-प्रतिष्ठान और वहां की कट्टरपंथी सियासी जमातों को हमेशा यह आशंका रही कि यदि उसने भारत से कारोबार के लिए अपने दरवाजे खोल दिए तो भारत से आने वाली अच्छी और सस्ती चीजें पाकिस्तान में छा जाएगी, जिससे पाकिस्तान के उद्योग-धंधे चौपट हो जाएंगे। इसके अलावा भारत के साथ तनाव भरे रिश्तों में ही अपना वजूद तलाशने वाली पाकिस्तानी फौज को भी यह आशंका सताती थी कि यदि दोनों मुल्कों के बीच बगैर किसी बाधा के कारोबार शुरू हो गया तो दोनों के रिश्तों में इतनी गर्मजोशी आ जाएगी कि कश्मीर जैसे मसले अपनी अहमियत खो देंगे। अब इस तरह की तमाम आशंकाओं की कैद से मुक्त होने की कोशिश करते हुए पाकिस्तानी हुकूमत ने व्यापार के क्षेत्र में भारत से रिश्ते बनाने की प्रक्रिया शुरू की है। उसके इस कदम से अब दोनों देशों के बीच न सिर्फ द्विपक्षीय व्यापार बढ़ेगा बल्कि वीजा संबंधी अड़चनें खत्म होने से पेशेवरों को एक देश से दूसरे देश आने-जाने में भी सहुलियत मिलेगी। भारत अब तक पाकिस्तान को महज 1946 वस्तुओं का निर्यात कर सकता था लेकिन अब वह 20 हजार से ज्यादा वस्तुओं का निर्यात कर सकेगा। दोनों देशों के बीच अभी सालाना लगभग 2.6 अरब डॉलर का सीधा व्यापार होता है जो अब सालाना 6 से 8 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है। इससे उन सामानों की लागत भी कम होगी जो अभी दुबई, ईरान और अफगानिस्तान के जरिए पाकिस्तान पहुंचते हैं। इसके अलावा पाकिस्तान के व्यापारी भारतीय माल को मध्य एशिया के देशों में बेचकर अच्छा मुनाफा कमा सकेंगे और भारतीय व्यापारी भी पाकिस्तान के माल को बांग्लादेश, नेपाल, भूटान आदि देशों में बेच पाएंगे। इस तरह जब दोनों देशों के बीच बड़े पैमाने पर कारोबार होने लगेगा तो दोनों के बीच कश्मीर जैसे सियासी मसले भले ही खत्म न हों, पर उनमें वैसी कर्कशता नहीं रहेगी, जैसी अब तक चली आ रही है।
 हालांकि फिलहाल कारोबारी मोर्चे पर नरमी दिखाने के बावजूद पाकिस्तान के सियासी तेवरों  में विशेष बदलाव नहीं आया है। उसने साफ कर दिया है कि भारत को तरजीही देश का दर्जा देने के बाद भी कश्मीर मुद्दे पर वह अपने पुराने स्र्ख पर कायम रहेगा। उसके ऐसा कहने के पीछे उसकी सियासी मजबूरियों को समझा जा सकता है। जिस कश्मीर को लेकर पाकिस्तानी हुक्मरान पिछले छह दशकों से भारत के खिलाफ हर तरह के नापाक हथकंडे अपनाते रहे हों, अमेरिका से मिलने वाले अरबों डॉलर और हथियारों की मदद को वे अपने यहां चलने वाली आतंकवाद की नर्सरी पर खर्च कर कश्मीर सहित भारत के अन्य इलाकों में खूनखराबा कराते रहे हों, हर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर कश्मीर का मसला उठाकर उस अपना दावा जताते रहे हों, उस कश्मीर के बारे में उनसे यह उम्मीद तो की ही नहीं जा सकती कि वे रातोंरात अपना स्र्ख बदल लेंगे। उनके लिए ऐसा करना मुमकिन भी नहीं है और मुनासिब भी नहीं। पाकिस्तान में हुकूमत चाहे आसिफ अली जरदारी और यूसुफ रजा गिलानी की हो या किसी और की, किसी के लिए भी कश्मीर पर परंपरागत स्र्ख से एकाएक पलटना आसान नहीं हो सकता। जाहिर है कि भारत के साथ रिश्तों में सुधार की कोशिशें उसके लिए निश्चित ही चुनौती भरी हैं। इन मुश्किलों भरे हालात में भारत के साथ कारोबारी रिश्ते बनाने की दिशा में उसका आगे बढ़ना न सिर्फ दोनों देशों के लिए बल्कि समूचे दक्षिण एशिया के लिए बहुत महत्व रखता है। भारत-पाकिस्तान के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलने के आसार बनाते इस दौर में भारत-पाकिस्तान के दोस्ताना रिश्तों के हिमायती मशहूर पाकिस्तानी शायर अहमद फराज का यह शेर काफी मौजूं मालूम होता है- स्याह रात नाम लेती नहीं है खत्म होने का, यही तो वक्त है सूरज तेरे निकलने का।


Tuesday, November 1, 2011

देश के नक्कारखाने में पूर्वोत्तर की चीखें

सुदूर पूर्वोत्तर राज्यों की आवाज दिल्ली आते-आते  कितनी कमजोर हो जाती हैं, इसका ताजा उदाहरण बना हुआ है मणिपुर। आमतौर पर पूर्वोत्तर के राज्यों की ओर दिल्ली यानी केंद्र सरकार और मीडिया के एक बड़े वर्ग का ध्यान तभी जाता है जब वहां कोई बड़ी प्राकृतिक आपदा आती है या फिर कोई पड़ोसी देश उन सीमावर्ती राज्यों के साथ कोई छेड़खानी करता है। राष्ट्रीय या अखिल भारतीय कहे जाने वाले राजनीतिक दलों या फिर राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता की जोड़तोड़ में शामिल दलों को भी केंद्र में सरकार बनाते या गिराते वक्त ही याद आता है कि पूर्वोत्तर के राज्य भी भारत का ही हिस्सा है, क्योंकि उन्हें वहां से निर्वाचित क्षेत्रीय दलों के सांसदों का समर्थन चाहिए होता है। इसके अलावा उन राज्यों में दैनिक जनजीवन में क्या कुछ होता है और वहां लोगों को किन आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है, इससे किसी का कोई सरोकार नहीं होता। यह तथ्य एक बार नहीं, कई बार साबित हुआ है और इस समय मणिपुर के हालात से एक बार फिर साफ-साफ साबित हो रहा है।
बीते कई वर्षों से जारी उग्रवाद और अलगाववाद की लपटों में  बुरी तरह झुलस रहा पूर्वोत्तर का छोटा सा लेकिन खूबसूरत मणिपुर राज्य इस समय अपने सबसे मुश्किल भरे दौर से गुजर रहा है। इस बार उसके सामने संकट उग्रवाद का नहीं बल्कि विभिन्न स्थानीय समुदायों के बीच अपनी पहचान और वर्चस्व को लेकर बढ़ते तनाव का है। एक अलग जिले के गठन के सवाल पर राज्य के कूकी और नगा समुदाय एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं। कूकी समुदाय का संगठन 'द सदर हिल्स डिस्ट्रिक्ट डिमांड कमेटी' नगा बहुल सेनापति जिले को विभाजित कर सदर हिल्स जिले के गठन की मांग कर रहा है। सदर हिल्स इलाका कुकी बहुल सब-डिविजन है। कूकी समुदाय की इस मांग का नगा समुदाय का संगठन 'द युनाइटेड नगा काउंसिल' विरोध कर रहा है। मणिपुर घाटी को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ने वाले दो रास्ते हैं जिनमें से एक रास्ता कूकी बहुल इलाके से गुजरता है जबकि दूसरा नगा बहुल इलाके से। दोनों संगठनों ने अपनी-अपनी मांग को लेकर इन रास्तों पर पिछले तीन महीने से भी ज्यादा समय से आर्थिक नाकेबंदी लागू कर रखी है, जिसके चलते मणिपुर घाटी के बाशिंदों खासकर मैतेई समुदाय के लोगों का जीना दुश्वार हो गया है। इस प्रकार राज्य के तीनों प्रमुख समुदाय एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो गए हैं।
 आर्थिक नाकेबंदी की वजह से राज्य के इस इलाके में रसोई गैस, पेट्रोल, डीजल, दवाइयां जैसी जरूरी वस्तुओं का अभाव हो गया है और कालाबाजारियों और जमाखोरों की बन आई है। वे मनमाने दामों पर चीजें बेच रहे हैं जिसके चलते रसोई गैस का सिलेंडर 1800 स्र्पए में तथा पेट्रोल 100 स्र्पए और डीजल 80 स्र्पए प्रति लीटर में भी मुश्किल से उपलब्ध हो रहा है। आलू और प्याज 50 से 60 स्र्पए किलो तक मिला रहा है। हालात विस्फोटक हो गए हैं और भयावह खूनखराबे को न्योता दे रहे हैं। इस मौके का फायदा उठाने के लिए राज्य में पहले से सक्रिय उग्रवादी संगठन भी तैयार बैठे हैं। अफसोस की बात यह है कि राज्य सरकार किसी समाधान पर नहीं पहुंच पा रही है और केंद्र सरकार भी मूकदर्शक बनी हुई है। सिर्फ केंद्र सरकार ही नहीं, एक राजनीतिक दल के तौर पर कांग्रेस की चुप्पी भी कम अफसोसनाक नहीं है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में किसानों पर लाठीचार्ज होता है तो वहां पदयात्रा करने पहुंच जाते हैं। बिहार में जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे लोगों पर पुलिस फायरिंग होती है तो वे वहां का भी दौरा कर आते हैं, लेकिन उन्हें मणिपुर बिल्कुल याद नहीं आता।
 देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी और जल्द से जल्द जैसे भी हो, सत्ता में आने को बेताब भारतीय जनता पार्टी के एजेंडा में भी मणिपुर या पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए कोई खास जगह नहीं है। हां कभी-कभी उसे असम की याद जरूर आ जाती है। वहां वह बांग्लादेशी शरणार्थियों और वहां के कथित घुसपैठियों का मुद्दा उठा कर राज्य की राजनीति में साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की कोशिश करती रहती है। लेकिन मणिपुर या अस्र्णाचल प्रदेश, मिजोरम, नगालैंड में उसके लिए इस तरह की राजनीति की कोई गुंजाइश नहीं रहती है, इसलिए इन राज्यों की ओर सामान्यतया उसका ध्यान नहीं जाता है। हां, इन राज्यों में ईसाई मिशरियों की गतिविधियों और यदा-कदा होने वाली धर्मातंरण की घटनाओं को लेकर वह अपनी हिन्दुत्व जनित परेशानी का इजहार जरूर कर देती है। जहां तक वामपंथी दलों और विभिन्न दलों में बंटे समाजवादियों की बात है तो वामपंथी तो अभी तक पश्चिम बंगाल और केरल में मिली हार के सदमे से ही उबर नहीं पाए हैं और समाजवादियों के लिए तो अब मानो उत्तर प्रदेश और बिहार ही पूरा देश है। डॉ. लोहिया, मधु लिमए और सुरेंद्र मोहन के बाद मणिपुर जैसे सवालों पर सोचने और बोलने वाला कोई नेता या चिंतक अब समाजवादियों में है ही नहीं।
 सवाल सिर्फ मणिपुर में इन दिनों चल रही आर्थिक नाकेबंदी का ही नहीं है, पूर्वोत्तर के राज्यों से जुड़ा इस तरह का जब भी कोई मामला आता है तो क्या सरकार, क्या राजनीतिक दल और क्या मीडिया कोई भी उसे कभी गंभीरता से नहीं लेता। मणिपुर की ही इरोम शर्मिला चानू हैं जिनके अनशन को आगामी चार नवंबर ग्यारह वर्ष पूरे हो रहे हैं। उनकी मांग है कि मणिपुर में लागू सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटाया जाए क्योंकि इस कानून की आड़ में वहां तैनात सशस्त्र बलों के जवान निर्दोष लोगों के साथ गुलामों जैसा बर्ताव करते हैं और उनके द्वारा महिलाओं का अपहरण और बलात्कार किया जाना आम बात है। पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में यह कानून लागू है। इरोम शर्मिला के आरोपों की जांच करने की जहमत भी कभी सरकार ने नहीं उठाई। मणिपुर हो या जम्मू-कश्मीर जब भी वहां तैनात सशस्त्र बलों पर फर्जी मुठभेड़ में किसी को मार दिए जाने, लूटपाट करने या महिलाओं से बलात्कार करने के आरोप लगते हैं और उनकी जांच कराने की मांग उठती है तो सरकार का एक ही घिसापिटा जवाब होता है कि ऐसा करने से सशस्त्र बलों का मनोबल गिरेगा। जनता के मनोबल का क्या होगा, इस बारे में सरकार कभी नहीं सोचती। अपने इसी रवैये के चलते दिल्ली में भ्रष्टाचार और जन लोकपाल के सवाल पर अनशन करने वाले अण्णा हजारे और बाबा रामदेव के आगे सिर के बल खड़ी हो जाने वाली सरकार और उनके अनशन का चौबीसों घंटे लाइव प्रसारण करने वाले टीवी चैनलों ने कभी शर्मिला की सुध लेने की जहमत नहीं उठाई। अण्णा हजारे और बाबा रामदेव की पालकी के कहार बनने को आतुर रहने वाले राजनीतिक दलों के नेताओं ने भी कभी शर्मिला से मिलना मुनासिब नहीं समझा। सिर्फ इसलिए कि मणिपुर छोटा सा राज्य है और वहां से लोकसभा के सिर्फ दो सदस्य चुने जाते हैं।
 दरअसल, असम के अलावा पूर्वोत्तर के बाकी सभी राज्यों की आबादी जनजाति बहुल है। वहां के लोगों की कद-काठी और चेहरे-मोहरे, उनकी संस्कृति, उनकी सामाजिक परंपराए, रीति-रिवाज और उनकी भाषाएं शेष भारत के लोगों से काफी अलग है। इसीलिए न तो शेष भारत खासकर उत्तर भारत के लोग उन्हें अपनी ही तरह भारत का नागरिक मानते हैं और न ही वे लोग शेष भारत के लोगों के साथ अपना जुड़ाव कायम कर पाते हैं। इस दूरी को पाटने और समूचे पूर्वोत्तर के लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए सरकार की ओर से भी राजनीतिक व सामाजिक संगठनों की ओर से भी कभी कोई संजीदा पहल नहीं की गई। कहने की आवश्यकता नहीं कि पूर्वोत्तर को हम सिर्फ भारतीय भू भाग का हिस्सा भर मानते हैं। भावनात्मक तौर पर यह अलगाव ही भौगोलिक अलगाव को बढ़ावा देता है। इस अलगाव के चलते ही कभी चीन अस्र्णाचल पर अपना दावा कर देता है तो कभी नगालैंड और मिजोरम के लोग देश से अलग होने की बात करते हैं। पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में बने अलगाववादी संगठन और वहां चलने वाली उग्रवादी गतिविधियों के लिए सबसे ज्यादा अगर कोई जिम्मेदार है तो वह है केंद्र सरकार और राजनीतिक दलों का उपेक्षित रवैया तथा शेष भारत के लोगों की तंगदिली और स्वार्थीपन।