Tuesday, October 25, 2011

दीपावली की सामाजिकता को चट करता बाजार

 दीपावली का पर्व अमावस्या को मनाया  जाता है और इस दिन दीये जलाए जाते हैं, इससे यह प्रतीक बेहद लोकप्रिय हो गया है कि यह अंधकार पर प्रकाश की और असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है। इस प्रतीकवाद की पुष्टि के लिए ही संस्कृत की उक्ति 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' पेश की जाती है। यह एक ऐसा प्रतीकवाद है, जो आधुनिक भारतीय चित्त को बहुत भाता है, क्योंकि इससे उसका राष्ट्रीय और सामाजिक गौरव बढ़ता है। ज्यादा सच तो यह प्रतीत होता है कि चौदह वर्ष के वनवास की अवधि समाप्त कर और रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद राम के अयोध्या लौटने पर दीपावली मनाने की परंपरा शुरू हुई। इस लिहाज से यह सुशासन कायम होने का उत्सव है। भारत में सुशासन की कल्पना राम-राज्य से जुड़ी रही है। लेकिन हमारे देश ने इतने लंबे समय तक सुशासन ही नहीं, शासन का भी ऐसा नितांत अभाव देखा है कि राम-राज्य की कसक उसके अंतर्मन में बैठ गई है। आम देशवासियों के इस स्वप्न को जिस व्यक्ति ने पुनर्जाग्रत किया, उसका नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। आजादी के बाद देश की जनता को महात्मा गांधी की कल्पना के अनुरूप राम-राज्य नहीं मिला। उसे जो मिला था, वह शुध्द कांग्रेस राज था। लंबे समय तक चले और आज भी जारी इस कांग्रेसी राज के बीच-बीच में थोड़े समय के लिए तथाकथित जनता राज (जनता पार्टी का शासन) भी आया और फिर तथाकथित रामभक्तों (भाजपा-एनडीए) का राज भी आया लेकिन देश का सुशासन से परिचय नहीं हो सका तो नहीं हो सका। उसे मिला तो सिर्फ घपले-घोटालों और भाई-भतीजावाद का राज, जो आज अपने भयावह रूप में सिर्फ दिल्ली में ही नहीं, विभिन्न राज्यों में भी जारी है। घोटालों का जो घटाटोप देश पर छाया हुआ है उसके खत्म होने के आसार कहीं से भी नजर नहीं आ रहे हैं। 
वैसे दीपावली खास तौर पर लक्ष्मी की पूजा-आराधना का पर्व है। लक्ष्मी यानी धन-धान्य और ऐश्वर्य की देवी। इस आधार पर हमारा भारत जितना आध्यात्मिक है उतना ही भौतिकवादी देश भी है। हम ज्ञान के साथ-साथ ही समृद्धि की भी उपासना करते आए हैं, क्योंकि हमें परलोक को ही नहीं, इस लोक को भी सुंदर और सफल बनाना है। लक्ष्मी भगवान विष्णु की पत्नी हैं। हमारे धर्म-शास्त्रों में विष्णु को इस सृष्टि का सूत्रधार माना गया है। वही सृष्टि का संचालन और पालन-पोषण करते हैं। जाहिर है कि इस दायित्व का निर्वाह वह अकेले नहीं कर सकते। इसमें उन्हें अपनी पत्नी लक्ष्मी का सहयोग चाहिए। इन पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से हमारे शास्त्र-रचयिता ऋषियों-मनीषियों ने संभवतः यह संदेश देना चाहा हो कि हमें धन की उपासना तो अवश्य करनी चाहिए लेकिन वह उपासना इस तरह हो, जैसे पूजा की जा रही हो। अर्थात्‌ भौतिकता के साथ पवित्रता का भाव भी जुड़ा हुआ हो। अनैतिक साधनों से अर्जित किया गया धन जीवन में अभिशाप ही पैदा करता है। इसकी पुष्टि हमारे देश के मौजूदा हालात देखकर भी होती है। देश ने विदेशी दासता से स्वतंत्र होते ही धन की उपासना शुरू कर दी थी। देशी शासकों ने देशवासियों को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए तरह-तरह के यत्न शुरू किए। पंचवर्षीय योजनाएं बनाई जाने लगी। स्पष्ट तौर पर यह उपासना समाजवादी संपन्नता की थी। लेकिन चूंकि इसके लिए अपनाए गए तौर-तरीके कतई समाजवादी नहीं थे, इसलिए गरीबी के विशाल हिन्द महासागर में समृद्धि के कुछ टापू ही उभर पाए। वर्ष 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार के खाली हो जाने से उपजे संकट ने हमारी अर्थव्यवस्था की दिशा ही बदल दी। तब के प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव और वित्त मंत्री (मौजूदा प्रधानमंत्री) डॉ मनमोहन सिंह की जोड़ी ने उदारीकरण यानी बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था का रास्ता अपनाया, जो कि पूंजीवाद का ही नया संस्करण है। तब से लेकर आज तक हम एकाग्रभाव से बाजारवाद की ही पूजा-अर्चना कर रहे हैं। लक्ष्मी अब लोक की देवी नहीं, बल्कि ग्लोबल प्रतिमा बन गई हैं। उसकी पूजा में अब लोक-जीवन को संपन्न बनाने की इच्छा कम और खुद को समृद्ध बनाने की लालसा ज्यादा व्यक्त की जाती है। डिजायनों और ब्रांडों के बोलबाले ने मिट्टी की लक्ष्मी प्रतिमाओं और कुम्हार के कलाकार हाथों से ढले दीयों को भी डिजायनर बना दिया है। डिजायनर दीयों के साथ ही ब्रांडेड मोमबत्तियां और मोम के दीयों का भी चलन बढ़ गया है। पारंपरिक मिठाइयों की जगह अब ब्रांडेड मिठाइयों और चॉकलेटों ने ले ली है। दीपावली पर उपहारों और मिठाइयों के आदान-प्रदान का चलन पुराना है लेकिन पहले उनमें आत्मीयता होती थी। अब जिन महंगे उपहारों या मिठाइयों का लेन-देन होता है उनमें से आत्मीयता और मिठास का पूरी तरह लोप हो गया है और उनकी जगह ले ली है दिखावे और स्वार्थ ने। यानी अब राजनीति के साथ-साथ हमारी संस्कृति और सामाजिकता भी बाजार के रंग में रंग गई है। दीपावली समेत हमारी लोक-संस्कृति से जुड़े तमाम त्योहारों, पर्वो और यहां तक कि महिलाओं द्वारा किए जाने वाले करवा चौथ और हरतालिका तीज जैसे व्रतों को भुनाने में भी बाजार अब पीछे नहीं रहता हैं। 
निस्संदेह बाजारवाद से देश में समृद्धि का एक नया वातावरण निर्मित हुआ है। महानगरों में एक बड़े वर्ग के बीच हमेशा उत्सव का माहौल रहता है। लेकिन उनके इस उत्सव में न तो बहुत ज्यादा सामाजिकता होती है और न ही इसके पीछे किसी प्रकार की कलात्मकता। उसमें जो कुछ होता है, उसे भोग-विलास या आमोद-प्रमोद का फूहड़ और बेकाबू वातावरण ही कह सकते हैं। यह सब कुछ अगर एक छोटे से तबके तक ही सीमित रहता तो, कोई खास हर्ज नहीं था। लेकिन मुश्किल तो यह है कि 'यथा राजा-तथा प्रजा' की तर्ज पर ये ही मूल्य हमारे राष्ट्रीय जीवन पर हावी हो रहे हैं। जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं या जिनकी आमदनी सीमित है, उनके लिए बैंकों ने 'ऋणं कृत्वा, घृतम्‌ पीवेत' की तर्ज पर क्रेडिट कार्डों और कर्ज के जाल बिछा कर अपने खजाने खोल रखे हैं। लोग इन महंगी ब्याज दरों वाले कर्ज और क्रेडिट कार्डों की मदद से सुख-सुविधा के आधुनिक साधन खरीद रहे हैं। विभिन्न कंपनियों के शोरूमों से निकलकर रोजाना सड़कों पर आ रहीं लगभग पांच हजार कारों और शान-ओ शौकत की तमाम वस्तुओं की दुकानों और शॉपिंग मॉल्स पर लगने वाली भीड़ देखकर भी स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर हर तरफ लालसा का तांडव ही ज्यादा दिखाई पड़ रहा है। तृप्त हो चुकी लालसा से अतृप्त लालसा ज्यादा खतरनाक होती है। देशभर में बढ़ रहे अपराधों-खासकर यौन अपराधों की वजह यही है। यह अकारण नहीं है कि देश के उन्हीं इलाकों में अपराधों का ग्राफ सबसे नीचे है, जिन्हें बाजारवाद ज्यादा स्पर्श नहीं कर पाया है। यह सब कहने का आशय विपन्नता का महिमा-मंडन करना कतई नहीं है, बल्कि यह अनैतिक समृद्धि की रचनात्मक आलोचना है। ऐसी आलोचना नहीं होनी चाहिए क्या?  

Sunday, October 23, 2011

येदियुरप्पा उर्फ भाजपा की कलंक कथा

प्रधानमंत्री  बनने की अपनी चिर-परिचित हसरत के साथ भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस और उसके नेतृत्व  वाली केंद्र की यूपीए सरकार  की घेराबंदी करने के लिए एक बार फिर देशव्यापी रथयात्रा पर निकले भारतीय जनता पार्टी के महारथी लालकृष्ण आडवाणी और उनके सहयोगियों को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि उनकी नैतिकता का रथ इतनी जल्दी अपने ही घर में फैले भ्रष्टाचार के दलदल में फंस जाएगा। मध्य प्रदेश के सतना शहर में आडवाणी की रथयात्रा के सिलसिले में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में राज्य सरकार के एक मंत्री समेत भाजपा नेताओं द्वारा पत्रकारों को पैसे बांटने का मामला अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि भ्रष्टाचार के आरोपों में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को जेल जाना पड़ गया। उनके जेल जाने से आडवाणी और पार्टी के दूसरे बड़े नेता ही नहीं, समूचा संघ परिवार सकते में हैं। कहां तो वे कांग्रेस को घेरने निकले थे और कहां अब उनकी ही पार्टी के एक क्षत्रप की कारगुजारी ने उन्हें आईना देखने पर मजबूर कर दिया है।
कोई साढ़े तीन साल पहले जब कर्नाटक  में भाजपा सत्ता में  आई थी तो यह किसी भी अन्य राज्य  की तुलना में उसके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। दक्षिण भारत में अपनी सरकार बनाने की उसकी हसरत परवान चढ़ी थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद जो कुछ हुआ वह सत्ता के दुस्र्पयोग और भ्रष्टाचार की हैरतअंगेज दास्तान है। अवैध खनन के बारे में ढाई महीने पहले राज्य के तत्कालीन लोकायुक्त संतोष हेगड़े की रिपोर्ट आने के बाद येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था और अब भूमि घोटाले में उनकी लिप्तता के आरोप ने उन्हें जेल के सींखचों के पीछे पहुंचा दिया है। दक्षिण भारत में अपने बूते भाजपा को पहली बार सत्ता का आस्वादन कराने वाले कद्दावर नायक से खलनायक बने येदियुरप्पा कर्नाटक के पहले और देश के ऐसे पांचवें पूर्व मुख्यमंत्री हो गए जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते बेआबरू होकर सींखचों के पीछे जाना पड़ा। इसके पहले महाराष्ट्र के अब्दुल रहमान अंतुले, तमिलनाडु की जयललिता, बिहार के लालू प्रसाद यादव और झारखंड के मधु कोड़ा इसी तरह के आरोपों के चलते जेल की हवा खा चुके हैं।
कांग्रेस  और पूर्व  प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के जनता दल (सेक्यूलर) के कुशासन से त्रस्त कर्नाटक  की जनता से सुशासन देने का वादा कर सत्ता में आए येदियुरप्पा  बहुत जल्द अपने भ्रष्टाचरण की गाथा लिखने में मशगूल हो गए थे। उन्होंने बेखौफ होकर अपने परिजनों, रिश्तेदारों और मित्रों को बेशकीमती सरकारी जमीन कौड़ियों के भाव दे दी, विधानसभा में बहुमत बनाए रखने के लिए निर्दलीय और विपक्षी विधायकों की खरीद-फरोख्त की और पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के दुलारे बेल्लारी के बदनाम रेड्डी भाइयों को राज्य की बेशकीमती खदानों का मालिक बना दिया। इस सबकी तार्किक परिणति हुई मुख्यमंत्री पद से उनकी स्र्खसती में। वैसे यह तथ्य बहुत पहले ही जगजाहिर हो चुका था कि मुख्यमंत्री पद का दुस्र्पयोग करते हुए येदियुरप्पा ने अपने परिजनों और चहेतों को उपकृत किया है। अगर तभी भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व उनसे पिंड छुड़ा लेता तो आज पार्टी की ऐसी भद नहीं पिटती। लेकिन जब तक बन पड़ा पार्टी उनका बचाव करती रही। पार्टी की ओर से कभी कर्नाटक के प्रभारी रहे वरिष्ठ नेता शांता कुमार के एक बयान से भी इसकी तसदीक होती है। तत्कालीन लोकायुक्त की रिपोर्ट आने के बाद मची सियासी उथल-पुथल के दौरान शांता कुमार ने कहा था कि उन्होंने इस बारे में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को पहले ही आगाह कर दिया था। लेकिन पार्टी सब कुछ जानते हुए भी मूकदर्शक बनी रही, जब तक कि येदियुरप्पा पार्टी के गले की फांस नहीं बन गए।
 येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री रहते हुए जो कुछ धतकरम किए उसमें उन्होंने तो किसी तरह का शर्म-संकोच नहीं ही किया, लेकिन उनके सारे किए-धरे को नजरअंदाज करने में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने भी कम निर्लज्जता नहीं दिखाई। जमीन आवंटन से संबंधित मामले में जब येदियुरप्पा पर आरोप लगे थे तब भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने तो यह कहते हुए निहायत बेशर्मी के साथ उनका बचाव किया था कि येदियुरप्पा ने जो किया है, वह अनैतिक तो है पर गैरकानूनी नहीं। जाहिर है कि भाजपा येदियुरप्पा को छेड़ने में हिचकिचा रही थी। उसे डर था कि ऐसा करने से येदियुरप्पा के वफादार विधायक बगावत पर उतर आएंगे। भाजपा अक्सर दूसरे दलों पर वोट बैंक की राजनीति करने का आरोप लगाती रहती है मगर कर्नाटक के प्रभावशाली लिंगायत समुदाय का समर्थन खो देने के डर से वह येदियुरप्पा के साथ नरमी बरतती रही। पार्टी नेतृत्व को लग रहा था कि येदियुरप्पा के वफादार विधायकों की बगावत से दक्षिण भारत में बड़ी मुश्किल से बनी पार्टी की पहली सरकार बेमौत मारी जाएगी और लिंगायत समुदाय के पार्टी से दूर हो जाने  पर भविष्य में दोबारा वहां सत्ता में लौटना मुश्किल हो जाएगा।
 पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में एक वस्तुपरक बयान देने पर आडवाणी को भाजपा का अध्यक्ष पद छोड़ देने पर मजबूर कर देने वाले संघ नेतृत्व ने भी येदियुरप्पा के भ्रष्ट कारनामों को पूरी तरह नजरअंदाज किया। संघ अपने को चरित्र निर्माण की पाठशाला कहता रहता है लेकिन उसके निष्ठावान स्वयंसेवक येदियुरप्पा पर लगे आरोप और उनकी गिरफ्तारी बताती है कि संघ अपने स्वयंसेवकों का किस तरह का चरित्र निर्माण करता है। लोकायुक्त की अदालत ने येदियुरप्पा की गिरफ्तारी का आदेश ऐसे वक्त जारी किया, जब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भाजपा केंद्र सरकार और कांग्रेस को घेरने में जी-जान से जुटी हुई है। लालकृष्ण आडवाणी तो जनचेतना रथ पर सवार होकर कांग्रेस और केंद्र सरकार पर हमले बोल ही रहे हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अण्णा हजारे के आंदोलन का श्रेय लूटने में पीछे नहीं है।
येदियुुरप्पा  की गिरफ्तारी ने सुराज  और सुशासन का मंत्रोच्चार करने वाले रथयात्री आडवाणी के लिए बेहद असहज स्थिति पैदा कर दी है। यह अकारण नहीं हैं कि प्रतिदिन अपनी यात्रा प्रारंभ करने से पूर्व संवाददाताओं से बतियाने वाले आडवाणी को येदियुरप्पा की गिरफ्तारी के अगले दिन भोपाल पहुंचने पर अपना गला खराब होने आड़ लेते हुए प्रेस कांफ्रेंस रद्द करनी पड़ी। लेकिन अगले दिन नागपुर में उन्हें हिम्मत जुटा कर कहना पड़ा कि येदियुरप्पा को पार्टी ने पहले ही सचेत किया था, लेकिन वे नहीं चेते और उनकी कारगुजारियों के लिए पार्टी को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ रहा है। यह विडंबना ही है कि आडवाणी की इस साफगोई से पार्टी के दूसरे नेता अपने को असहज महसूस कर रहे हैं। वे अभी भी येदियुरप्पा के प्रति अपना मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। पार्टी महासचिव और प्रवक्ता जेपी नड्डा ने साफ कहा है उनकी गिरफ्तारी महज एक कानूनी मसला है, इसलिए कानून अपना काम करेगा लेकिन पार्टी पूरी तरह येदियुरप्पा के साथ है। इतना ही नहीं, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सदानंद गौड़ा सहित राज्य सरकार के तमाम मंत्री येदियुरप्पा के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। वैसे इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ बने देशव्यापी माहौल में कांग्रेस के खिलाफ सियासी बढ़त हासिल करने के लिए येदियुरप्पा भले ही हटा दिए गए लेकिन सदानंद गौड़ा को उनकी मर्जी से ही उनका उत्तराधिकारी बनाना गया। जो पार्टी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में फंसे अपने एक नेता की पसंद-नापसंद का इतना ध्यान रखती हो, वह किस नैतिक धरातल पर खड़ी होकर भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा कर सकती है?
 देश अभी भूला नहीं है कि अवैध खनन में भागीदारी और सरकारी जमीन की हेराफेरी के सिलसिले में येदियुरप्पा को लोकायुक्त की रिपोर्ट में साफ तौर पर दोषी करार दे दिए जाने के बाद पार्टी नेतृत्व ने जब मजबूर होकर येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटने का फरमान जारी किया था तो येदियुरप्पा ने किस तरह लिंगायत समुदाय में अपनी पैठ को अपने राजनीतिक सुरक्षा कवच की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश करते हुए पार्टी नेतृत्व को बागी तेवर दिखाए थे और फिर मजबूरन इस्तीफा देने के बाद अपने 'विश्वस्त' को मुख्यमंत्री बनवाकर सत्ता में अपनी वापसी का रास्ता खुला रखना चाहा था। लेकिन अदालत के आदेश पर हुई उनकी गिरफ्तारी ने उनके इस मंसूबे पर पानी फेर दिया है। मुख्यमंत्री पद से जेल तक येदियुरप्पा का यह सफरनामा भाजपा के लिए निश्चित तौर पर एक बड़ा झटका तो है ही, एक सबक भी है। सबक यह कि भ्रष्टाचार के मसले पर दूसरों पर पत्थर उछालने के पहले अपने घर को दुस्र्स्त करना होगा। येदियुरप्पा प्रकरण ने मुख्यमंत्रियों के विवेकाधिकारों के औचित्य पर भी सवाल खड़े किए हैं लेकिन भाजपा ने अभी तक इस बारे में ऐसा कोई नीतिगत फैसला नहीं किया है और न ही करने का इरादा जताया है जो मुख्यमंत्रियों के विवेकाधीन कोटे के दुस्र्पयोग पर अंकुश लगने का भरोसा पैदा कर सके। कहने की जरूरत नहीं कि भाजपा नेतृत्व कर्नाटक के तजुर्बे से कोई सबक सीखने की समझदारी दिखाने को तैयार नहीं है।

Monday, October 3, 2011

एक अच्छा सुझाव उर्फ शिगूफा!


बीते दिनों केंद्र सरकार के समक्ष उत्पन्न राजनीतिक संकट का केंद्र बने और 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में अपनी कथित भूमिका को लेकर विपक्ष के निशाने पर आए केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम की ख्याति लोक-लुभावन बजट पेश करने वाले वित्त मंत्री के रूप में रही है। अलग-अलग अवधि में, अलग-अलग सरकारों के दौरान वित्त मंत्रालय में रहते हुए उन्होंने स्वप्निल बजट पेश करने वाले वित्त मंत्री के रूप में ऐसी छवि बनाई है कि हर तबका उन्हें अपना हितैषी मानता रहा है। अलबत्ता व्यावहारिक तौर पर उनके बनाए बजटों ने आम आदमी की आर्थिक दुश्वारियां ही बढ़ाई हैं, बेरोजगारों की तादाद में इजाफा ही किया है और देश में अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को भी और ज्यादा गहरा किया है।
चिदंबरम इस समय भले ही गृह मंत्रालय का कामकाज देख रहे हों, लेकिन उनकी पहली पसंद वित्त मंत्रालय ही रहा है। फिलहाल व्यावहारिक तौर पर जरूर वे नॉर्थ ब्लाक के बाएं छोर पर बैठते हैं लेकिन उनका दिल-दिमाग नॉर्थ ब्लाक के दाहिने छोर पर स्थित वित्त मंत्रालय में चलने वाली गतिविधियों पर ही लगा रहता है। यही वजह है कि वे आर्थिक मसलों पर अपनी राय जाहिर करने का कोई मौका नहीं गंवाते हैं। फिलहाल चिदंबरम ने अमीर लोगों पर ज्यादा कर लगाने का सुझाव दिया है। उन्होंने यह सुझाव अखिल भारतीय प्रबंधन संघ (आइमा) के सालाना जलसे में दिया है। उनका यह सुझाव चौंकाने वाला है, क्योंकि करों का मामला वित्त मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आता है और बेतहाशा बढ़ती महंगाई के कारण सरकार और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पहले से ही विपक्ष के निशाने पर हैं और जनता में बेहद असंतोष है।
चिदंबरम के मुताबिक बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र के अनुसार देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.4 फीसदी से बढ़कर अगले वित्त वर्ष में 8.9 फीसदी हो जाएगी, मगर इसके साथ ही खर्च और कर्ज भी बढ़ जाएगा। खर्च और आमदनी के अंतर को पाटने के लिए खर्च को कम करना होगा और आमदनी बढ़ाने के नए उपाय खोजने होंगे। इसी सिलसिले में उन्होंने अमीरों पर ज्यादा कर लगाने का सुझाव दिया है। वैसे चिदंबरम का यह सुझाव कोई अनोखा नहीं है। अमेरिका सहित कई यूरोपीय देश भी अपने यहां आर्थिक मंदी से निबटने के लिए अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाने का इरादा जाहिर कर चुके हैं।
फ्रांस में सबसे पहले यह सुझाव पिछले दिनों लिलियन बेटनकोर्ट नामक एक महिला उद्यमी ने और अमेरिका में वारेन बफेट ने दिया। लिलियन को यूरोप की सबसे धनी महिला माना जाता है और वारेन बफेट भी दुनिया के चुनिंदा बड़े अमीरों में शुमार किए जाते हैं। कुछ दिनों पहले बफेट ने न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख लिखकर राष्ट्रपति बराक ओबामा को सलाह दी कि वे अमेरिका को मौजूदा आर्थिक संकट से उबारने और सरकार के खाली खजाने को भरने के लिए सुपर रिच यानी बड़े अमीरों से ज्यादा टैक्स वसूल करें। लिलियन ने भी आर्थिक संकट से जूझ रहे यूरोपीय देशों को ऐसा ही करने को कहा। उनके इस सुझाव से यूरोपीय देशों के अमीरों ने भी सहमति जताई है और वे भी अपनी सरकारों से कह रहे हैं कि कृपया हम पर ज्यादा टैक्स लगाओ। अमेरिका तथा यूरोपीय देशों में आमतौर पर यह व्यवस्था है कि जो व्यक्ति जितना अधिक कर चुकाता है, उसे सरकार उसी अनुपात में दूसरी कई तरह की सुविधाएं भी देती है। इसीलिए इन देशों के अमीर अपने ऊपर ज्यादा टैक्स लगाने का आग्रह कर रहे हैं।
अमेरिका और यूरोप में तो अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाने की बात मंदी की आहट के चलते अब उठी है। हमारे देश में तो इस तरह सुझाव बहुत पहले साठ के दशक में ही पेश किया जा चुका है। उस समय आर्थिक उदारीकरण का तो कहीं अता-पता ही नहीं था और देश ने मिश्रित अर्थव्यवस्था अपना रखी थी, जिसे उस समय की सरकार समाजवादी अर्थव्यवस्था के रूप में प्रचारित करती थी। उस दौर में समाजवादी विचारक डॉ राममनोहर लोहिया ने लोकसभा में 'तीन आने बनाम पंद्रह आने' वाले अपने बहुचर्चित भाषण में खर्च की सीमा तय करने के साथ ही अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाने का सुझाव दिया था।उनका कहना था कि अमीरी के पर्वत को काट कर ही गरीबी की खाई को पाटा जा सकता है और सामाजिक विषमता को भी मिटाया जा सकता है।
चिदंबरम के बारे में यह तो नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने अमीरों पर ज्यादा कर लगाने का सुझाव लोहिया से प्रभावित होकर दिया होगा। क्योंकि चिदंबरम की राजनीति जिस वातावरण में परवान चढ़ी है और उनके जो राजनीतिक सरोकार रहे हैं उनको देखते हुए कोई नहीं कह सकता कि वे लोहिया से प्रभावित हुए होंगे या उन्होंने लोहिया को पढ़ा होगा। जाहिर है उन्हें इस सुझाव की प्रेरणा बराक ओबामा, वॉरेन बफेट या लिलियन बेटनकोर्ट से से ही मिली होगी। यह भी तय है कि ओबामा, बफेट या लिलियन ने भी इस तरह का विचार लोहिया को पढ़कर या उनसे प्रभावित होकर नहीं दिया है। ऐसा हो भी नहीं सकता, क्योंकि लोहिया ने यह सुझाव देश और दुनिया में व्याप्त आर्थिक-सामाजिक गैर बराबरी को दूर करने के मकसद से दिया था। जबकि ओबामा, बफेट और लिलियन यह सुझाव सरकारों के खाली होते खजाने को भरने के लिए दे रहे हैं। चिदंबरम की चिंता के केंद्र में अमीरी-गरीबी के बीच की गहरी होती खाई नहीं है। वे भी अमीरों पर ज्यादा कर लगाने की पैरवी सरकारी खजाने को भरने के लिए कर रहे हैं।
बहरहाल, चिदंबरम का यह सुझाव इसलिए भी चौंकाता है कि वे समाजवादी अर्थव्यवस्था के नहीं बल्कि उदारीकरण के ही पैरोकार माने जाते हैं और वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने ही करों की दरें कम कर धनी वर्ग को राहत पहुंचाई थी। अब चूंकि खजाने की चाबी उनके पास नहीं हैं, यानी वे वित्त मंत्री नहीं हैं और उनके पास गृह मंत्री के नाते देश की चौकीदारी का जिम्मा है, इसलिए शक होता है कि अमीरों पर ज्यादा कर लगाने का उनका सुझाव कोई शिगूफा तो नहीं है! अपने इस सुझाव को लेकर वे कितने गंभीर हैं यह तो पता नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि यह सुझाव उदारीकरण से कतई मेल नहीं खाता है। इसलिए लगता नहीं है कि उनके इस सुझाव को देश में उदारीकरण के प्रवर्तक और परम उपासक माने जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की धुन पर नृत्य करने वाले योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलुवालिया जैसे उनके सलाहकार परवान चढ़ने देंगे।
देश में इस समय आयकर चुकाने वालों की संख्या चार फीसदी से भी कम है। यानी लगभग सवा अरब की आबादी वाले देश में पांच करोड़ से भी कम लोग आयकर चुकाते हैं। जबकि सरकार आए दिन देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश करते हुए दावे करती है कि देश तेजी से आर्थिक विकास कर रहा है। सरकार जब यह दावा करती है तो उसका आशय देश के बड़े शहरों में खुलते शॉपिंग मॉल, सड़कों पर चमचमाती कारों की संख्या में इजाफे, उपभोक्ता वस्तओं बढ़ती खपत और शेयर बाजार के बढ़ते सूचकांक से होता है। सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्यूफेक्चरर्स द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में प्रतिदिन लगभग पांच हजार कारें शो रूम से निकलकर सड़कों पर आ रही हैं। वर्ष 2009 में 14 लाख 30 हजार कारों की बिक्री हुई थीं। इस आंकड़े में वर्ष 2010 में सीधे 31 फीसदी का इजाफा हुआ यानी इस वर्ष लगभग 18 लाख 70 हजार कारें शो रूम से निकलकर सड़कों पर दौड़ने लगीं। जाहिर है कि देश में आयकर के दायरे में आने वालों की तादाद पांच करोड़ लोगों से ज्यादा है, जबकि आयकर पांच करोड़ से भी कम लोग चुकाते हैं। यानी ब़ड़े पैमाने पर आयकर की चोरी होती है। ऐसे में सरकार अगर अपने टैक्स वसूलने वाले तंत्र को ही चुस्त-दुस्र्स्त कर ले तो उसके राजस्व में काफी बढ़ोतरी हो सकती है।
 राजस्व बढ़ाने का एक तरीका यह भी है कि सरकार लोगों के खर्च की सीमा तय करे और सीमा से अधिक किए जाने वाले खर्च पर कर का निर्धारण करे। सरकार अगर चिदंबरम के सुझाव को मानकर वास्तव में अमीरों पर करों बोझ बढ़ाती है तो ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसा करने के लिए वह किन लोगों को अमीर मानेगी। सरकार के सबसे बड़े मार्गदर्शक माने जाने वाले योजना आयोग ने गरीबी की परिभाषा तो तय कर दी है। उसके मुताबिक शहरों में 32 स्र्पए और गांवों में 26 स्र्पए रोज में जीवन-यापन करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं माना जाएगा। गरीबी मापने के इस हास्यास्पद पैमाने का व्यापक स्तर पर विरोध हो रहा है। इसी तरह जब सरकार अमीरों पर टैक्स की दरें बढ़ाते वक्त अमीरी का जो पैमाना बनाएगी, वह भी निश्चित ही विवादों से परे नहीं होगा। बहरहाल, सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि महंगाई और भ्रष्टाचार के कारण देश के गरीब और मध्यम वर्ग नाराजगी की नाराजगी झेल रही सरकार क्या देश के खाए-अघाए यानी सम्पन्न तबके को भी नाराज करने वाला कदम उठाने का साहस जुटा सकती है?