Saturday, July 30, 2011

मक्कारी में डूबा लफ्फाज विपक्ष


       भारतीय राजनीति आज अपने निकृष्टतम दौर से गुजर रही है। वह देश की समस्याओं का समाधान करने के बजाय खुद अपने आप में एक गंभीर समस्या बन चुकी है। पिछले कुछ महीनों से देश में मीडिया का सारा ध्यान केंद्र की यूपीए सरकार के घपलों-घोटालों और सत्तारूढ़ गठबंधन के नेतृत्व की समस्याओं को उजागर करने पर ही टिका हुआ है। सारी हदों को पार कर चुका भ्रष्टाचार और आसमान छूने को आतुर महंगाई के कारण केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन और उसका नेतृत्व कर रही कांग्रेस विश्वसनीयता और छवि के संकट से बुरी तरह जूझ रही है। लेकिन ऐसे दौर में सरकार और उसके नेतृत्व की खबर लेते हुए किसी का भी ध्यान विपक्ष के निकम्मेपन और मक्कारी की ओर नहीं जा रहा है। किसी भी लोकतंत्र के लिए इससे ज्यादा बुरा दौर और क्या हो सकता है कि जब सरकार सिर से पैर तक भ्रष्टाचार में डूबी हो, ईमानदार समझा जाने वाला सरकार का मुखिया यानी प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के बजाय भ्रष्टाचार में लिप्त अपने मंत्रियों का संरक्षक बना हुआ, जनता महंगाई के बोझ तले कराह रही हो, और इन सबके चलते विपक्ष महज सरकार के कमजोर होने और मुसीबतों में फंसे होने का जश्न मनाते हुए टेलीविजन चैनलों पर लफ्फाजी करने में मशगूल हो।
   दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र यानी हमारा मुल्क इन दिनों ऐसे ही बुरे दौर से गुजर रहा है। सिर्फ सत्तारूढ़ दल का ही नहीं बल्कि विपक्षी दलों का भी जनता से नाता टूट चुका है। सारे दलों को जनता की याद सिर्फ चुनाव के वक्त ही आती है। कुल मिलाकर देश की समूची राजनीति जनविमुख या यो कहें कि जनद्रोही हो चुकी है। जहां तक विपक्ष का सवाल है, वह आज संख्या के लिहाज से भारी होते हुए भी जिस तरह विचार और कर्म के स्तर पर दीन-हीन और नाकारा बना हुआ है, ऐसी हालत उसकी उसकी कभी नहीं रही। देश को आजादी मिलने के बाद शुरूआती वर्षों में जवाहरलाल नेहरू के मर्मस्पर्शी मोहक नेतृत्व का जादू अपने चरम पर था। कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक कांग्रेस के सामने कोई चुनौती नहीं थी। उस दौर में संसद में कांग्रेस के पहाड़ जैसे बहुमत के मुकाबले विपक्ष के मुठ्ठीभर सांसद ही हुआ करते थे, लेकिन वे मुठ्ठीभर सांसद ही लोक महत्व के सवालों और सरकार की जनविरोधी नीतियों को लेकर संसद को हिलाने और सरकार को सांसत में डालने का काम करते थे। यह वह दौर था जिसमें विपक्षी दलों के पास जयप्रकाश नारायण, के गोपालन, अजय घोष, हीरेन मुखर्जी, डॉ राममनोहर लोहिया, एस डांगे, बी टी रणदिवे, मधु लिमये, अटलबिहारी वाजपेयी, सुरेंद्रनाथ द्विवेदी, किशन पटनायक, अशोक मेहता, प्रकाशवीर शास्त्री, भूपेश गुप्त, रवि राय, मधु दंडवते, जार्ज फर्नांडीस, ज्योतिर्मय बसु, इंद्रजीत गुप्त जैसे तेजस्वी व्यक्तित्व और ओजस्वी वक्ता थे। हालांकि इनमें से कई नेता संसद में नहीं थे, लेकिन इन सभी नेताओं की जनता में साख और सरकार पर धाक थी। ये सारे नेता चाहे जिस दल के रहे हों, सभी के पास सपनों, कार्यक्रमों और विचारों की शानदार दौलत थी। ये नेता जब किसी नीतिगत मुद्दे पर सरकार की खिंचाई करते थे तो सत्तारूढ़ दल के नेता बगले झांकने लगते थे। उस दौर में विपक्ष सड़कों पर भी दिखता था। तब टेलीविजन भी नहीं था और समाचार पत्र भी आज जितने नहीं थे, फिर ये नेता जो कहते थे जनता उसे गौर से सुनती-पढ़ती थी। आम जनता के रोजमर्रा के जीवन से जुड़े सवालों को लेकर जनांदोलन होते थे, जेलें भरी जाती थी और यह सब आज की तरह रस्मी तौर पर नहीं बल्कि वास्तविक अर्थों में होता था।
    आज विपक्ष की जो हालत है वह कोई नई राजनीतिक परिघटना नहीं है। विपक्ष की इस पतन-गाथा की शुरूआत हुई 1967 के आमचुनाव के बाद। सन् 1967 में डॉ लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के रणनीतिक सिध्दांत के चलते सिर्फ संसद में कांग्रेस का बहुमत घटा बल्कि देश के कई राज्यों में कांग्रेस की सत्ता पर इजारेदारी भी टूटी और संयुक्त विधायक दलों (संविद) की सरकारें अस्तित्व में आईं। सारे विपक्षी दलों को सत्ता में हिस्सेदारी मिली। सत्ता की सोहबत ने विपक्ष के लड़ाकू तेवर खत्म करना शुरू कर दिए। चूंकि यह सत्ता-सुख अल्पकालिक ही रहा, इसलिए विपक्षी दलों में संघर्ष का और व्यवस्था से टकराने का माद्दा थोड़ा-बहुत बचा रह गया, लेकिन 1974 के जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आंदोलन और आपातकाल के बाद 1977 में केंद्र और राज्यों में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद तो विपक्षी दल लगभग पूरी तरह सिर्फ सुविधाभोगी और सत्ताकामी हो गए बल्कि उनके अधिकांश नेता और कार्यकर्ता भ्रष्ट और बेईमान भी हो गए।
       केंद्र और राज्यों में हम आज जो विपक्ष देख रहे हैं उसके पास जनता के सवालों को लेकर व्यापक संघर्ष का कोई कार्यक्रम नहीं है। अपने कार्यकर्ताओं को वैचारिक राजनीतिक प्रशिक्षण देने का सिलसिला तो सभी दलों में बहुत पहले ही खत्म हो चुका है। जन-समस्याओं को लेकर या सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आंदोलन करते हुए जेल जाने की तैयारी रखने वाले लोग इन दलों में शायद अंगुलियों पर गिनने जितने ही मिलेंगे। आपातकाल के बाद से लेकर अब तक लगभग साढ़े तीन दशकों में जनता के सवालों को लेकर जेल जाने वालों से ज्यादा संख्या उन नेताओं की मिलेगी जिन्हें  आपराधिक कारणों से जेल जाना पड़ा है। अब तो केवल बयानबाजी करके अथवा धरना-प्रदर्शन से प्रतीकात्मक कर्मकांडों से काम चल जाता है। जिस तरह हमने क्रिकेट में मैच फिक्सिंग देखी है, ठीक उसी तर्ज पर अब विपक्षी दलों के आंदोलन और गिरफ्तारी भी अब 'फिक्स" होने लगी है। इस 'आंदोलन फिक्सिंग" के तहत आंदोलन करने वाली पार्टी के नेताओं और स्थानीय प्रशासन पुलिस के बीच पहले से ही तय हो जाता है कि उनका धरना या प्रदर्शन कितनी देर चलेगा और उन्हें गिरफ्तार करने के कितने घंटे बाद छोड़ दिया जाएगा। यह तय हो जाने के बाद प्रायोजित प्रदर्शनकारियों का समूह नारेबाजी करता है, पुतला फूंकता है और इसके बाद पुलिस उन लोगों को बसों में भरकर थाने पर या जेल के दरवाजे पर ले जाती है, जहां डिप्टी कलेक्टर स्तर का एक अधिकारी पहले से मौजूद रहता है, जो उन लोगों को 'चेतावनी" देकर रिहा कर देता है। टीवी चैनलों पर भी यह कर्मकांड दिखा जाता है और अखबारों में भी इसकी तस्वीरें और खबरें छप जाती है।
     आज की स्थिति में विपक्षी दल परम आनंदित हैं। उनका यह आनंद अपनी किसी कामयाबी को लेकर नहीं बल्कि सरकार की दुर्गति से पैदा हुआ है। जैसे ही सरकार के किसी मंत्री का कोई घपला-घोटाला सामने आता है विपक्षी नेता मन ही मन मुदित हो उठते हैं। वे उत्साहित होकर संबंधित मंत्री के इस्तीफे की मांग करने लगते है। घोटाले उजागर होने से सरकार कमजोर होती है, उसकी छवि पर बट्टा लगता है। सरकार जितनी ज्यादा कमजोर होती जाती है विपक्ष को उतना ही ज्यादा मजा आता है, क्योंकि उसे सत्ता अपने करीब आती लगती है। पर देश की जनता के साथ ऐसा कतई नहीं है। सरकारों के कमजोर होने का खामियाजा सबसे ज्यादा आम आदमी को ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि सरकारों के कमजोर होने से ही जमाखोरों, मुनाफाखोरों और कालाबाजारियों, सरकारी दफ्तरों के भ्रष्ट अफसरों और बाबूओं के हौंसले बढ़ते हैं और उनको खुलकर खेलने का मौका मिलता है। उनके खुलकर खेलने से ही महंगाई और भ्रष्टाचार में इजाफा होता है।
     आज टीवी चैनलों पर मन ही मन आनंदित विपक्षी नेताओं की सरकार के खिलाफ आक्रामक भावभंगिमाओं को देखकर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे किस फिराक में हैं और किस मौके का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। विपक्ष केवल इसी ताक में है कि सरकार के किसी मंत्री का घोटाला उजागर हो और वह उससे इस्तीफे की मांग करे। सरकार का भ्रष्टाचार उजागर करने का काम अब विपक्ष नहीं करता। यह काम तो उसने काफी पहले ही करना छोड़ दिया है। इस काम को करने का जिम्मा अब नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी), मीडिया और अदालतों के पास है। कोई समय था जब विपक्ष सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर करता था और फिर मीडिया में उसकी खबर आती थी। याद कीजिए आजादी के बाद शुरू हुए नेहरू युग को जिसमें सेना के लिए खरीदी गई जीपों में हुआ घोटाला और शेयर घोटाला (मूंदड़ा कांड) मीडिया ने नहीं बल्कि विपक्ष ने उजागर किया था, जिनके चलते जिसमें तत्कालीन रक्षा मंत्री वी के कृष्ण मेनन और तत्कालीन वित्त मंत्री टी टी कृष्णमाचारी दोषी पाए गए थे  अब मीडिया भ्रष्टाचार को उजागर करता है तब विपक्ष की नींद खुलती है और वह टीवी कैमरों के सामने आकर सरकार से इस्तीफे की मांग करता है। विपक्ष की यह भूमिका महज केंद्र तक ही सीमित नहीं है। राज्यों में भी उसका यही हाल है। दरअसल, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को सत्ता प्राप्ति के हथियार में इस गलतफहमी के साथ बदला जा रहा है कि जनता अगर बेवकूफ नहीं है तो उसे बेवकूफ बनाया जा सकता है। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता। जनता की दिलचस्पी सत्ता परिवर्तन में कतई नहीं हैं, क्योंकि वह जानती है कि आज जो विपक्ष में हैं, कल वे भी अगर सत्ता में गए तो स्थिति में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आना है। इसलिए जनता सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन चाहती है। 
     यह अफसोस की बात है कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए जनता अथवा नागरिक समाज सिविल सोसायटी का जो देशव्यापी दबाव बन रहा है उसे वामपंथियों के अलावा सारे विपक्षी दल जनता की सत्ता परिवर्तन की इच्छा के रूप में देख रहे हैं। प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह जब भी अपनी सरकार पर कोई संकट आता है तो 'गठबंधन की मजबूरियों" का वास्ता देते हैं। उनकी इस दलील के औचित्य पर बहस हो सकती है, लेकिन विपक्षी दलों के सामने ऐसी कौनसी मजबूरी थी कि जिसके चलते उन्होंने लोकपाल की स्थापना को लेकर सिविल सोसायटी और सरकार के मसौदों पर ईमानदारी के साथ देश की जनता के सामने अपना पक्ष नहीं रखा। अण्णा हजारे और योग गुरू रामदेव की पालकी का कहार बनने को आतुर विपक्ष इस मसले पर सरकार द्वारा बुलाई गई बैठक में संसद की सर्वोच्चता और सार्वभौमिकता का हवाला देकर सिविल सोसायटी के मसौदे को हजम कर गया। विपक्षी दलों में अगर नैतिक साहस होता तो वे सिविल सोसायटी के मसौदे का समर्थन करते या फिर सरकार द्वारा तैयार किए गए मसौदे पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते या फिर अपनी ओर से ही कोई नया मसौदा पेश करते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया। जाहिर है कि विपक्षी दलों को मजबूत और कारगर लोकपाल नहीं बल्कि सत्ता और सिर्फ सत्ता चाहिए।