लंबे
समय से
भारत ऐसा
देश रहा
है, जहां
एक ओर
तो समृध्दि
के द्बीप
जगमगातेे हैं,
वहीं दूसरी
ओर घोर
लाचारी और
कंगाली का
महासागर हिलोरे
मारता है।
बीते दो
दशकों से
यानी नव
उदारीकृत आर्थिक
नीतियां लागू
होने के
बाद से
यह स्थिति
और विकराल
हुई है।
एक छोटा
तबका आला
दर्जे के
ऐशो-आराम
वाली जीवनशैली
के मजे
ले रहा
है, वहीं
दूसरी ओर
देश की
आबादी के
एक बड़े
हिस्से को
भरपेट भोजन
तक मयस्सर
नहीं हो
रहा है।
हमारे लगभग
आधे बच्चे
कुपोषित हैं।
कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों
के जरिए
भारत में
कुपोषण की
व्यापकता सामने
आ चुकी है और
अब एक
बार फिर
कुपोषण के
साथ-साथ
कुष्ठ रोग
की भयावह
और चिंताजनक
हकीकत सामने
आई है।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन
(डब्ल्यूएचओ) की
ताजा रिपोर्ट
बयान करती
है कि
दुनिया भर
में पांच
साल से
कम उम्र
के बच्चों
की मौत
की कुल
घटनाओं में
एक चौथाई
अकेले भारत
में होती
है। रिपोर्ट
कहती है
कि इस
आयु वर्ग
के बच्चों
की मौत
के मामले
जहां दुनिया
के दूसरे
तमाम देशों
में कम
हो रहे
हैं, वहीं
भारत में
हालात जस
के तस
बने हुए
हैं। रिपोर्ट
के मुताबिक
इससे भी
ज्यादा अफसोसनाक
स्थिति कुष्ठ
रोगों के
मामले में
है। तमाम
जागरुकता अभियानों
से इलाज
के बेहतर
इंतजामों के
सरकारी दावों
की शर्मनाक
हकीकत यह
है कि
दुनिया के
कुल कुष्ठ
रोगियों में
से पचपन
फीसदी अकेले
भारत में
है। डब्ल्यूएचओ
की इस
रिपोर्ट में
दिए गए
भारत संबंधित
तथ्य बताते
है कि
विकास के
तमाम सरकारी
दावों में
कितना विरोधाभास
है।
कुछ
समय पहले
जारी हुई
भारत के
महापंजीयक की
रिपोर्ट में
भी देश
के विरोधाभासी
विकास को
रेखांकित करते
हुए बताया
गया था
कि शिशु
मृत्यु दर
पर काबू
पाना चुनौती
बना हुआ
है। शहरों
में स्थिति
कुछ सुधरी
है लेकिन
गांवों में
हालात अभी
बदतर हैं।
उस रिपोर्ट
के मुताबिक
शहरों में
प्रति एक
हजार में
से 42 बच्चे
जन्म लेने
के बाद
ही दम
तोड़ देते
हैं, जबकि
गांवों में
यह आंकड़ा
प्रति एक
हजार बच्चों
पर 67 है।
इनमें भी
बच्चियों की
तादाद ज्यादा
है। डब्ल्यूएचओ
के मुताबिक
शिशु मृत्यु
के कारणों
में डायरिया,
मलेरिया, निमोनिया
और प्रसव
के दौरान
अचानक पेश
आने वाली
अन्य समस्याएं
हैं। डब्ल्यूएचओ
का कहना
है कि
अगर कुपोषण
मिटाने, स्तनपान
कराने और
गर्भवती महिलाओं
को पूरक
आहार देने
का समुचित
इंतजाम कर
दिया जाए
तो लाखों
बच्चों को
असामयिक मृत्यु
से बचाया
जा सकता
है।
इन
बीमारियों से
निपटने और
गर्भवती महिलाओं
की देखभाल
व उचित पोषण के
लिए हमारे
यहां एकीकृत
बाल विकास
योजना और
आंगनबाड़ी योजना
अरसे से
चल रही
है। इसके
अलावा सुरक्षा
जननी जैसी
कुछ अन्य
योजनाएं भी
हैं, लेकिन
इन सबके
बावजूद भारत
की गिनती
दुनिया के
सर्वाधिक कुपोषणग्रस्त
मुल्क में
होती है
और यहां
प्रसव के
दौरान महिलाओं
की मृत्यु
दर और
शिशु मृत्यु
दर का
ग्राफ काफी
ऊंचा है।
कुष्ठ रोग
से निपटने
के मामले
में स्थिति
भिन्न नहीं
है। इस
मोर्चे पर
भी सरकारी
नीतियां विरोधाभासों
भरी हुई
हैं। कुष्ठ
रोगी एक
तरफ तो
समाज में
उपेक्षा और
हिकारत का
सामना करते
हैं, वहीं
ट्रेन में
आम मुसाफिरों
के साथ
सफर करने
और ड्राइविंग
लाइसेंस प्राप्त
करने तक
पर पाबंदी
ज्ौसे कानूनी
प्रावधानों के
जरिए सरकारी
तौर पर
भी कुष्ठ
रोगियों के
साथ भ्ोदभाव
किया जाता
है। यह
सब तब
होता है
जबकि कुष्ठ
रोग न
तो लाइलाज
है और
न ही अनुवांशिक और
ज्यादातर मामलों
में इसके
संक्रमण का
जोखिम नहीं
होता।
कुपोषण
को लेकर
तो कुछ
महीनों पहले
कई दलों
के सांसदों
और विभिन्न
क्षेत्रों में
कार्यरत हस्तियों
की एक
संस्था द्बारा
किए गए
एक सर्वेक्षण
की रिपोर्ट
जारी करते
हुए प्रधानमंत्री
मनमोहन सिह
ने भी
देश में
कुपोषण की
स्थिति को
राष्ट्रीय शर्म
का विषय
करार दिया
था। अर्थशास्त्री
प्रधानमंत्री ने
कुछ दिनों
पहले भी
चिता और
हैरानी जताई
थी कि
कई सालों
से ऊंची
विकास दर
हासिल करते
रहने के
बावजूद ऐसे
हालात क्यों
बने हुए
हैं। जबकि
गुजरात के
मुख्यमंत्री ने
अपने राज्य
में इस
समस्या के
लिए महिलाओं
में सुंदर
और छरहरा
दिखने की
ललक को
जिम्मेदार बताया
था। दरअसल,
ऊंची विकास
दर अर्थव्यवस्था
की गतिशीलता
का पैमाना
तो हो
सकती है
लेकिन यह
हाशिए पर
जी रहे
लोगों की
बेहतरी की
गारंटी नहीं
हो सकती।
दुनिया के
तमाम गरीब
देश कुपोषण
की समस्या
का सामना
कर रहे
हैं।
संयुक्त
राष्ट्र ने
इस समस्या
के अंत
के लिए
वर्ष 2०15
की डेडलाइन
भी तय
कर रखी
है। लेकिन
अपने देश
में इस
लक्ष्य का
हासिल करने
में अभी
25 साल से
भी ज्यादा
का समय
लग सकता
है। दरअसल,
कुपोषण एक
तरह से
धीमे जहर
के समान
है जो
शरीर को
जिदा तो
रखता है
लेकिन उसे
भीतर से
खोखला भी
बनाता रहता
है। इसकी
अनदेखी से
भविष्य ही
प्रभावित नहीं
होता है
बल्कि वर्तमान
को भी
बड़ी भारी
कीमत चुकानी
पड़ती है।
विकास के
हमारे मौजूदा
मॉडल में
आर्थिक प्रगति
और विकास
का लाभ
छनकर समाज
के निचले
तबकों में
अपने आप
नहीं पहुंच
रहा है।
अनियमितताओं और
भ्रष्टाचार से
सनी सरकारी
योजनाओं और
कार्यक्रमों के
जरिए किसी
तरह हम
मानवीय अस्तित्व
ही बचा
पा रहे
हैं, भावी
पीढ़ी नहीं।
भावी पीढ़ी
को बचाने
के लिए
एक व्यापक
राष्ट्रीय अभियान
की दरकार
है जिसमें
सरकारों के
साथ ही
समाज के
सक्षम तबकों
और कॉरपोरेट
जगत को
भी उत्साह
के साथ
आगे आकर
शिरकत करनी
चाहिए।